Saturday, August 18, 2007

है आया आज फिर कुश महफ़िल में...

उदास रात है आज, आ जाओ फिर से
ज़मी पे नूर की चादर बिछओ फिर से..

बड़े दीनो से सोया नही है इक पल
की अपनी पॅल्को में दिल को सुलाओ फिर से..

मेरे अर्मा बीयाबानो मैं है फँसे हुए
की अपनी हँसी से हँसी तर बनाओ फिर से..

कब से सूख कर ज़र्रा हो गये लब इस कदर
अपनी गीली ज़ुल्फ़ को लहराओ फिर से..

है चाँद को गुमा ख़ूबसूरती पे अपनी
ज़रा चेहरे से पर्दा हटाओ फिर से..

एक सिर्हन भूल चुकी है साँसे मेरी
सीने पे उंगलियाँ मेरे चलाओ फिर से..

तुम्हारी अदा में वो कशिश अब भी है बाक़ी
फलक को ज़मी से मिलाओ फिर से..

इक सौगात जो दी थी कभी लबो ने तेरे
वही ग़ज़ल एक बार गुनगुनाओ फिर से..

है आया आज फिर कुश महफ़िल में
शमा को एक बार जलाओ फिर से...

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