Saturday, January 5, 2008

ख़्याल ही तो है...

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हा तुम अक्सर दबे क़दमो से
चुपचाप उतर आती हो.. फ़िज़ाओ में,
..घुल जाती हो ठंडी हवाओ में
और साँस की सीढ़ी पकड़कर
समा जाती हो मुझमे..

उतर जाती हो गहराई तक दिल में..
और खिल जाती हो जैसे सुबह की
औस में कली कोई खिल जाती है..

देखती हो मुझे कुछ ऐसे
जैसे पालने में बच्चा कोई
अपने इर्द ग्रिद जमा चेहरो को
पहचान ने की कोशिश करता है

सोचता हु..तुम ऐसा क्यो करती हो..
तुम तो जानती हो मुझे उस ज़माने से
जब साइकल पे बैठकर चक्कर लगाता था
तुम्हारे घर के पास की गलियो में...

तुम बाल सूखाने के बहाने
खिड़की पर आ जाती थी.. देखती थी मुजको
और मुस्कुरा जाती थी..
भूली तो नही ना ..अब नाम मेरा..

तो फिर क्यो देखती हो इस तरह से
जैसे दो सिरे बन के रह गयेे.. हो
और हम कभी मिले ही नही...

सुनो.. एक बात तो मानो
कुछ देर रुक तो जाओ, ज़रा मेरे ख़्यालो में
की हर बार की तरह फिर ना
छोड़ जाओ सवालो में..

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..