Monday, May 21, 2007

"तस्वीर तेरी....हरे कुर्ते वाली.. "

देख कर तस्वीर तेरी
हरे कुर्ते वाली..

उसी गार्डन में..
कल शाम तुमसे मुलाक़ात हुई थी
पेड़ से सटे बंद आँखो मैं
तुमसे फिर कोई बात हुई थी...

अचानक एक बूँद आकर
गिरी मेरी पल्को पर .....

अधखूली आँखो से जो देखा
तो तुम बाहर थी..
भागती हुई तितलियो को पकड़ती
ना हाथ लगी तो कैसा चेहरा बनाया था...

आधी आधी धूप और
आधी आधी छ्ाव में..
बच्चो के साथ खेलती
एक पाव से..

अपनी चुनरी दोनो हाथो मैं लिए
मंद हवा सी उड़ रही थी...
जहा जहा भी जाती तुम
हवा भी उस तरफ़ मूड रही थी....

जा पहुँची तुम गुल्मोहर के पेड़ के पास
और कैसे उसे हिलाया था..
कई सारे फूल और पत्तो को
अपने उपर गिराया था..

फिर दोनो हाथो में ले आई फूल
और एक फूँक से मुझ पर उड़ाए थे...

कैसे पकड़ कर ले गयी मुझे
पानी पीना भी तुमको ना आया था
नल के पास मेरे हाथो से
तुमको पानी मैने पिलाया था...

सुर्ख़ गुलाबी होंठ तुम्हारे
जब पानी की बूँदे थी उन पर
किसी गुलाब पर सुबह की औस
का नशा छ्हाया था...

अपनी कोहनी से पोंछ दिया मुह
मेरा रुमाल ले लेती ...पागल

फिर हाथ थाम कर चले थे हम घास पर
कंधे से कंधा टकराया था..
तुमको तो पता भी ना चला होगा
पर मैं थोड़ा शरमाया था...

बूँदे कुछ और गिरने लगी
मैं फिर से जा पहुँचा पेड़ के नीचे..
तुम भीगने लगी बारिश में
अपनी जुड़वा आँखियो को मीचे...

हल्की धूप जो फिर आई
थोड़ी सी बरसात के बाद..
इंद्रधनुष को देख कर
तुम कितना मुस्काई थी...

इंद्रधनुष के रंग भी
गिरने लगे ज़मीन पर ..
कुछ हाथो में लेकर मैने
तस्वीर तुम्हारी बनाई थी..

रंगोली सी तुम
मुझे बड़ी प्यारी लगी .....

अचानक जगाया किसी ने मुझको
मैं ख़ुद पर हँस के चल पड़ा
कितना पागल हू..
अक्सर ऐसा ही करता हू..

देख कर तस्वीर तेरी
हरे कुर्ते वाली..
रात भर उस से बातें करता हू...

No comments:

Post a Comment

वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..