Friday, July 4, 2008

गंदे लोगो से छुडवाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ

पापा आओ ना
अपनी प्यारी गुड़िया को
यहा से ले जाओ ना

नही रहना अब मुझे यहाँ
कैसे आप को करू बयाँ

रोती हू,बिलखती हू
ज़िंदगी से डरती हू
एक दिन मरते है सब
रोज़ रोज़ मैं मरती हू

कल रात गरम पानी
गिर गया मुझ पर,
ऐसा मेरी सास पड़ोसन
को कहती है,

कैसे जानोगे पापा
क्या क्या आपकी बेटी
सहती है,

नोंचते है गिद्ध दिन भर
रात को आता है दरिन्दा
सोचो पापा कैसे आपकी
गुड़िया अब रहेगी ज़िंदा,

पापा अब ना देर लगाओ
जल्दी से तुम आ जाओ
वरना कल ये खबर मिलेगी
एक रसोई फिर से जलेगी

कल फिर गैस का फटना होगा
मेरी गर्दन का कटना होगा
लोभी ये खूनी दरिंदे
लोग सभी है ये गंदे

गंदे लोगो से छुडवाओ
पापा मुझको तुम ले जाओ

24 comments:

  1. पापा मुझको तुम ले जाओ..

    जिस दर्द को आपने लफ्जों में ढाला है वह बहुत ही भावुक कर देने वाला है ...पुरी कविता बहुत अच्छी है पर यह पंक्ति सीधे दिल पर असर करती है ...पता नही कब तक बेटियाँ यूँ पुकारती रहेंगी

    ReplyDelete
  2. ek samvedna bhari kavita...aur ek zordar tamacha apne MAHAN desh ki bejod SANSKRITI par...

    ReplyDelete
  3. kitni maasoomiyat se kitna gehen vishay bayaan kiya hai..
    sensitvity se handle kiya gaya hai...
    punah punah aise vishayon par likhkar..aapka logo ko jagruk karne ka prayaas sarahniya hai..

    likhte rahe..

    ReplyDelete
  4. कया कविता कही हे कितने सवाल छोड गई ??? क्यो हम इतने कठोर ओर निर्दयी बनते जा रहे हे?

    ReplyDelete
  5. लाजवाब लिखा है कुश भाई. झकझोरने,मन को छू लेने वाले भावुक कर देने वाले भाव साधुवाद के पात्र हैं..आपके मन कलम को सलाम.
    काश उन बहरे कानो तक यह आवाज पहुंचे,कुछ दिल पसीजे.

    ReplyDelete
  6. अच्छा लिखा है, आपका लेखन वाकई काबिलेतारीफ है. मन को छू लेने वाला. आशा है कि आगे भी इस तरह की रचनायें पड़ने को मिलेंगी. उन लोगो के मुह पर तमाचा जो इस तरह लड़कियों को तंग करते है.

    ReplyDelete
  7. आज फिर नम हो गयीं आंखें। समाज को इस तरह की बोधगम्‍य किंतु मार्मिक कविताओं की जरूरत है।

    ReplyDelete
  8. satya hai....par dua karungi ki jaldi hi satya badle...

    ReplyDelete
  9. बहुत दर्द है। यही दुआ है कि किसी पापा को कभी भी ऐसा खत पढ़ने को न मिले

    ReplyDelete
  10. कष्ट दायक है यह पढ़ना। और यही सार्थकता है शायद पोस्ट की।

    ReplyDelete
  11. रोती हू,बिलखती हू
    ज़िंदगी से डरती हू
    एक दिन मरते है सब
    रोज़ रोज़ मैं मरती हू

    कुश। इतना दर्द बयान कर दिया। हम तो भावुक हो गये। क्या कहें। सोच कर ही रोगंटे खडे होते है। कुछ लड़कियाँ तो इसको किस्मत मान कर ही पूरा जीवन गुजार देती है। और सुख कर लकडी सी हो जाती है।

    ReplyDelete
  12. अजीब सा मन हो गया है.....पेज -३ मूवी के कुछ भाग मै इसलिए नही देखता ....घिनोना सच

    ReplyDelete
  13. बहुत ही संवेगी मनुहार !

    ReplyDelete
  14. bahut sachchi aur dard bhari kavita hai...kaash hamare samaj se ye ghinona sach hamesha ke liye mit jaye.

    ReplyDelete
  15. बेटीयोँ को इतना प्यार दिया जाये जिससे वे साहस रखेँ अपना सच अपने पापासे कह देने का इससे पहले की बहुत देर हो जाये -कुश भाई आप की सँवेदनाशीलता से मन प्रसन्न है पर कविता के सच मेँ छिपी हकीकत से दुखी हूँ :-((
    -लावण्या

    ReplyDelete
  16. मर्मस्पर्शी रचना....काश इसे वो दरिन्दे भी पढ़ें जिनके सीने में दिल नहीं धड़कता...

    ReplyDelete
  17. मर्मस्पर्शी रचना....काश इसे वो दरिन्दे भी पढ़ें जिनके सीने में दिल नहीं धड़कता...

    ReplyDelete
  18. kaise bhool jate hain wo log ki unki bhi bethiyaan hain!
    aapki samvedansheelta to hamesha se sarahi jati rahi hai.
    Ek aur baar dard ko shabdon mein gahrai se pirone ke liye badhai..

    ReplyDelete
  19. मर्मस्पर्शी ... दिल में उथल पुथल मचाने में सफल रचना...

    ReplyDelete
  20. बहुत दर्दनाक है. आपने संवेदनशीलता की अद्भुत मिसाल दी है, कुश. बहुत सुंदर रचना है.

    ReplyDelete
  21. पढ़ कर आंसू आगये आंखों में,इतना कड़वा सच बर्दाश्त करने की हिम्मत ही नही थी...बहुत अच्छा लिखा...

    ReplyDelete
  22. कया कविता कही हे काश ये आवाज़ उन दरिन्दे ऑरत और मर्द दोनों के बहरे कानो तक पहुंचे, जिनके सीने में दिल नहीं धड़कता... आख़िर वो बाप क्या क्या करे जिसकी बेटी इस तरह परेसान की जाती है और वो ओरत वो पुरूष जो उसके सास - ससुर ,पति ,नन्द - नंदोई सब ऐसे ही है वाकई रचना सवाल करती ई लकिन जवाब नारी को देना होगा आख़िर वो मर्दों को कब समझेगी
    “लुटती है जिसकी इज्ज़त दिन -रात अपनों मै वो किसे अपना कहे”

    ReplyDelete
  23. बेहद मार्मिक है रचना है कुश!

    हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
    ...वैसे ही कुश में हैं कई आदमी।

    ऐसा मैंने महसूस किया।

    अंगूठा छाप की बधाई स्वीकारें...

    ReplyDelete

वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..