Thursday, January 24, 2008

ज़मीर

जो भी उसके साथी
थे दफ़्तर में..
सब नही रहे..
बस वो ही बचा था
मेरी छोटी मोटी
लड़ाई तो अक्सर उस से
होती थी..
और वो जीत भी जाता था
मगर बात तब और थी
तब उसके और
भी साथी थे..
दफ़्तर में..
तब वो अकेला नही था
और मैं भी निहत्था
होता था..
मगर आज शाम को
मोती महल बिल्डिंग
की फाइल हाथ में आते ही
दास बाबू ने चपरासी
के हाथो.. हथियार
सरकया था... ना जाने कहा
से हिम्मत गयी मुझमे
आव देखा ना ताव
दो टुकड़े कर डाले...
रोज़ शाम को मंदिर जाता था
पर आज सीधा घर आया हू
मैं आज अपने ही हाथो
अपना ज़मीर मार आया हू

यादो की दराज


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यादो की दराज जो खोली
एक पुराना कॅलंडर मिला
उंगलियो की आहट से
कुछ दिन गिर पड़े..
मैने उठा कर
रख लिए हथेली पर..
और छाँटने लगा

महकते हुए दिनो को
अचानक एक दिन
लिपट गया उंगली से
मैने झटका..
मगर फिर भी अटका
रहा हाथ की
रेखाओ से..
मानो कह रहा हो
साथ ले चलो मुझे की
मैं सबसे खूबसूरत दिन हू
तुम्हारी ज़िंदगी का..

तुम्हे याद नही
तुम बहुत छोटे थे तब
अब शायद ' बड़े' हो
गये हो..
शायद तुम्हे मुझपर
शर्म आ जाए..
अकेले में ही सही पर
जी लो मुझे फिर एक बार
की मैं हू वही दिन
जो तुम्हारा है.. सिर्फ़ तुम्हारा
तुम्हे जानता है....

जानता हू मैं भी की
ये उन्ही दिनो से निकला है
जब मैं जिया करता था.
मगर अब नही..
मैं अब नही कर सकता हिमाकत
एक और बार जीने की..
की अब कोई यहा जीता नही है
सुबह दस से पाँच तक
एक क्रिया होती है..
उसी को ज़िंदगी कहते है..
ये सुनकर सुबक पड़ा वो दिन
और हाथ की रेखाओ
में ही कही मिल गया..
ओझल होकर..
मुझे भी लगा अब नही
है किस्मत में मेरी
महकता हुआ वो दिन..
अचानक मोबाइल की घंटी बजी
मैने यादो की दराज को
बंद करके.. फोन उठाया
और बोला .... यस बॉस ! कितने बजे ...

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Saturday, January 5, 2008

कंपन्न....

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थोड़ी सी नमी
बारिश के बाद काँच
पर ठहरी बूंदो की
तरह मेरी पेशानी पर
ठहर गयी थी..
और साँसे उलझ पड़ी
सांसो से.. धो-कनी जैसा
दिल धड़का.. पलको के दुशाले
ओढ़ कर आँखे बंद
हो गयी .. ..
समंदर की लहरो की तेज़ आवाज़
एक साथ तीन तीन
हवाई जहाज़ जैसे गुज़रे हो
उपर से.. सीने की पटरी
पर दौड़ती तेज़ साँस..
नाभि से ठीक कील
बराबर फ़ासले पर..
ठंडी गुद गुदी.. हथेली
समेट कर ख़ुद को,
मुट्ठी मैं क़ैद हो गयी..
बिज़ली सी तेज़ी..
ठीक सर से लेकर पाँव
के अख़िरी अनघूटे तक
हुआ एक कंपन्न......

क्या कहु यार... कुछ ऐसा था
प्यार का पहला चुम्बन...

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साला !! सिर्फ़ दूध लेते वक़्त ..

......


यक़ीन नही आता
कोई दूध लेते वक़्त
इतना ख़ूबसूरत कैसे
लग सकता है...
साला !! सिर्फ़ दूध लेते वक़्त...

तुमने कहा तो रुको
दूध लेना है..
और मेरी बाइक से उतरी
ठीक उस मध्यम गति से
जैसे साँझ ढले.. सूरज
उतरता है पहाड़ी के पीछे

उंगली और अंगूठे में
दो पाँच पाँच के सिक्के दबाए
तुम काउंटर पर जा खड़ी हुई
पता नही दुकान वाले ने कैसे
ख़ुद को संभाला होगा..

तुम्हारे होंठ हिले थे..
भैया अमुल का दूध देना
हाय ....... क्या गुज़री होगी उस पर
जब तुमने उसे भैया कहा..

दूध ..... जब तुमने बोला था..
मैं तुम्हारे होंठो को
देख रहा था.. एक दूसरे से
तोड़ा सा दूर जाकर फिर
मिले थे तुम्हारे होंठ
और संवाद निकला था..
दू ....... ध ........ हॉले से!!

तुमने जब रखे थे दोनो सिक्के
काउंटर पर.. शायद ध्यान नही दिया
पर मैने उन सिक्को को गौर से देखा था
बड़ी मुस्किल से जुदा हुए थे
तुम्हारे हाथो से.. बेचारे..

और दुकान वाले ने दूध बढ़ाया
दूध का ठंडा पॅकेट
तुमने अपने हाथो में लिया
और मैने गुद गुदी अपने
गालो पर महसूस की..

तुम लौट आई और बैठ
गयी मेरी बाइक पर फिर से
मैं अपनी किस्मत पे ख़ुश हो गया
और मन ही मन सोचता रहा

की कोई दूध लेते वक़्त
इतना ख़ूबसूरत कैसे
लग सकता है...
साला !! सिर्फ़ दूध लेते वक़्त ..


.........

कौन कहता है इफ़लासी मिट गयी दुनिया से

कौन कहता है इफ़लासी मिट गयी दुनिया से
जिस्म पर गहरी कोडो की मार अब भी है

कहता है कोई दोस्ती हो गयी दोनो मेंैं अब
मगर चोटी पर खड़ी इक दीवार अब भी है

कोई कहता है राम का नाम बेमानी है..........
पर होता यहा दीवाली का त्योहार अब भी है

ज़माने की रफ़्तार ने पकड़ी है और तेज़ी
बेटी, पिता के कांधो का भर अब भी है

मा को छोड़ कर चला जाता है बेटा
रुपयो से बड़े दिनार अब भी है....

चार लोग एक कमरे मेंैं पसर के सोते है
महफूज़ रखा हुआ चार मीनार अब भी है

बुरा होता है, दिखता है और करते भी है
गाँधी की फोटो पर लगा इक हार अब भी है...

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ख़्याल ही तो है...

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हा तुम अक्सर दबे क़दमो से
चुपचाप उतर आती हो.. फ़िज़ाओ में,
..घुल जाती हो ठंडी हवाओ में
और साँस की सीढ़ी पकड़कर
समा जाती हो मुझमे..

उतर जाती हो गहराई तक दिल में..
और खिल जाती हो जैसे सुबह की
औस में कली कोई खिल जाती है..

देखती हो मुझे कुछ ऐसे
जैसे पालने में बच्चा कोई
अपने इर्द ग्रिद जमा चेहरो को
पहचान ने की कोशिश करता है

सोचता हु..तुम ऐसा क्यो करती हो..
तुम तो जानती हो मुझे उस ज़माने से
जब साइकल पे बैठकर चक्कर लगाता था
तुम्हारे घर के पास की गलियो में...

तुम बाल सूखाने के बहाने
खिड़की पर आ जाती थी.. देखती थी मुजको
और मुस्कुरा जाती थी..
भूली तो नही ना ..अब नाम मेरा..

तो फिर क्यो देखती हो इस तरह से
जैसे दो सिरे बन के रह गयेे.. हो
और हम कभी मिले ही नही...

सुनो.. एक बात तो मानो
कुछ देर रुक तो जाओ, ज़रा मेरे ख़्यालो में
की हर बार की तरह फिर ना
छोड़ जाओ सवालो में..

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