Monday, December 17, 2007

पिछ्ले वीकेंड पर डाक बंगले में

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पिछ्ले वीकेंड पर डाक बंगले में
बढ़िया कॅंप फ़ायर हुई थी...
देर तक घड़ी के नुंबरो में
अटकी रही सुई थी..

मिसटर शर्मा मिसेज़ वर्मा
कपूर साहब .. मिसेज़ चॉप्रा
सब के सब कपल आए हुए थे
जाम पे जाम मेहफ़ील में छ्ाए हुए थे

टेबल पर वोड्का की बॉटल के पास
गोल्डन कलर का रखा था बॉक्स
सारे मिसटर ने अपनी कार की चाबिया
डाल दी सुनहरे कलर के बॉक्स में

अगले जाम के साथ शुरू होने वाला था
अदला बदली का खेल,.. हवा में जाम टकराए
मिस्टर. शर्मा चिल्लाए.. कम ऑन फ्रेंड्स...
और चाबी वाले बॉक्स में डाल दिए सबने हाथ

चाबी होंगी जिसकी जिसके हाथ में
बीवी जाएगी उसकी उसके साथ में
अदला बदली का खेल था ये
नये ज़माने का कैसा 'मैल' था ये

मिस्टर. शर्मा के हाथ में आई
मिस्टर .वर्मा जी की कार..
पर बीवी ने वर्मा जी की
साफ़ कर दिया इनकार...

वर्मा जी को थी जल्दी..
स्टेटस का भी रखना था ख़्याल
बीवी को नज़रो से कर दिया चुप
पर आँखो में फिर भी रहा सवाल

रात गहरी निकल चुकी थी..
सुबह ने दी फिर से आवाज़
सभी लौट कर चल दिए घर को
निपटने अपनी काम काज

आज फिर से वीकेंड है..
फिर से आज महफ़िल सज़ेगी
जाम से जाम फिर टकराएंगे
गाड़ियो की चाबिया फिर बदलेंगी

मिसेज़ वर्मा कब से बैठी है तैयार
मगर वर्मा जी कुछ ख़ुश नही..
शायद उनकी सारी हसरत आज पिघल गयी
बदलना चाहते थे बीवी पर शायद बीवी बदल गयी..

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छन्न से तू चली आई मेरे सपनो में

छन्न से तू चली आई मेरे सपनो में
हसी फिर लबो पर खिलखिलाई मेरे सपनो में...

संगिनी बन तू संग.. रहेगी जीवन भर
उम्मीद की इक कली खिल आई मेरे सपनो में...

जो रज़ा थी छुपी तेरे दिल के किसी कोने में
वो निगाओ से छ्लचलाई मेरे सपनो में...

इक तपीश लबो से, तूने रखी थी मेरे लबो पर
जली हो जैसे दिया सलाई मेरे सपनो में...

भीड़ में खो ना जाए बच्चा , मा के हाथो से
थाम ली कुछ ऐसे तूने कलाई मेरे सपनो में ...

एक मुक़कम्मल ज़िंदगी जो पा नही सकता था मैं
कुछ इस तरह से तूने दिलाई मेरे सपनो में..

Saturday, December 1, 2007

"...कुछ क्षनिकाए...."


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दूर अंतरिक्ष से
गिरा था एक उल्का पींड
सीधा टकराया मेरी
कल्पनाओ से..

तुम्हारे टुकड़े टुकड़े
कैसे संभाल कर
जोड़े थे मैने...

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फिर रात को संभाला था तुमने..
कैसे आसमा से
ज़मी पर आ गयी थी
साथी की तलाश में..

तुम्हे देख लिया था शायद
आज अमवास जो है..

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उम्मीद बूझने वाली है
मगर जाने कॉनसा
तेल डाल रखा है..
लौ बूझने का नाम नही लेती
हर थोड़ी देर बाद
और भड़क जाती है..
शायद जवान बेटे का इंतेज़ार करती
मा की आँखें होगी....

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मशाले शायद रास्ता
भटक गयी..
या फिर तू कही मुस्कुराई है


आज फिर अंधेरी गलियो
से रोशनी नज़र आई है...

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तेरी हर नज़र शरार्त है.....

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ज़ुल्फ़ो में लगे गुलाब को
देख कर शरमाती..
तेरी हर नज़र शरार्त है....

माथे की बिंदिया चूम कर
निगाओ में छुप जाती...
तेरी हर नज़र शरार्त है.......

निगाओ से होते हुए..
लबो पर ज़रा ठहरती,..
तेरी हर नज़र शरार्त है......

लबो की सहराओ से निकल
गर्दन पर मचल जाती
तेरी हर नज़र शरार्त है....

गर्दन से उतरती होले
सीने में दफ़न हो जाती..
तेरी हर नज़र शरार्त है.....

सीने में सिर्हन जगाती
कमर पर आकर ठहरती..
तेरी हर नज़र शरार्त है....

कमर से उतरती नीचे
एक अगन जगा जाती..
तेरी हर नज़र शरार्त है...

पैरो की तलहटियो में
मगन सी होती जाती
तेरी हर नज़र शरार्त है...

क़दम प्यार से चूमती
जन्नत की सैर कराती...
तेरी हर नज़र शरार्त है

भरी महफ़िल में ना छ्ूकर भी
एक छुहन जगा जाती..
तेरी हर नज़र शरार्त है.....

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Wednesday, October 10, 2007

"शिथिल मैं शिथिल मॅन"

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शिथिल मैं शिथिल मॅन
उड़ रहा जैसे क्टी पतंग
ना लक्ष्य है ना आस है
ना हिम्मत ना प्रयास है
देखता हू दूर बहुत
क्षितिज़ के उस पार तक
धूल है बस धूल है..
ना बूझ सके वो प्यास है
क़दम जमे ज़मीन पर
ना इनमे कोई जान है
थमते है ठहरते है
ना जाने कहा प्राण है
भविष्या को देखती
नज़र है इक आँख है
झूलती डगर पर
टूटती सी साख है
बहुत से है गगन में मेघ
ना बूँद ना आभास है
सूखी पड़ी ज़मीन से
जैसे कोई परीहास है
रुकी हुई थकि हुई
गुम सी अब मिठास है
फूल क्या लताए क्या
सबकी सब उदास है
रूकु कही, थमू कही
रोशनी हो जलु कही..
धागा बनू जलता राहू
साथी मुझे मोम की तलाश है
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"सामने वाला घर आज भी याद है"

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नया नया कमरा लिया था
सामने वाला घर आज भी याद है
जहा वो रहती थी..
नर्म मुलायम पँखो वाली
परी मैं जिसको कहता था..

खिड़की में आती थी और
सुखाती थी अपने बालो को
मैं उसके बालो से गिरती बूंदो की ठंडक
अपने गालो पर पाता था..

ना चाहते हुए भी
नज़र उस ओर मूड जाती थी
किताब हाथ में लिए
चश्मा नाक पर रहता था

ना नज़रे मिलाकर भी
वो नज़रना दे देती थी
मैं मस्त पवन सा
फ़िज़ाओ में मंडराता था

शाम सुहानी आते ही
वो आ जाती थी खिड़की में
मैं ख़्यालो में ही उसके माथे पर
आती ल्टो को हटाता था..

पोस्टमैन आता चिट्ठी देने
और वो लेने आती थी
बस इक नज़र का मिलना होता
दो सदी की प्यास बूझ जाती थी

वो छत पर आती थी
कपड़े सूखाने
मैं दिल के तरकश से
नज़रो के बान चलाता था

वो शरमाती थी बेलो सी
और जवाब मुझे मिल जाता था
मैं ख़ुद को बस इक ही पल में
बदलो से आगे पाता था

अब भी तो सब कुछ वैसा है
तुम अब भी उतनी ही प्यारी हो
मैं प्राण नाथ तुम्हारा हू
तुम प्रानो से मुझको प्यारी हो

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"छू लेते है लब तेरी आँख का पानी"

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छू लेते है लब तेरी आँख का पानी
जब शर्म से इनमे नमी आ जाती है

थाम लेते है कलाई बड़े यकीन के साथ
जब उमीदो की थोड़ी कमी आ जाती है

तुम जो साथ हो तो ज़िंदगी जन्नत है
वरना अक्सर इसमेें गमी आ जाती है


तमन्ना है पनाह मिल जाए तेरे क़दमो में
मगर वहा भी बेरहम ज़मी आ जाती है


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"सलाम नाथुराम! सलाम नाथुराम"

सुबह सोकर उठा तो
हैरान रह गया..
जहा भी जाता हू लोग एक दूसरे
को कह रहे है..
सलाम नाथुराम! सलाम नाथुराम

मैं घर में घुस जाता हू
दरवाज़े खिड़किया सब
बंद कर लेता हू.. छुप जाता हू
बाथरूम मैं दरवाज़ा
बंद करके.. आईने में मुझे
फिर नज़र आता है नाथुराम..

घर की सारी दीवारो पर..
नाथुराम की तस्वीरे है.
टीवी में नाथुराम,, अख़बार में
नाथुराम.. मुझे पागल बना
दिया है इसने..

जहा भी नज़र दौड़ाता हू
मुझे सब नाथुराम क्यो लगते है..

मैं भागता हू एक व्यक्ति मिलता है
मुझे फूल देता है..
गले लगाता है... मैं सब भूल जाता हू
ख़ुश हो जाता हू... उसका नाम पूछता हू
वो मुन्ना बताता है..
मैं उसको शुक्रिया कहता हू..
एक फूल लेता हु..दुस्रे को देता हू
वो वही फूल किसी और को देता हू
मुझे गाँधी नज़र आता है.. नाथुराम
मेरी आँखो से दूर जाता है..
गाँधी ही गाँधी हर ओर नज़र आता है
वाह मुन्ना ...कमाल कर दिया तुमने

गाँधिगिरी चलाने की तुमको है बधाई
हम है तुम्हारे साथ लगे रहो मुन्नाभाई..

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"बादल मानते नही बरस जाते है चुपके स"

बादल मानते नही
बरस जाते है चुपके से
इन्हे तेरी यादो में
रोना अच्छा लगता है

पेडो की डालिया झूम जाती है
अक्सर हवाओ में
इन्हे तेरे ख़्यालो में
ख़ुश होना अच्छा लगता है

समंदर हो जाता है चुप
शाम के कद्म रखते ही
इसे तेरे ख्वाब देखते हुए
सोना अच्छा लगता है

सूरज बैठ जाता है चुपचाप आकर
सुबह सुहानी पहाड़ी के पीछे
इसे तेरे आने की ताकीद में
बाट जोना अच्छा लगता है

हवाए मंद मंद उड़ते हुए
अक्सर ठिठक कर रुक जाती है
इन्हे तेरे ख़्यालो की राहो में
खोना अच्छा लगता है

तू आकर सिमट जाए मेरी बाजुओ में
और मैं गुज़ार लू पूरी ज़िंदगी अपनी
इसी हसीन पल की आस का बीज
बोना अच्छा लगता है

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Saturday, August 18, 2007

है आया आज फिर कुश महफ़िल में...

उदास रात है आज, आ जाओ फिर से
ज़मी पे नूर की चादर बिछओ फिर से..

बड़े दीनो से सोया नही है इक पल
की अपनी पॅल्को में दिल को सुलाओ फिर से..

मेरे अर्मा बीयाबानो मैं है फँसे हुए
की अपनी हँसी से हँसी तर बनाओ फिर से..

कब से सूख कर ज़र्रा हो गये लब इस कदर
अपनी गीली ज़ुल्फ़ को लहराओ फिर से..

है चाँद को गुमा ख़ूबसूरती पे अपनी
ज़रा चेहरे से पर्दा हटाओ फिर से..

एक सिर्हन भूल चुकी है साँसे मेरी
सीने पे उंगलियाँ मेरे चलाओ फिर से..

तुम्हारी अदा में वो कशिश अब भी है बाक़ी
फलक को ज़मी से मिलाओ फिर से..

इक सौगात जो दी थी कभी लबो ने तेरे
वही ग़ज़ल एक बार गुनगुनाओ फिर से..

है आया आज फिर कुश महफ़िल में
शमा को एक बार जलाओ फिर से...

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Tuesday, July 31, 2007

"कुछ दिल से लिखी क्षनिकाए.."

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पाँच साल
नही टी-क-ती सरकार
तुम कैसे टिक गये
ज़िंदगी में मेरी,
उसने कहा इस बार
फ़रवरी में दिन
28 थे....

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एक ग़ज़ल आकर
गिरती है आँगन पर,
कुछ शेर ज़मी
पर छोड़ जाती है
मैं अटका रहता हू
कुछ मिश्रो में
तेरे क़दमो के निशान
उसी ज़मी पर पाता हू..

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-कुश

Wednesday, July 18, 2007

तुम्हारी हो जाना चाहती हू....

तेरे होंठो की महक लेकर
हवा का इक झोंका मेरी और आया
छु गया मेरी आँखो को और
कुछ हसीं ख्वाब गिर गये

मैने बाँधकर ख्वाबो को
रख दिए सिरहाने...
अब बस तुम्हे सौप कर इन्हे
चैन से सो जाना चाहती हू

तुम एक बार जो हा केह्दो
मैं ज़िंदगी भर के लिए..
तुम्हारी हो जाना चाहती हू

मोहब्बत का इक बिस्तर हो
जिसपे चाँद का तकिया हो लगा
रात की गुज़ारिश, ना सोने के
बहाने, बिन बादल की बारिश

ज़िद भी हमारी सोकर रहेंगे
इक दूजे की पनाहो में खोकर रहेंगे
अब की बार तेरी ज़ुल्फ़ो की राहो में
इक अजनबी सी खो जाना चाहती हू

हा बस इक बार तुम्हारी
हो जाना चाहती हू

कब से पलकों के दोनो सिरो को
बाँधकर रखा है.. शर्म के धागो से
अब जो आए हो तुम, कंधे पे रख
के सर रो जाना चाहती हू..

हा बस एक बार मैं तुम्हारी
हो जाना चाहती हू....

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Friday, July 13, 2007

"मा की लोरी..."

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आसमा की चादर पे मुन्ना राजा लेटेगा
रात भर chakri में चंदा मामा बैठेगा
तारो ने भी कैसी टोली है जमाई रे
मुन्ने राजा को लेने डोली भिज़वाई रे..

आई रे..
नीनू आई रे...

परियो वाले देश में
राजा वाले भेष में
मुन्ने को मिलेगी परी
फूल डाले केश में

मुन्ने को देख कर
परी भी शरमाई रे...


आई रे..
नीनू आई रे...

ऊँचे ऊँचे महल होंगे
खीर पुड़ी बर्फ़ी
मुन्ना राजा बटोर लेगा
सोने की अशर्फ़ी

देखो देखो एक दो
मुट्ठी से गिराई रे


आई रे..
नीनू आई रे...

बड़े बड़े जामुन
और गोल गोल जलेबिया
मुन्ने की हो जाएँगी
सभी फिर सहेलिया

मुन्ने को जलेबी देख
भूख लग आई रे..


आई रे..
नीनू आई रे...

रात भर डोलेगा
सुबह आँख खोलेगा
मुन्ना राजा जेब को
दो दो बार टटोलेगा

नया दिन उगा है
रात पीछे छूट आई रे..

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ek situation vishesh pe likhi gayi poem

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अरे भई सोहन!!
हा कुछ हिया ई पुकारत है
हमार भाई साब !!
अब का करे हम ऊका
ऊ है ही बड़े मज़ाकी

सीढ़ी उतरते उतरते बोले
ये अपना मुकुंद कुमार कहा है
हमार खोपड़ी चकराई
ई ससुरा मुकुंद कुमार कौन?
तो हम बोले की बावले
मुकुंद कुमार अपना डिराइवर

हम मुस्कुराई के अपना सर
खुजाते रह गये ...
अब का करे हम ऊका
ऊ है ही बड़े मज़ाकी

इसपेसल थाली मंगाकर
बट्टर नान निकाल दी
चपति खाने लगे..
मेनू में पढ़ा था
स्वीट भी साथ है

जो वेटर ने आकर
थाली उठाने की कोसिस की
तो मिठाई के बारे मैं पूछे
बड़ा लंबा सा खींच कर बोले 'इसमे...'

हँसी के मारे ऊके
पेट में दर्द का उफान हुई गवा
वेटर मारे डर के जो अ-इसन भागा
की लौट के ही ना आया..

अब का करे हम ऊका
ऊ है ही बड़े मज़ाकी

दुइ मिनट सुस्वाने गये
लौट आए तो मैडम कोई
उनकी सीट पर बैठ गयी
हमने तानिक कहा भैया से
की भैया आपकी सीट पे कोई और है

बड़ी ईनिस्टाईल से कहते है
अब लड़ीज़ बैठ गयी है
तो बैठे रहने दो..
काहे डीस्टरब़ करते हो..

अब का करे हम ऊका
ऊ है ही बड़े मज़ाकी

रात रेडिओ में फ़ोन मिलाई के
नाम बताए अपना
केवट राम बिस्कर्मा.. गाव जोनपुर
ज़िला पटना.. ऊकी पत्नी का नाम
गीता बाई और टोपी गोपी और चुननु
की फ़ार्माइस वाला सॉन्ग सुनने को बोले

s d भैया का गाना और बोले
रफ़ी साह्ब ने गाया है ....
रेडिओ के ज़ाकी का भी बुरा
हाल किए दिए

अब का करे हम ऊका
ऊ है ही बड़े मज़ाकी

आप कही देख ले उनको
तो बच के रहिएगा हा..
बताई देते है
का पता ऊ निसांची का
अगला निसाना आप ही बने

अब का करे हम ऊका
ऊ है ही बड़े मज़ाकी

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Friday, June 22, 2007

"सोचता हू तुझे इक नाम क हू"

क्या लिखू तेरे लिए

हर शब्द तड़पता है
तेरी तारीफ़ में समानेके लिए

तुझे ज़िंदगी कह दु तो चलेगा
या फिर दूसरा कोई नाम हू..

सुबह की लालीमा कह दु या फिर
ख़ुशनुमा कोई शाम हू..

तुझे दरिया का पानी कह दु..
दादी की कहानी कह दु...

कह दु तुझे खिलता फूल कोई
या फिर इश्क़ की निशानी कह दु,

एक कशमकश में फंस चुका हू..
तुझे पल भर का आराम हू,

चाँद की चाँदनी कह के देख लेता हू..
या फिर छलकता जाम हू..

निगाओ की महकशी कह देता हू तुझे..
या फिर मुहब्बत का पैगाम हू..

तुझे कह दु मुस्कुराहट बचपन की..
या ..किसी नमाज़ी का ईमान हू..

कह देता हू तुझे मंगला आरती
या फिर सुबह की अज़ान हू

देखती है दो निगाए तुझे प्यार से..
उन निगाओ की तुझे जान हू..

लब शर्म से रुक जाते है जब
सोचता हू तुझे एक नाम हू

Saturday, June 9, 2007

"झील के किनारे.."

झील के किनारे
तन्हा बैठे हुए

यादो में किसी की
खोया हुआ था..
की अचानक एक गुलाब
गिरा पानी पर

कुछ तरंगे बन गयी
हिलते हुए पानी में..
एक तस्वीर नज़र आई थी
सुर्ख़ गुलाबी तेरी ही थी..

अबकी बार कुर्ता गुलाबी था
बिल्कुल तेरे होटो की तरह..
जिन्हे छूने को
मेरे लब बेकरार रहते थे..

उंगलिया मचलने लगी
पानी में उतरने को..
सोचा एक बार तेरे
गालो को छ्हू लिया जाए..

लेकिन इतनी मासूम सी
तुम लगी थी पानी में...
की आँखो ने कसम देकर
रोक लिया मुझे..

धड़कनो ने दी आवाज़
वो मचलने लगी थी..
इतनी सुंदर कैसे हो तुम
तितलिया भी तुमसे जलने लगी थी

शाम हो चली थी
मगर दीवाना सूरज..
पहाड़ी के पीछे से
अब भी झाँक रहा था..

अंगूर की बेल,
किनारे पर थी.
कैसे लटक कर
पानी पर आ गयी थी..

तुम कितनी ख़ूबसूरत हो
मुझे ये एहसास हुआ था..
अचानक किसी के आने का
आभास हुआ था..

रात बेदर्दी जलने लगी
अंधेरे में तुम नज़र ना आई
जुगनुओ ने मगर
मेरा साथ निभाया था..

सुबह हो चुकी है
पंछी चहकने लगे...
डाली पर फिर एक
गुलाब खिल आया है

हवाओ का मन किया है
तुझे देखने को..
फिर से पानी में एक
गुलाब गिराया है

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"उफ़!! ये पति देव मेरे.."

उफ़!! ये पति देव मेरे

सोते देर से है
और उठ ते भी देर से..
चिल्ला चिल्ला के थक जाए
चाहे क्ववा भी मुंडेर से...

bed टी चाहिए, साथ
में सुबह का अख़बार
थोड़ी सी भी ठंडी हो चाय
तो परा सातवे आसमा पार

सुबह सुबह होता है ये हाल...
उफ़!! ये पति देव मेरे

पानी गरम कर दिया क्या
नाश्ते में क्या बनाया है
मुझे लेट हो रहा है
मेरे shocks नही मिल रहे..

जाने कैसे कैसे पूछते है सवाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

घड़ी नही मिल रही
purse कहा रख दिया
सुनती हो जल्दी tiffin लाओ
आज फिर boss डाटे-गा

देखा कैसे मचाते है बवाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

एक जुराब सफ़ेद है
तो दूसरी काली पहनी
जल्दी बाज़ी में देखो
ब्नियान भी उलटी पहनी..

अब मारे शर्म के चेहरा है लाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

टाई बाँधनी आती है मगर
बंधवाएँगे मुझसे
अरे कहा हो जल्दी आओ ना
टाई कौन बांधेगा..

ना आओ तो आता है भूचाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

शाम को dinner का वादा
और लाल बनारसी साड़ी...
क़ब्से सुनती आ रही हू
कुछ भी नही मिलता है

दिल से अमीर पर जेब से कंगाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

भागते हुए जाते है office
पहुचते ही फ़ोन करते है
थोड़ी देर पहले तो गये थे
अब पूछते है कैसी हो....

रखते है कितना मेरा ख़्याल
उफ़!! ये पति देव मेरे

पाँच बजते ही ख़ुश हो जाती हू
उनके आने का time हो गया..
टाई की नोट खुली हुई
shirt आधी बाहर है

लगते है hritik चाहे हो फटे हाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

थके हुए से आते है
कितना काम करते होंगे...
फिर boss ने डाटा होगा
सब कुछ सह जाते है

अल्लाह की गाय है पहने शेर की खाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

चौपाटी पर ले जाते है
dinner तो नही पर चाट खि लाते है
जानते है मुझे फूल पसंद है
और वो भी ले आते है

कहते है तुमसे जीवन मेरा ख़ुशहाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

सपनो वाली बातें करते है
पूरा करके दिखाएँगे
इनकी बाहो मैं सोती हू
सारे दर्द भूल जाती हू...

पाकर के इनको हो गयी मैं निहाल
उफ़!! ये पति देव मेरे

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Thursday, June 7, 2007

"कोशिश........."

कोशिश करता हू
गिर जाता हू..
फिर करता हू
फिर गिरता हू..
रुकता नही हू
गिरता हू
संभलता हू
ग़ुस्से से थोड़ा
मचलता हू
फिर सोचता हू
कुछ पाना है मुझको
लंबी साँस भरता हू
फिर कोशिश करता हू
गिर जाता हू
फिर करता हू
फिर गिरता हू.....

"सपने........."

नींद के गर्भ में
लात मारते कुछ सपने
इनका सीमंतन..
चल रहा है .....
ये संस्कार इन सपनो को
नयी दीशाए देंगे..
तब भी जब रूठ जाएगी आँखे
ख़ुशियो का संसार देंगे.
सपनो का गर्भ में प्लना
कितना ख़ूबसूरत होता है ..
मगर जब आती है बारी
इनकी गर्भ से निकलने की
तभी कुछ हो जाता है ....
फिर अब की बार केस
कॉम्प्लेक्स हो गया है
एक सपना जीना चाहता है
बाहर आना चाहता है
नींद की गर्भ से
पर एक दाव अभी लग गया है
क़िस्मत सपने की
लिखी गयी है कुछ इस तरह
की आज फिर से सपनो वाला
गर्भ ठहर गया है ....

"राहें..."

तेरी ओर आने वाले रास्ते
जानता मैं नही..
फिर भी पाना है तुझको
जैसे बहता हुआ दरिया
मिल जाता है समंदर में
क्ंटको के रास्तो से..
फिर पा जाता है मंज़िल अपनी
शायद ये लहरे बहाओ से नही
हॉंसलो से बहती है ....
निरंतर.. अकारण उन्माद में...
इनके पास वजह लगती है
प्रफुललित होने की..
एक मैं हू जिसे रास्ते की तलाश है
भीड़ भरी दुनिया में
अकेला खड़ा हू...
वक़्त के साथ बाज़ी खेली है
जाने कौन सा लम्हा मात दे दे..
यही सोच कर क़दम बढ़ाए..
तुझको पाने को..
थोड़ी सी हिम्मत बस..
क्या पता शायद
राहें भी संग मेरे तुझसे
मिलने चली आए...

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Friday, May 25, 2007

"पहली सुबह..."

लिखी थी कुछ बातें
रात को तुमने और मैने ....

उजाले ने खोल दी मुट्ठी
और रात उड़ गयी ..
रोशनी चुपके से
कमरे में उतर आई...

उनंदी निगाओ से
तुमको देखा, आज पहली सुबह है
अपने सीने से तुम्हारा
हाथ हटाया, कितनी मासूम सी सोई थी..

माथे पर तुम्हारे
फैला हुआ सिंदूर
किसी साँझ की
लाली का एहसास कराता है..

खिड़की से देखती बेल
ने शायद तुमको छुआ होगा
कितनी सुंदर तुम्हारी
पहली अंगड़ाई है ...

धीरे धीरे
खुलती तुम्हारी आँखें..
कुछ ख्वाब अभी तक
है बाक़ी..

खोल कर आँखें
तुम होले से मुस्काई..
और फैला दी बाहें
तुम्हारा दिल भी ना, भरा नही..

रुके क़दमो से..
जा पहुँचा...
तुम्हारी गोद में
सर अपना छुपाया था..

चददर की सलवटे
रात की कहानी सुना रही है
हया से चेहरा हमारा
लाल होने लगा है ...

खुले बालो मैं तुम्हारे
ऐसे खो गया हू
जैसे बच्चा कोई भ्रे बाज़ार में
खो गया है

तुम्हारी मुस्कुराहट
गुलाब की पंखुड़ी...
महकती है और
महकाती भी..

आज जो ये sparsh
है तुम्हारा...
पहली बार मा की गोद
में इसे पाया था...

ऐसा ही प्यार मेरी
ज़िंदगी मैं भरना
तुम्हारी रात वाली बात
मुझे हमेशा याद रहेगी..

दिल तो किया था
थोड़ी और बढ़ा लेते
पर बुलबुले सी रात
ख़त्म हो चुकी थी..

कुछ बूँदे फिर भी
जो गिरी थी कल रात
अपने गीले निशान
कमरे में छोड़ गयी थी...

लेकर इक दूजे का हाथ
अपने हाथो में..
एक कसम दोनो की ज़ुबान
पर थी..

लिखी थी जो बातें
रात को तुमने और मैने
वो बातें अब भी
आसमान पर थी....

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"एक और ख़्याल...."

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इक रोज़ किसी ने
दरवाज़ा खटखटाया था

देखा जो झाँक कर एक लिफाफ़ा मिला
खोला तो इक रात पड़ी थी
काग़ज़ में लिपटे हुए
मैने उठाकर सेंकली, जलती
हुई लकड़ियो पर
पहले से और काली,
वो रात हो गयी थी ....
उस रात जब संग मेरे
तुम चले थे पल दो पल
वो राहें आकर के मेरे
पैरो से लिपट गयी
पूछने लगी तुम्हारे साथ
वाले क़दमो के निशान कहा है
मैं क्या जवाब दु
कहा से लाऊ वो निशान
जिसके रंग धूसर हो चले
अब मैं अकेला
मुडके देखता हू
सब कुछ ढुंधला
आँखें भीग आई
आँसू गिरने लगे..
मेरे हाथो में पड़ी
रात पर ..
धीरे धीरे रात की
सारी परते खुलती रही
आँसुओ से मेरे, काग़ज़
पर पड़ी रात धुलती रही..
एक सफ़र का अंत था या नयी
शुरुआत कोई..

या फिर जलने को आतुर
फिर से अबकी रात कोई
मैं अब भी तन्हा हू,
कुछ सूझता नही,
सूखी लकड़िया कहा से लाऊ
मन में डर सा लग रहा है

कल शाम फिर किसी ने
दरवाज़ा खटखटाया था...

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"सिर्फ़ एक ख़्याल......."

May 24(1 day ago)

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मैने लिख दिया था
नाम तेरा और मेरा...

मगर किसी को
ये नागवार गुज़रा
उसने मिटाई हस्ती
दरखतो से
कुछ इस तरह...
की रेत से भ्री मुट्ठी
ख़ाली हो चुकी थी
तू रख लेती मुझे,
पायल बनाकर तो
तेरे क़दमो में रह लेता
किसी तरह
मगर तूने बनाकर आँसू
मुझे..
अपनी निगाओ से गिरा दिया,,

मैने लिख दिया था
नाम तेरा और मेरा रेत पर
समंदर का सहारा लेकर
तूने उसपे पानी फिरा दिया...

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Wednesday, May 23, 2007

"कल शाम बर्फ़ गिरी थी, वादियो में "

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कल शाम बर्फ़ गिरी थी
वादियो में कही..
और ठंड फैल गयी
उजाले की तरह..

मैने तुम्हारी
गोद को लिहाफ़ बनाया था..

फिर आँखें बंद हुई
मैं कही खो गया..
तू थपथपाती रही
कांधे को मेरे..

मुझे फिर से..
तेरा ख्वाब आया था..

खुली जो आँखें
थमी सांसो से, कुछ पूछा
तुम कुछ नही बोली
वैसे ही रही..

पर आँखो से
तुम्हारी, इक जवाब आया था...

बड़ी अजीब बात है
कैसे करू यक़ीन...
वो प्यार ही था
जिसने प्यास लगाई थी..

और वो भी प्यार था
जिसने उस प्यास को बुझाया था...

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"कल शाम उपर वाले कमरे में"

कल शाम उपर वाले कमरे में
जहा से डाल सटी है गुल्मोहर की...

मैं बैठा वही अपनी डायरी में
कुछ लिख रहा था..
सूरज दूर तो था लेकिन अस्त होता
मुझे क़रीब सा दिख रहा था..

मैने सोचा कुछ लिखू आज
तुम्हारे लिए
इतने में ... सब कहने लगे
आख़िर ये सब लिखते हो किसके लिए

जिसका नाम भी हमे पता नही
काम से काम इतना तो बता दो...
की इतना सुंदर, इतना प्यारा
किसके लिए लिखते हो...

कभी कहा फ़ूलो से दोस्ती
कभी तितलियो का नाम लिया
कभी कह दिया सुबह की नादानी है
कभी मस्ती भरी शाम कह दिया...

मेरी कलम नाराज़ हो गयी
द्वात ने भी ना मानी
उड़ते कग़ज़ॉ को कैसे संभाला
रूठ गयी मेरी चश्मेदानी...

आज रूठ गये थे सब, मान ने को
भी ना थे तैयार, इतना ही नही
आराम कुर्सी के साथ कोने में
जा बैठा मेरा गीटार...

सब के सब ज़िद पर अड़ गये थे
नाम बताओ वो कौन है
ऐसा क्या है नाम में उसके
जो आप हम सबसे भी मौन है

इतने में खिड़की ने दी ज़ोर से आवाज़
बड़े ज़ोर से हवा का झोंका आया था..
पलट दिए डायरी के पन्ने सारे
होकर के मुझसे नाराज़..

अब तो डायरी के पन्नो से गज़ल, नज़्म
सब बाहर आने लगी ......
कौन है वो, कौन है वो
पूछ पूछ कर मुझे सताने लगी

दरवाज़े, रोशन दान
और अलमारियो की दराज़...
सब की सब हो चली
थी मुझसे नाराज़...

सब चिल्लाए थे मुझ पर
फिर भी रखा लबो को थाम
कभी कुछ कहा कभी कुछ कहा
पर लिया नही तेरा नाम...

पर कितना भी कह लू इनसे
ये सब समझते है ...

कल शाम उपर वाले कमरे में
जहा से डाल सटी है गुल्मोहर की
तुमको चुपके से....
आते हुए इन सबने देखा था...

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Monday, May 21, 2007

"तस्वीर तेरी....हरे कुर्ते वाली.. "

देख कर तस्वीर तेरी
हरे कुर्ते वाली..

उसी गार्डन में..
कल शाम तुमसे मुलाक़ात हुई थी
पेड़ से सटे बंद आँखो मैं
तुमसे फिर कोई बात हुई थी...

अचानक एक बूँद आकर
गिरी मेरी पल्को पर .....

अधखूली आँखो से जो देखा
तो तुम बाहर थी..
भागती हुई तितलियो को पकड़ती
ना हाथ लगी तो कैसा चेहरा बनाया था...

आधी आधी धूप और
आधी आधी छ्ाव में..
बच्चो के साथ खेलती
एक पाव से..

अपनी चुनरी दोनो हाथो मैं लिए
मंद हवा सी उड़ रही थी...
जहा जहा भी जाती तुम
हवा भी उस तरफ़ मूड रही थी....

जा पहुँची तुम गुल्मोहर के पेड़ के पास
और कैसे उसे हिलाया था..
कई सारे फूल और पत्तो को
अपने उपर गिराया था..

फिर दोनो हाथो में ले आई फूल
और एक फूँक से मुझ पर उड़ाए थे...

कैसे पकड़ कर ले गयी मुझे
पानी पीना भी तुमको ना आया था
नल के पास मेरे हाथो से
तुमको पानी मैने पिलाया था...

सुर्ख़ गुलाबी होंठ तुम्हारे
जब पानी की बूँदे थी उन पर
किसी गुलाब पर सुबह की औस
का नशा छ्हाया था...

अपनी कोहनी से पोंछ दिया मुह
मेरा रुमाल ले लेती ...पागल

फिर हाथ थाम कर चले थे हम घास पर
कंधे से कंधा टकराया था..
तुमको तो पता भी ना चला होगा
पर मैं थोड़ा शरमाया था...

बूँदे कुछ और गिरने लगी
मैं फिर से जा पहुँचा पेड़ के नीचे..
तुम भीगने लगी बारिश में
अपनी जुड़वा आँखियो को मीचे...

हल्की धूप जो फिर आई
थोड़ी सी बरसात के बाद..
इंद्रधनुष को देख कर
तुम कितना मुस्काई थी...

इंद्रधनुष के रंग भी
गिरने लगे ज़मीन पर ..
कुछ हाथो में लेकर मैने
तस्वीर तुम्हारी बनाई थी..

रंगोली सी तुम
मुझे बड़ी प्यारी लगी .....

अचानक जगाया किसी ने मुझको
मैं ख़ुद पर हँस के चल पड़ा
कितना पागल हू..
अक्सर ऐसा ही करता हू..

देख कर तस्वीर तेरी
हरे कुर्ते वाली..
रात भर उस से बातें करता हू...

Friday, May 18, 2007

"आज थाम लो हाथ ज़रा..."

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आज थाम लो हाथ ज़रा...
ठोकर ज़माने की लगी है...

आज थाम लो हाथ ज़रा...
फिर की किसी ने दिल्लगी है...

बहुत देर से तन्हा रहते रहते..
ना जाने कहा खो गयी थी..

आज थाम लो हाथ ज़रा..
ढ़ूँढनी मुझको ज़िंदगी है..

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Thursday, May 17, 2007

laut ke aaya vaha

tere sang jo har lamha maine jiya tha
apni khushiyo ko bhi maine tujhko diya tha
na chahte the koi bhi sath tera mujhe mile
lekin bharosa maine tujhpar hi kiya tha,
tumne na mani baat mujhko samjha diya,
phir bhi raah dekhta mera jalta diya tha
tum to na lauti zindagi main meri magar,main
laut ke aaya vaha; jahase shuru kiya tha.

Friday, February 9, 2007

Do not stand at my grave.........

Do not stand at my grave and weep:


I am not there. I do not sleep.

I am a thousand winds that blow.
I am the softly falling snow,
I am the gentle showers of rain,
I am the field of ripening grain.

I am in the morning hush,
I am in the grateful rush
Of beautiful birds in circling flight.
I am the starshine of the night.

I am in the flowers that bloom.
I am in a quiet room.
I am in the birds that sing.
I am in each lovely thing.

So do not stand by my grave and cry.
I am not there.
I did not die.


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Saturday, February 3, 2007

"Adhura Prem Patra"


priye,

dil ki dhadkano ko hatho main tham kar kalam uthane ki jehmat ki hai, naam tumhara hi likhegi, kalam bhi zid par ad aayi hai, kaise samjhau bawari kalam ko, sawan abhi aaya nahi hai, janti hu lekin ye kalam bhi tumhari hi di hui hai, manegi thode hi, ab kehti hai ki pucho mere sarkar se kaise hai woh, kya yaad unhe bhi hamari aati hai jab dekhte hai raat main chamakte chand ko, kya woh bhi dekh kar khud ko aaine main baate karte hai, kya unka bhi man karta hai par laga ke ud jaye mast gagan main, kya khilte hue phoolo ki khushbhu unhe bhi mehkati hogi, kya akele main unhe bhi meri yaad aati hogi, nahi pata ye sab is kalmuhi kalam ko sab janna hai ise aaj hi, sab ye janegi, bina likhe khat sajan ko ab ye nahi manegi,
raat ko kal aaundhe muh bister par lete hue achanak se unka khyaal aa gaya, kya woh bhi sochte honge abhi mere bare main, ekdum se man main sawal aa gaya, kya kahungi, kaise kahungi jab pehli baar milungi unse, gar mud gaye andekha karke to kaise unhe pukarungi, lipat jaungi unse aur puchungi main, ki kyo itna mujhko tadpaya, kya ik pal na aayi yaad tumhe, kya ikpal bhi mera khyaal na aaya, bol ke aisa unse jhhot-mooth main rooth jaungi, kan pakadke manayenge to phir jaldi se man jaungi, aankho main aansu honge lekin honge khushi ke, gam ke aansuo ko wahi par dafna dungi, aur kahungi unse mujhko kas ke gale lagalo ab mujhko kahi nahi jana hai, tum apne hi sath le chalo ye ghar nahi suhana hai, yaha par kai bister pade hai,jane kaise kaise log khade hai, roz mujhe sui chubhate hai, shakkar ki bottle chadate hai, mujhe yaha nahi ab rehna mujhko aakar le jao na, kyu itna bulane par bhi tum lene nahi aate ho, sab kehte hai main mar jaungi, sirf do din bache hai us main hi sab karna hoga, maut aa jaye mujhe lene us se pehle tum aajao, gaud main maru main sirf tumhari bas itna sa tum kar jao, janti to hu ke tumhe ye khat milega nahi par phir bhi likhti jaungi,rakh kar khat ko sirhaane apne main bhi wahi so jaungi...........................
tumhari