Monday, October 31, 2011

कहानी के इस भाग के प्रायोजक कौन है ?

मैं कहानी में पूरी तरह से डूबा हुआ था.. या यू कह लीजिये कि मुझे तैरना आता ही नहीं था.. एक छोटे से लकड़ी के तख्ते से लटका हुआ मैं आधा डूबा और आधा बचा हुआ सा लग रहा था.. लग क्या रहा था मैं बचा हुआ ही था.. कहानी में एक किरदार था जो मुझे भड़के हुए सांड सा लगा. ऐसा लगा जैसे अभी नाक से थू थू करता आएगा और अपने सींग मेरे पेट में घुसा देगा.. पर फिर मुझे गब्बर सिंह का वो वाला डायलोग याद आया जो अक्सर ऐसी सिचुएशन में याद आ ही जाता है कि जो डर गया समझो मर गया.. तो बस तभी गब्बर की एडवाईस फोलो करते हुए मैंने रिमोट को ठीक वैसे ही अनदेखा कर दिया जैसे कि प्रगति ने इस देश को.. 


फिर सांड जैसे कैरेक्टर ने कोई डायलोग मारा.. और कहानी की नायिका कान पे हाथ रख के चीख पड़ी.. वो रो तो रही थी पर उसके आंसु नहीं निकल रहे थे.. मुझे याद आया कि देश की विकास दर भी होती तो है मगर दिखती नहीं.. दिमाग माना नहीं पर दिल ने कहा जाने दो.. तो मैंने भी जाने दिया.. अगले सीन में बैकग्राउंड म्यूजिक टॉप पे था.. ये वाला म्यूजिक हर बार ऐसे सीन में आ ही जाता था.. पता नहीं कौन पीछे बैठा बैठा बजाता था..

सीन चेंज 
क्योंकि परिवर्तन इस द ब्लडी रुल ऑफ़ दिस संसार तो सीन भी चेंज हो जाता है.. इस सीन में ढाई सौ किलो की ज्वेलरी पहनी आंटी मत कहो ना टाईप आंटी की एंट्री होती है.. कैमरा चार बार बिना मकसद देश के युवाओ की तरह इधर उधर होता है.. आंटी डायलोग मारती है "अब देखती हु इस घर में किस की चलती है ?" ये बोलके वो चश्मा पहनती है.. मुझे लगा नज़र का होगा पर वो कोई रे बैन वे बैन टाईप का होता है.. चश्मा पहनते ही उसको सामने नज़र आता है बजाज.. अरे नहीं नहीं स्कूटर नहीं..... कैरक्टर, वैसे दोनों के एंड में टर देखकर मैं भी आप ही की तरह कन्फ्यूज हो गया था पर आपकी तरह मैं दुसरो के भरोसे नहीं रहा.. मैंने खुद ने आईडिया लगा लिया कि ये कैरेक्टर है..   वैसे भी फिल्मो और सीरियल्स में ये ही लोग भरे पड़े है.. बजाज, सिंघानिया, कपूर...... पता नहीं कौनसे कोटे के अंडर में घुसे हुए है... 

एनी वे 
बजाज की प्लास्टिक सर्जरी हो चुकी थी चेहरा बदल चुका था फिर भी सबने पहचान लिया... ये चौथा बजाज था जो हर बार अपने चौथे पे प्लास्टिक सर्जरी करवा के वापस आ जाता.. इसकी बीवी ने इस चक्कर में कई चूडिया भी फ़ोकट में तोड़ डाली... इधर वो चूड़िया तोडती की उधर वो वापस आ जाता.. अब तो मेरे भी ये समझ आने लग गया था कि रद्दी वाला अखबार तौलते तौलते क्यों पूछता रहता है कि भाईसाहब प्लास्टिक व्लास्टिक भी हो तो दे दो.. खैर बजाज आ तो गया था पर उसके आते ही एपिसोड ख़त्म हो गया.. नेक्स्ट एपिसोड में क्या दिखाया जाएगा वो बताया जा रहा था..ना चाहते हुए भी मैंने देखा कि अगले एपिसोड में क्या होगा.. पर जो दिखाया उन्होंने वो ना दिखाने के बराबर ही था.. 

फायनली 
रिमोट को पिस्तौल की तरह पकड़कर में टी वी के सामने तान चुका था.. अगर इसमें गोली होती तो मैं चला ही देता.. पर अच्छा हुआ कि गोली नहीं थी... क्योंकि टी वी की किश्ते भी अभी पूरी नहीं हुई है.. ऐसे में जज्बाती होना ठीक नहीं.. बस यही सोच के मैंने चैनल बदल दिया.. अब यहाँ एक सज्जन है जो बुरी नज़र से बचाने का तावीज़ बेच रहे है.. अगले चैनल पे सर पे बाल उगाने का तेल बेचा जा रहा है.. उस से अगले पे कोई श्री यंत्र है.. उस से अगले पे लोकेट.. ये क्या हो रहा है.. ये लोग थोडी देर पहले सीरियल्स दिखा रहे थे अचानक फूटपाथ पे सामान बेचने वालो जैसे लगने लगे है.. इनका कोई इमान धरम है या नहीं..

मुझे तो डाऊट हो रहा है कि मेरे ऑफिस के रास्ते में हिमालय की जड़ी बूटिया बेचने वाला भी किसी बड़ी कंपनी का डायरेक्टर होगा.. ऑफिस में ज़रूरी काम का बहाना मारके ज़रूर तिब्बती मार्केट में स्वेटर या शॉल बेचता होगा.. टी वी चैनल वाले पता नहीं क्या चाहते है.. जब मैं छोटा था तो टी वी ठीक करने के लिए छत पे चढके एंटीना हिलाता था.. मुझे नहीं पता था बाद में ये टी वी मेरी छाती पे चढ़के मेरे दिमाग का एंटीना हिलाएगा..... अब आप भी निकल लीजिये फटाफट..., पोस्ट ख़त्म हो चुकी है और मैं जा रहा हूँ टी वी ऑन करने वो क्या है ना कि बालिका वधु का रिपीट टेलीकास्ट शुरू होने वाला है.. कल रात देख नहीं पाया था.. लीजिये शुरू हो गया.. बता रहे है कि कहानी के इस भाग के प्रायोजक है...........

अब जाइये भी.. देखने भी ना दीजियेगा? 


Wednesday, June 29, 2011

कहानी शीला, मुन्नी, रज़िया और शालू की


बात ये है बॉस कि लेखक से किसी ने कहा कि आमिर खान इतने ईमानदार है कि अपनी फिल्म 'देहली बेली' को खुद ही 'ए' सर्टिफिकेट दिलवाने की सिफारिश किये रहे,  लेकिन लेकिन लेकिन.. हम आपको ये भी बता दे कि लेखक ने भी अपनी इस पोस्ट को सेंसर बोर्ड के पास ए सर्टिफिकेट लेने के लिए भेजा था पर सेंसर वालो ने ये बोल के लेखक को भगा दिया कि हम तुम्हारी दो दो टके की ब्लॉग पोस्टो को सर्टिफिकेट देने के लिए नहीं बैठे है कोई फिल्म विल्म हो तो लाओ.. तो अब चूँकि ब्लोगिंग का कोई सेंसर बोर्ड तो है नहीं.. इसलिए इस पोस्ट को बच्चा पढ़े या बडा या फिर बूढा पढ़ ले.. उसकी जिम्मेदारी लेखक की नहीं.. 
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डिस्क्लेमर - इस कहानी के पात्रो का किसी भी टी वी पे दिखाए जाने वाले गानों के नामो से कोई सम्बन्ध नहीं है और यदि है तो वो नाजायज़ सम्बन्ध है

चेतावनी - " कृपया पढ़ते वक़्त अपनी किडनी फ्रीज़र में रखकर पढ़े अन्यथा उसके जाम हो जाने का खतरा है "


तो क्या शीला जवान होने वाली थी?
नहीं ऐसा कुछ था तो नहीं.. यूँ उम्र उसकी जवानी की दहलीज़ तक पहुची नहीं थी.. पर कुछ मोहल्ले वालो ने... कुछ कोंलेज के लडको ने..., अपनी अपनी नजरो से उसे जवानी की दहलीज़ तक पंहुचा ही दिया था.. शीला समझ चुकी थी कि उसकी जवानी आने में अब टेम नहीं है.. सो टेम खोटी नहीं करना चाहिए..

इधर रजिया
टेलर मास्टर की बेटी, बचपन से ही समझदार, चाय में कितनी शक्कर और कितनी पत्ती.. इसका बखूबी हिसाब रखने वाली.. खूबसूरत इतनी कि गाल छू लो तो लाल पड़ जाए.. अब्बू की दुकान पे सिलाई मशीन चलाती.. रजिया के साथ साथ उसके अब्बू भी जानते थे कि लड़के जींस को ऑल्टर कराने उनकी दुकान में क्यों आते थे?? पर आने वाले को कौन रोंक सका है भला? (नोट : ये भला 'भला बुरा' वाला भला नहीं है)

और उधर मुन्नी
मुन्नी आज़ाद खयालो वाली लड़की.. जिसे हर जंग में जीतना और हर दुश्मन को पीटना ही गवारा था.. ऐसा नहीं था कि उसके मन में प्रेम नहीं था.. पर बचपन से अब तक जो भी उसने देखा.. या यू कहे कि झेला उसके बाद उसने नफरत को गोद ले लिया..

इन सबके बीच शालू
शालू ज्यादा समझदार नहीं थी पर उसकी समझ में एक बात आ गयी थी कि दुनिया जाए तेल लेने.. !! शालू को दुनिया से कोई मतलब नहीं था.. यू मतलब उसको इस बात से भी नहीं था कि दुनिया तेल लेने भला जाएगी कहा? वैसे शालू का एक ही उसूल था कि जैसे जीना है वैसे जियो.. बस जी..!!!

तो शीला
शीला जब भी घर से बाहर निकलती कुछ आँखे उसका दामन थाम लेती.. उसको घर से निकालकर गली के लास्ट कोर्नर तक छोडके आती.. ( ऐसी आँखों का राम भला करे ) इधर शीला को मोहल्ले की आँखों ने छोड़ा और उधर बस स्टॉप पे खड़े लडको ने थामा.. साथी हाथ बढ़ाना की तर्ज़ पे शीला के दामन को थामती आँखों की रिले रेस चलती रहती.. और जैसे ही शीला बस में चढ़ती कि वो टच स्क्रीन फोन बन जाती..सब पट्ठे उसके सारे फीचर्स चेक कर लेना चाहते थे.. वैसे भी मोबाईल वही लेना चाहिए जिसमे सारे फीचर्स मौजूद हो..

हाँ तो शीला
बस से उतरते ही शीला को कोंलेज के लड़के संभाल लेते.. उनका बस चलता तो वो शीला को लेने उसके घर तक चले जाते.. लेकिन वे लडकियों के आत्मनिर्भर होने वाली सोच के पक्षधर थे.. लडकियों और लडको को समान अधिकार मिलने चाहिए.. ऐसा उनका मानना था (और लेखक का भी यही मानना है) तो कोंलेज के गेट से वो हैंडल विद केयर टाईप से शीला को क्लासरूम में ले जाते.. यू ले जाना तो वो बैडरूम में चाहते थे पर इस दुष्ट समाज के ओछेपन जिसमे कि लडकियों को छेड़ना एक अपराध था, वो राम राज की उम्मीद करके बस क्लासरूम से ही काम चला लेते.. उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि कम से कम रूम शब्द तो आ ही रहा है..

रज़िया याद है ना..
अब्बू की टेलर की दुकान में बैठी सिलाई मशीन का पहिया घुमाती रहती... यू उसकी ज़िन्दगी की गाडी खुद बिना पहियों वाली थी.. उमर उसकी बढती जा रही थी और बढती उमर में होने वाले परिवर्तन भी हो रहे थे.. अम्मी तो उसको अब्बू के हवाले करके निकल ली दुनिया से.. और अब्बू बेचारे हर सलवार कमीज़ सिलवाने आने वाली महिलाओ में उसकी अम्मी ढूंढते रहते.. इसी के चलते उनके चश्मे का नंबर बढ़ गया और धंधा घट गया..  "अब मियां आजकल कौन सिलवाने बैठा है कपडे.." इन्ही जुमलो के साथ रज़िया के अब्बू रंगे हाथो पकडे जाते.. 

रज़िया जो कि आपको याद है..
वो दिन भर लडको की जींसो को ऑल्टर करते करते ऐसी ऊब गयी थी कि उसकी शक्ल खुद टॉम अल्टर जैसी हो गयी.. पर उसकी शक्ल से ना किसी को कुछ देना था ना लेना था.. सो जींस ऑल्टर होने के लिए आये जा रही थी और उसके अब्बू को उसकी चिंता खाए जा रही थी... पर लड़की की शादी कराना कोई आस्तीन काटने जितना सरल काम तो था नहीं.. हाँ जेबे काटी जाती तो बात बन सकती थी.. पर ये काम भी उनके बस का नहीं था.. अब सलवार कमीज़ में जेबे जो नहीं होती.. 

तो रज़िया जो कि आपको अभी तक याद है 
दुसरो की जींस ऑल्टर करके छोटी करती रही पर अपनी बढती उम्र को छोटा करने का हुनर जानती नहीं थी.. सो जैसे जैसे उम्र बढ़ी वैसे वैसे जींस भी ऑल्टर के लिए कम आने लगी.. अब तो इक्का दुक्का जींस आती वो भी कोई तलाकशुदा लोगो की.. रज़िया चुपचाप ऑल्टर करती रहती.. जींस काटना तो उसके लिए आसान था पर दिन काटना उतना ही मुश्किल.. 

मुन्नी को भूल तो नहीं गए आप?
क्या कहा? उसे कैसे भूल सकते है भला... !! सो तो है. (लेखक आपके इस कथन से सहमत है कि मुन्नी को नहीं भूला जा सकता) तो जनाब मुन्नी जो है उसको जीतना और पीटना तो पसंद है ही.. बचपन में भी या तो वो किसी खेल को जीत लेती थी या हारने पर जीतने वाले को पीट देती थी.. लेन देन के मामले में बच्ची बचपन से ही बड़ी मुखर थी.. और वो लोग जो ये कहते फिरते है कि पूत के पांव पालने में ही नज़र आ जाते है.. उनको भी मुन्नी यदा कदा ढूंढती रहती.. कि यदि वो लोग मिल जाए तो उनके पालनो (आप समझ ही गए होंगे) पे दो लात जमा के बताये कि पूत ही नहीं पुत्रियों के पांव भी पालने में ही नज़र आते है..

मुन्नी जिसे कि आप भूल नहीं सकते   
मुन्नी उस वक़्त से मुन्नी नहीं रही जब वो मुन्नी थी.. और उसकी इस समझ को डेवलप कराने में जिन लोगो ने उसकी सहायता कि उनमे थे उसके पिताजी के दोस्त, मकान मालिक का साला, गणित की ट्यूशन वाले मास्टरजी, पुरानी कंपनी के मैनेजर और ऐसे कई सारे भले लोग जिनका जन्म ही मानव कल्याण हेतु हुआ है.. वे यथा संभव मुन्नी का कल्याण करने के प्रयास में लगे रहते.. हालाँकि मुन्नी बड़ी निष्ठुर हृदयी थी वो नहीं चाहती थी कि उसका कल्याण हो.. किसी न किसी बहाने से वो उन कल्याण कार्यो पर पानी फेर ही देती थी.. 

मुन्नी जिसे कि भूला ही नहीं जा सकता 
वो ऐसे ही कल्याणों के खिलाफ आवाज़ उठाने लगी.. कोई सेक्स्युअल हर्रेस्मेंट नाम की किसी चीज़ के विरोध में अभियान भी चलाया उसने.. बाद में सुनने में आया कि  ये अभियान समाज के विरोध में था.. मुन्नी नहीं चाहती थी कि ऑफिस में फ्रेंडली एन्वायरमेंट रहे.. उसके ऐसा करने से लोग तनाव में रहने लगे.. सुबह होते ही परेशान हो जाते कि आज ऑफिस में करेंगे क्या? वही कुछ मूर्ख महिलाये ना जाने क्यों इस अभियान से खुश थी.. खैर उन्होंने मुन्नी को फेमस कर दिया.. बोले तो मुन्नी का बहुत नाम हो गया..  

कि आयी अब शालू की बारी 
शालू को मुन्नी शीला या रज़िया से कोई मतलब नहीं था.. (वैसे लेखक ने आपको पूर्व में ही बता दिया है कि शालू को दुनिया से कोई मतलब नहीं है और दुर्भाग्य से रज़िया, मुन्नी और शालू भी इसी दुनिया में है तो शालू को उनसे कोई मतलब नहीं था..) शालू बचपन से ही नृत्य कला में प्रवीण थी.. जब भी घर में मेहमान आते शालू की मम्मी उसे अपने नृत्य का नमूना दिखाने को कहती.. और शालू नमूनों की तरह नमूनों के सामने अपने नृत्य का नमूना पेश करती.. वे लोग नृत्य के अंत में यही कहते पाए जाते कि बहनजी आपकी लड़की तो बड़ी होशियार है.. पर इसी होशियारी के चलते शालू पढाई में होशियार नहीं हो पाई.. हालाँकि उसे अंग्रेजी बोलना अच्छा लगता.. अंग्रेजी में ग्रामर व्रामर जैसे दिखावो और आडम्बरो से वो कोसो दूर थी.. भाषा में ग्रामर के दखल के खिलाफ थी शालू.. 

शालू, जो भाषा में ग्रामर के दखल के खिलाफ थी..
वो उन लोगो के भी खिलाफ थी जिनका ये कहना था कि शालू का नृत्य और उसकी भंगिमाए स्वस्थ समाज के अनुकूल नहीं है.. शालू का ये मानना था कि ये लोग जो उसके खिलाफ है घर में सी डी पे उसका नृत्य देखते है.. शालू को कतई ये गवारा नहीं था कि उसकी सीडी घर पे देखने वाले बाहर आकर उसको सीढ़ी बनाकर अपना उल्लू सीधा करे.. इसीलिए वो हमेशा उल्टी बात करती थी.. 

शालू, जो हमेशा उल्टी बात करती थी.
उसको कई बार उल्टी करते देख मोहल्ले वाले उल्टी सीधी बाते करते.. कई लोगो का ये भी कहना था कि शालू को नृत्य प्रेम के अलावा प्रकृति से भी प्रेम है..क्योंकि वो पृकृति प्रदत कुछ ऐसी क्रियाये.. ऐसे लोगो के साथ करती थी जिन लोगो की प्रकृति ठीक नहीं थी.. साथ ही उन लोगो का ये भी मानना था कि वे प्रकृति प्रेमी शालू के ऐसे प्रकृति प्रेम को देखते हुए उसे कुछ आर्थिक सहायता भी कर देते थे.. और ये बाते वो इतनी विश्वसनीयता से कहते थे जैसे पुरे घटनाक्रम के वे चश्मदीद गवाह हो.. या फिर शालू उनके खालू के घर ही गयी हो.. पर शालू को इन बातो से कोई फर्क नहीं पड़ता था... आपको याद होगा ही कि शालू का ये मानना था कि दुनिया जाए तेल लेने...

पोस्ट लम्बी हो रही है.. लगता है ऑल्टर करना पड़ेगा..
तो पोस्ट जो कि लम्बी हो रही है उसमे हमने तीन साल का लीप ले लिया है.. (तीन साल बाद)

तीन साल बाद शीला 
शीला जिसको कि इन तीन सालो में इतने प्रेम पत्र मिले कि उनको रद्दी में बेचने पर उसे साढे तीन सौ रूपये मिले (दरअसल लेखक ही वो रद्दी वाला है, जो भेष बदल कर रद्दी खरीदता है और उनमे मिली चिट्ठियों को अपने नाम से छापता है.. उनमे भी कुछ प्रेम पत्र ऐसे है जो छपने लायक है, पर वो फिर कभी) तो शीला ने दो साल तक उन पत्रों को एक करियर ऑप्शन की तरह चुना और कुछ को जवाब भेजकर अपने लिए दैनिक जीवन की आवश्यकताओ की पूर्ति भी की.. मसलन अपना मोबाईल रिचार्ज करवाना, सूने कानो के लिए टॉप्स खरीद्वाना, अपने लिए हैण्ड बैग्स, फास्टट्रेक की घडी और भी ऐसी कई चीज़े.. साथ ही कभी कभी हलवाई की जलेबिया और कचोरिया भी.. और सिनेमा तो आप खुद ही समझ जायेंगे.. 

खैर तीसरे साल शीला की ज़िन्दगी में आया रमेश जो कि शीला की ही तरह लुक्खा था.. बस दोनों की जोड़ी जम गयी.. पर शीला जो कि दीक्षित परिवार की बेटी थी उनको रमेश जैसे सिन्धी लड़के से अपनी बेटी की शादी नागवार गुजरी.. पर शीला ने हार नहीं मानी और घर से भाग गयी.. वो ये बात जानती थी कि माता पिता के आशीर्वाद के बिना कोई संतान खुश नहीं रह सकती.. इसलिए तिजोरी में से दस तोला सोना माता पिता के आशीर्वाद स्वरुप साथ ले गयी..  (भगवान ऐसी औलाद सबको दे).. 

रमेश कीजवानी से शादी हो गयी उसकी... सिन्धी फैमिली होने के बावजूद शीला वहा खुश है.. और अब कोई उसका नाम पूछता है तो वो कहती है कि माय नेम इज शीला... शीला कीजवानी

तीन साल बाद रज़िया 
आज से दो साल पहले एक साहब अपनी जींस ऑल्टर करवाने आये और रज़िया को दिल दे बैठे.. उम्र में वे रज़िया के अब्बू से ज्यादा तो नहीं थे पर कुछ कम भी नहीं थे.. रज़िया के पिता पहले तो बेटी के भविष्य के प्रति आशंकित थे.. पर जब उनकी आशंका देखते हुए उन साहब ने उन्हें पचास हज़ार रुपी विश्वास जताया तो वे खुदा की मर्ज़ी जानकर निकाह को राजी हो गए.. रज़िया दुल्हन बनके ससुराल पहुच गयी.. और साथ में ले गयी अपनी कैंची.. पगली, समझती होगी कि ज़िन्दगी भी इससे  कट जायेगी.. 

ज़िन्दगी में जो लोग सरप्राईजेस में बिलीव करते है उन्हें रज़िया की ज़िन्दगी देखनी चाहिए.. जिसे ससुराल में आकर कई सरप्राईजेस मिले.. आने के छ महीने बाद ही उसके पति ने उसके अन्दर छिपी प्रतिभा को खोज लिया.. और पहले से प्रतिभावान अपनी दो पत्नियों के सुपुर्द कर दिया... ये था रज़िया का दूसरा सरप्राईज़ कि उसकी माँ की उम्र की दो सौतन का होना.. वे दोनों थी भले सौतन लेकिन रज़िया का बहुत ख्याल रखती थी.. हालाँकि शुरू शुरू में रज़िया ने अपनी प्रतिभा से दुसरो को लाभान्वित करने में आनाकानी की.. पर उसकी दोनों सौतनो ने लोहे के गर्म चिमटे का सहारा लेकर उसे समझा ही दिया.. आखिर चोट खाकर ही पत्थर हीरा बनता है.. अब रज़िया से सब खुश है.. और उसके शौहर भी जो ये जानते थे कि पचास हज़ार तो यू ही निकाल आयेंगे.. 

रजिया अब कुछ बोलती नहीं बस मन ही मन अल्लाह से दुआ करती है.. कि अल्लाह बचाए मेरी जान कि रज़िया गुंडों में फस गयी.. 

तीन साल बाद मुन्नी 
मुन्नी जिसने कि महिलाओ की सेवा करके बहुत नाम कम लिया था वो अब और भी बड़ी समाज सुधारक बन गयी थी.. पर दो साल पहले ऐसा हुआ कि लेखक को भी अचंभा हुआ.. हुआ यू कि मुन्नी केरल गयी थी एक विधवा आश्रम का उद्घाटन करने.. बस वही पर उसकी मुलाक़ात डार्विन नामक व्यक्ति से हुई.. जो वहा एक एन जी ओ चलाता था.. और चाहता था कि मुन्नी जैसी समाज सुधारक उसके मिशन में उस से जुड़े.. पहले तो मुन्नी तैयार नहीं हुई लेकिन फिर जब उसने गाँधी जी की कई सारी तस्वीरो वाला बैग दिखाया.. तो गाँधी वादी विचारधारा वाली मुन्नी मना नहीं कर सकी.. 

बस फिर क्या था मुन्नी ने अब तक जितने भी महिला आश्रम खुलवाए थे वहा की महिलाओ को प्रभु के मार्ग पे चलने हेतु प्रेरित किया.. और साथ ही ये भी समझाया कि ईश्वर तो ईश्वर है फिर चाहे वो राम हो या ईशु.. जो महिलाये ये समझ गयी उन्होंने तो बात माँ ली पर जो नहीं मानी उन्हें भी गांधीवादी विचारो से मुन्नी ने मनवा ही लिया.. हालाँकि इस से कुछ मूढ़ मति लोग ये भूलकर कि ईश्वर एक है.. मुन्नी जैसी भली महिला के बारे में अनाप शनाप बकने लगे.. और तब तो उसके पुतले भी जलाये जब वो मुन्नी से मार्ग्रेट बन गयी और उसने डार्विन से शादी कर ली..

डार्विन का पूरा नाम डार्विन लिंगानुराजन था.. और मुन्नी उसे प्यार से डार्लिंग कहती थी.. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि सुहागरात पर मुन्नी ने डार्विन से क्या कहा होगा.. जी हाँ! मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए..



तीन साल बाद शालू 
अब जनाब शालू का क्या कहे.. दुनिया उसके बारे में उल्टी बाते करती रही और वो उल्टिया करती रही.. टी वी पे तो वो हिट थी ही बाद में मोबाईल पर भी उसने झंडे गाद दिए.. जो लोग बड़े परदे पर काम नहीं मिलने की वजह से छोटे परदे पर आये थे वो शालू की उससे भी छोटे परदे पर कामयाबी देखकर जलने लगे.. शालू से जलने वालो की लिस्ट लम्बी होती गयी.. पर शालू को काम की कोई कमी नहीं रही.. 

दो साल पहले शालू ने टी वी पे अपना स्वयंवर भी रचाया था और एक बेचारे पे तरस खाके उससे शादी भी कर ली थी.. पर वो लड़का नालायक निकला उस ने शालू को सिर्फ इस बात पे तलाक दे दिया कि शालू ने उसे बिना बताये स्वयंवर पार्ट टू के कोंट्राक्ट पे साईन कर दिया.. हालाँकि शालू ने स्वयंवर पार्ट टू किया तो सही पर उसकी टी आर पी पिछले शो के मुकाबले कम रही.. तीसरे स्वयंवर में किसी और को लेने की बात पर शालू ने ही चैनल वालो को आईडिया दिया कि शादी ना सही तो तलाक पर ही प्रोग्राम बना दो.. चैनल वालो को ये सुझाव पसंद आया.. टी वी पे ही शालू ने दुसरे स्वयंवर में हुई जिस लड़के से शादी हुई थी उसी से तलाक ले लिया.. सुना है वो लड़का तीसरे स्वयंवर में फिर से पार्टिसिपेट कर रहा है.. 

जिस दुनिया ने शालू के बारे में लाख बाते कही पर फिर भी शालू सफल हो गयी.. उसी दुनिया को जवाब देते हुए शालू अपने किसी डांस शो में ये गाना गा रही थी.. कि मुन्नी भी मानी और शीला भी मानी.. शालू के ठुमके की दुनिया दीवानी  

तो दोस्तों ये थी कहानी शीला मुन्नी रज़िया और शालू की.. जो आपके चरणों में लेखक का तुच्छ प्रयास है 
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रिक्वेस्ट - जैसा कि आप जानते है कि महंगाई दिन ब दिन बढ़ रही है.. और ब्लॉग लेखन पर सरकार द्वारा कोई सब्सिडी भी नहीं मिलती इसलिए लेखक ने ब्लॉग लेखन के साथ साथ पार्ट टाईम दुकान भी खोली है जिसमे कहानी में प्रयुक्त वस्तुओ को बेचा जाएगा.. यदि आप खरीदना चाहे तो निम्न वस्स्तुओ का ऑर्डर दे सकते है.. दस परसेंट की विशेष छूट के साथ 
  1. शीला के पांच प्रेम पत्रों के सेट (जिसमे पांच के साथ एक फ्री है)
  2. रज़िया की कैंची 
  3. मुन्नी द्वारा लिखी किताब "ईश्वर एक है"
  4. और शालू के डांस की सीडी मय होंठोग्राफ (जो खुद शालू के होंठो द्वारा दिया गया है)

इनमे से किसी भी चीज़ को मंगवाने हेतु लेखक से संपर्क किया जा सकता है.. माल वी. पी. पी. द्वारा भेजा जाएगा.. 
(नोट - फैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा ना करे)

Thursday, March 31, 2011

सुगर क्यूब पिक्चर्स प्रजेंट्स "सिक्का"



उसे शौक था मरने का और मरके अमर होने का.. लोगो की यादो में.. तख्तियो पे नाम चाहता था.. स्कूलों अस्पतालों पर अपना नाम चाहता था.. यू चाहता तो वो ये भी था कि गली सड़क नहरों बांधो के नाम भी उसके नाम पर रख दिए जाए.. उसके मन में कीड़ा था अमर होने का होते जाने का.. लेकिन इसके लिए उसे मरना ज़रूरी था.. और यही एक काम था जो वो ठीक से नहीं कर पा रहा था.. उसने कई बार शाम ढले शहर की सबसे गहरी झील में डूब जाने की कोशिश की पर बात बनी नहीं.. कुछ देर तक तो वो पानी में पांव डाले बैठा रहता पर फिर थोडी देर बाद उसमे तैरती मछलियों को दाना डालकर लौट आता..

इस बार उसने पटरियों पर लेटकर ट्रेन से कट जाने का मन बनाया.. वो बहुत देर तक पटरी पे बने पुल के बीचो बीच बैठा रेलगाड़ियो को आते जाते हुए देखता रहा.. ट्रेन सामने से सीटी बजाती हुई आती.. इंजन से निकलता हुआ धुँआ उसकी साँसों में भी उतरता.. जब रेल ठीक पुल के नीचे से गुज़रती तो उसके दिल के साथ पुल भी थरथराता.. थोडी देर बाद वो हिम्मत करके सीढियों से नीचे उतर गया.. पास ही पड़ी लकड़ी उसने उठा ली.. और लकड़ी के एक सिरे को जमीन से रगड़ता हुआ वो पटरी के बराबर चलते हुए मरने के लिए सही जगह की तलाश में चलता रहा.. सूरज इस वक़्त ठीक सर के ऊपर था.. वो पटरी पर एक कोने पर बैठ गया.. सामने वाले ट्रैक पर कुछ कचरा बीनने वाले बच्चे ट्रेन के डिब्बो से फेंके गए चिप्स, बिस्किट के खाली पैकेट उठा रहे थे.. उनमे से किसी में एक चिप्स या बिस्कुट का चुरा मिल जाता तो चहक कर खा लेते.. वो बैठा यही सब देख रहा था कि उसके कानो में इंजन की आवाज़ गूंजी.. वो अपनी जगह से खड़ा हुआ.. वो चाहता था कि बच्चो को वहा से भगाकर ट्रेन के सामने खड़ा हो जाए.. पर इस से पहले की वो उन्हें भगाता उनमे से एक बच्चे ने पटरी पर सिक्का रख दिया और दुसरे से बोला कि ट्रेन गुजरने के बाद ये सिक्का सोने का बन जाएगा.. वो जानता था कि ऐसा कुछ होने नहीं वाला.. पर पटरी को घेरे उन चार चेहरों पर ठहरी आँखों में चमक देख कर वो रुक सा गया.. उसके कदम आगे नहीं बढे..

पर ट्रेन धीरे धीरे इसी तरफ बढ़ रही थी.. सीटी की आवाज़ कानो के और करीब आ रही थी.. गड गड की आवाज़ दिल दहलाने वाली मालूम पड़ती थी.. लड़के सब अपनी जगह ठहरे हुए थे.. सबकी निगाह इंजन पर टिकी हुई थी.. उसकी भी.. इंजन तेज़ी से उनकी तरफ आ रहा था.. लड़के एक कदम आगे सरक चुके थे और वो भी.. सिक्के के सोने में बदल जाने वाली असंभव सी बात के लिए वो आँखे गढ़ाए ये भी भूल गया कि वो यहाँ मरने के लिए आया था.. और इस ट्रेन के चले जाने के बाद उसे फिर साढे तीन घंटे इंतज़ार करना पड़ता.. लेकिन बिना ये जाने कि सिक्का सोना बना या नहीं वो कैसे मर सकता था? उसे लगा साढे तीन घंटे और इंतज़ार किया जा सकता.. फिर मरना तो है ही अभी मरो या साढे तीन घंटे बाद क्या फर्क पड़ता है..? इंजन मालगाड़ी का था.. जो अब उनके बिलकुल करीब आ चुका था.. पटरी के आस पास भीड़ देखकर इंजन ड्राईवर ने होर्न बजाया... पर लड़के हटे नहीं.. इंजन सिक्के के बिलकुल करीब आ गया.. कानफोडू आवाज़ के साथ रेल सिक्के के ऊपर से गुज़रने लगी.. सबकी निगाह उसी सिक्के पर थी.. जैसे ही हर डिब्बे का चक्का उस सिक्के पर से निकलता ट्रेन थोडी झुकी सी लगती.. बिजली की तेज़ी के साथ ट्रेन निकल गयी.. मिट्टी के गुबार के बीच चारो लड़के सिक्के की तरफ लपके और वो भी.. सिक्का सोना नहीं बन पाया.. अलबत्ता जो था उस से भी गया.. सिक्का चपटा हो गया जो अब किसी काम का नहीं रहा.. लड़के की आँख में आंसु आ गए.. बाकी तीनो लड़के हंसने लगे.. और अपना अपना थैला उठाके चल पड़े.. लड़का ठगा सा खड़ा कभी सिक्के को देखता तो कभी धुल उड़ाते जाती हुई ट्रेन को..

लड़के की बेवकूफी के चक्कर में उसने मरने का एक और मौका खो दिया.. उसे इस लफड़े में फसना ही नहीं था.. क्यों रुका वो यहाँ जबकि जानता था कि सिक्के का कुछ नहीं होने वाला.. पर लड़के की आँखों का विश्वास.. हाँ उसकी आँखों की चमक ही तो थी.. जिसने मजबूर कर दिया था उसे रुकने के लिए.. पर अब? साढे तीन घंटे बाद अगली ट्रेन आने तक वो क्या करेगा.. यही सोचते हुए.. उसने लड़के की तरफ नज़र घुमाई.. लड़का सिक्का वही पटरी पर फेंक कर चल पड़ा.. लड़का जा चुका था मगर सिक्का अभी भी पटरी पर पड़ा था..

Tuesday, February 15, 2011

प्यार को प्यार ही रहने दो.. कोई नाम ना दो...


उसका ये कहना कि गुलज़ार ने जो लिखा है उसके बाद प्यार का डेफिनेशन ही ख़त्म हो जाता है.. मुझे ठीक तभी याद आता है खामोशी का वो गीत..
हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू.. 

वो कहती है.. तुम खुद ही देखो ना.. क्या खूब कहा है.. सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो.. प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो.. सच है इस के बाद प्यार को कोई और क्या कहेगा.. इश्क में डूबा हुआ इंसान माशूक से ज्यादा गानों से प्यार करता है.. गोया संगीत के बिना मोहब्बत अधूरी है.. 

वो कहती है और नहीं तो क्या वैसे भी आधे शायर आशिक ही होते है.. 
और बाकी के? ये मैं पूछता हूँ.. 
माशूक...! ! 
 
वो हँसते हुए उठती है और अपनी लम्बी सी चोटी को इस काँधे से उठाकर उस काँधे पर रखती है. मेरी आँखे उसके बालो में बंधे गुलाबी रिबिन पर रुक जाती है.. ऐसे ही गुलाबी गाल हो जाते है उसके.. जब वो बहुत रोती है या फिर खिलखिलाके हँस देती है.. अब चलते हुए वो खिड़की के पास पहुँच जाती है.. और आसमान की तरफ देखती है.. मैं अपने चश्मे को टेबल पर रखके उसकी तरफ बढ़ता हूँ.... उसके चेहरे पर उगते चाँद और ढलते सूरज की रौशनी एक एबस्ट्रेक्ट सी पेंटिंग बनाती है.. मैं उसके करीब जाकर खड़ा हो जाता हूँ.. वो अभी भी चाँद को देख रही है.. मैं उसकी आँखे अपने हाथो से बंद करते हुए कहता हूँ.. तुम जो कह दो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं.. 

रात को रोंक लो... वो बंद आँखे किये कहती है..
मैं हाथ उसकी आँखों से हटाकर उसे शहर की रौशनी दिखाता हूँ.. वो देख रही हो.. हरे गुम्बद वाली मस्जिद.. वहां से आती अजानो में मुझे तुम्हारी हंसी घुली हुई सी लगती है.. 
हटो.. बहुत बड़े फंडेबाज हो तुम... वो शर्माते हुए कहती है.. कोई भी मौका नहीं छोड़ते.. 
तुम्हे छोड दे जो उसे आगरे शिफ्ट करवा देना चाहिए.. 
आगरे का पागलखाना तो खुद रांची शिफ्ट हो गया है.. 
वही रखना था.. मैं उसकी तरफ देखकर कहता हूँ.. 
वो मेरी तरफ देखती है.. उसकी निगाहों में सवाल है.. 
अरे अपने महबूब की याद में आधे लोग ताज महल जाते है 
और बाकी के..? वो पूछती है.. 
पागलखाने... !! 
 
मैं बोलके फिर से कमरे की तरफ चलता हूँ.. वो मेरे पीछे पीछे आती है.. 
 
मैं ट्रांजिस्टर उठाकर ट्यून करता हूँ.. ये वही ट्रांजिस्टर है जिस पर पिताजी गाने सुनते थे.. प्यार हुआ.. इकरार हुआ है.. प्यार से फिर क्यू डरता है दिल.. और रसोई में अपने पल्लू को कमर में फंसाए मेरी माँ गाती कि डरता है दिल रस्ता मुश्किल मालूम नहीं है कहाँ मंजिल...

 
क्या सोचने लगे मिस्टर..? वो मुझे फिर से उसी कमरे में खींच लाती है.. 
रेडियो में गाना बजने लगा है.. जीने के लिए सोचा ही नहीं दर्द सँभालने होंगे.. मुस्कुराओ तो मुस्कुराने के क़र्ज़ उतारने होंगे.. मुस्कुराओ कभी तो लगता है.. जैसे होंठो पे क़र्ज़ रखा है.. 

वो भी रेडियो की आवाज़ के साथ गुनगुनाने लगती है.. तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी.. हैरान हूँ मैं.. मैं रेडियो बंद कर देता हूँ.. और उसकी आवाज़ में डूब जाता हूँ.. 
 
मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई कैमरा हम दोनों के क्लोज अप शोट ले रहा है.. बहुत धीरे धीरे हमारी तरफ ज़ूम होता हुआ..वो अपने दुपट्टे के छोर को अपनी नर्म उंगलियों से पकड़ लेती है.. वो ऐसा क्यू करती है ये जाने बिना मैं उसकी इस अदा को पसंद करता हूँ.. 

वो मेरी तरफ देखती है.. उसकी आँखों में आसमान के सितारे उतर आये है.. मैं दिवार पर लगी उस तस्वीर को देखता हूँ.. जिसमे रेल के दरवाजे पर एक लड़की खडी है.. और लड़का हाथ में पीले फूल लिए प्लेटफोर्म पर उसकी तरफ भागता है.. इश्क आसानी से हासिल हो जाये तो इश्क नहीं रहता.. ये सिर्फ मेरे मन का ख्याल है.. 

वो मेरी नज़र पढ़ लेती है.. और तस्वीर की तरफ बढती है.. उसके पायल की आवाज़ फर्श पर बिखरती जा रही है.. मैं एक एक आवाज़ को उठाकर अपने कानो में पहन रहा हूँ.. वो मुड़कर मुझे देखती है..
क्या देख रहे हो.. ? 
देख नहीं रहा हूँ सुन रहा हूँ... 
क्या सुन रहे हो?
म्यूजिक... 
यहाँ कहाँ म्यूजिक है ?
ये जो खामोशी पसरी हुई है कमरे में.. 
ख़ामोशी संगीत है?
यस...! ये भी एक म्यूजिक है.. गौर से सुनो इसे.. 
वो मेरे करीब आकर मेरी कुर्सी के पास बैठ जाती है.. मेरे घुटनों पर अपना सर टिका कर मेरे साथ साथ खामोशी को सुनती है... मेरी उंगलिया खुद ब खुद उसके बालो में उलझ जाती है.. मैं उसके बाल सहला रहा हूँ.. वो मेरे दायें पैर के अंगूठे से खेल रही है...उसकी मासूमियत मैं अपने अंगूठे पर महसूस करता हूँ..

तुम बालो को खुला रखा करो.. खुले बालो में तुम अच्छी लगती हो.. मैं पता नहीं क्यों उसे ऐसा कहता हूँ..
पर तुम कंघी मत किया करो.. बिखरे हुए बाल तुम पर अच्छे लगते है.. मैं तुम्हे हमेशा ऐसे ही देखना चाहती हूँ.. वो मेरे बाल बिखेर देती है.. मेरी नज़र उसकी कान की बालियों पर है..
ये वही है ना जो मैंने तुम्हे तुम्हारे इक्किस्वे जन्मदिन पर दी थी.. मैं छूकर देखता हूँ..
आउच. .अरे धीरे.. उसके कानो में दर्द होता है..
क्या कर रहे हो? वो पूछती है..
इस शाम को कैद करने की कोशिश... मैं अलमारी से कैमरा निकालता हूँ और मैक्रो मोड़ में उसके कानो की बालियों की फोटो लेता हूँ.. उसकी गर्दन पर हल्के हल्के बालो के बीच झूलती बालिया.. मैं इनमे अक्स देखता हूँ.. अपनी ज़िन्दगी का.. इस छोटे से लैंस में मुकम्मल नज़र आती है मुझे..

वो करीब आकर कैमरे के लैंस पर हाथ रख देती है.. मैं उसके माथे पर चूमता हूँ.. वो खुद ही खुद में सिमट जाती है.. मैं एक खामोश अंगड़ाई लेते हुए उठकर कॉफ़ी का प्याला उठाता हूँ..  उसकी नज़रे मेरी तरफ है.. मैं मुमताज़ मिर्ज़ा की ग़ज़ल का शेर पढता हूँ..

वो एहतराम ए गम था कि लब तक ना हिल सके.. 
नज़रे उठी तो सर ए हद ए गुफ्तार तक गयी.. 

ठीक उसी वक़्त सड़क  पर लगे लैम्प पोस्ट की रौशनी खिड़की से अन्दर आती है..  और वो कहती है

तन्हाईयो ने फासले सारे मिटा दिए.. 
परछाईयां मेरी.. तेरी दिवार तक गयी.. 

मेरी नज़र खिड़की की रौशनी से फर्श पर बनी उसकी परछाई पर जाती है.. वो ठीक मुझ तक पहुंची है.. मैं एक बार फिर उस पर मर मिटा हूँ.. वो मुस्कुराये जा रही है.. मैं दौड़कर उसे गोद में उठा लेता हूँ.. और पूछता हूँ.. 
विल यू बी माय वेलेंटाईन ?? 
वो कहती है ये तो मैं पहले से ही हूँ.. कुछ और बोलो.. 

मैं उसे उठाकर फ्रिज पर बिठा देता हूँ..  
आलवेज बी माय वेलेंटाईन.. मैं उसके मुलायम हाथो को अपने हाथ में लेकर कहता हूँ.. 
 
अब उसकी आँख में आंसु आ गए है.. और गाल गुलाबी हो गए है.. उसके गालो का गुलाबी रंग पुरे कमरे में बिखर गया है.. खामोशी अभी भी ठहरी हुई है कमरे में.. एक संगीत की तरह हमारी आवाज़े मिल रही है फजाओ से.. हवा ने खिड़की पर पर्दा उड़ा दिया है.. मैं उस से कहता हूँ.. कभी गुलज़ार साहब मिले तो उनसे कहूँगा कि हमने भी देखी है उन आँखों की महकती खुशबू..

वो अपने ऊँगली मेरे होंठो पर रखती है.. और मेरे कान में हौले से आकर कहती है.. प्यार को प्यार ही रहने दो.. कोई नाम ना दो...

Sunday, January 30, 2011

ज़िन्दगी में और भी रंग है खुदको रंगने के लिए..

 बीन बैग में अगर जुबान होती तो वो ज़रूर कहता कि इस बैडोल हो चुके शरीर को अब उठा क्यों नहीं लेती.. लेकिन ये भी खामोश है.. शाम उर्दू की एक किताब पढ़ते हुए मैं इस पर आ बैठी थी.. अभी रात के दो बजे जब दोबारा चाय की तलब हुई तो ख्याल आया कि रात का खाना पका हुआ ही रह गया.. वैसे भी जली हुई दाल और अधपके चावल खाने में कुछ भी अच्छा नहीं था.. बिना मन से बने खाने में जायका नहीं होता.. चाय बनाकर पांचवे और लास्ट कप में चाय डालकर फिर से बीन बैग पर जा बैठती हूँ.. मेरे पास पांच कप है.. और जब तक पांचो में चाय नहीं पी ली जाए वो धुलते नहीं.. अब किताब पढने का मन नहीं है.. दरअसल मन शाम से ही कुछ ठीक नहीं ऊपर से माँ का शादी के लिए बार बार फोन करना.. सिर्फ इसलिए कि मेरी उम्र बीत रही है, किसी से भी शादी कर लेना कहाँ तक जायज है.. मैं खुद को समझाती हूँ..

मोबाईल उठाकर कोंटेक्ट लिस्ट को छान मारा एक भी नंबर ऐसा नहीं जिस पर कॉल किया जा सके.. कुंवारे लडको से बात करने पर सिवाय फ्लर्ट के और कुछ नहीं मिलता.. ऐसा नहीं है कि मैं समझती नहीं पर अच्छा लगता है.. मेल फ्रेंड्स ज्यादा हो गए है अब मेरे.. जो लडकिया थी उन सबकी तो शादिया हो गयी.. एक दो बार फोन लगाया भी तो पीछे से उनके हसबैंड का बार बार फोन रखने की आवाज़ सुनकर दोबारा मन ही नहीं किया कॉल करने का.. लोग घर पर बुलाने से भी डरते है.. मेरी एक सहेली की सास को लगता है कि मेरा कैरेक्टर ठीक नहीं है इसलिए मेरी शादी नहीं हुई.. बुल शीट.! 

पर कभी कभी जब मेरी कॉलेज की वो सहेलिया घर आती है जिनकी शादी हो चुकी है.. तो ये सोचकर बड़ा अच्छा लगता है कि पहले जब वो आती थी तो अपने पति अपने ससुराल की बाते करती थी.. पर अब यहाँ आकर वो कहती है काश ऐसी लाईफ हम भी जी सकती.. मुझे क्यों ऐसा लगता है जैसे कुछ भी हमेशा नहीं रहने वाला.. ना शादी ना अकेलापन.. रहेंगे तो बस हम..

इस अकेलेपन से प्यार हो जाने के बाद भी कई बार किसी की जरुरत सी महसूस होती है.. लैम्प पोस्ट की पीली रौशनी खिड़की से कमरे में बिखर रही है.. चादर में सिलवटे कुछ बढ़ गयी है...दिवार पर मार्लिन मुनरो अपनी स्कर्ट उठाये खडी है.. उसके ठीक सामने बिना शर्ट के जॉन अब्राहम..  मैं अपनी आँखे बंद कर लेती हूँ.... मेरा हाथ कमर के नीचे जाता है.. बस कुछ और सालो की बात है.. उसके बाद इसकी भी जरुरत नहीं होगी.. आखिर ज़िन्दगी में और भी रंग है खुदको रंगने के लिए..