Friday, November 28, 2014

मछली का नाम मार्गरेटा..!!

मछली का नाम मार्गरेटा.. 

यूँ तो मछली का नाम गुडिया पिंकी विमली शब्बो कुछ भी हो सकता था लेकिन मालकिन को मार्गरेटा नाम बहुत पसंद था.. मालकिन मुझे अलबत्ता झल्ली ही कहती थी.. पर मेरा भी एक नाम था.. लेकिन उसमे किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.. घर कितने तो लोग आते थे.. कोई नहीं पूछता कि इस लड़की का नाम झल्ली क्यों है? पूछते तो बस यही की मछली का नाम मार्गरेटा? 

मुझे नहीं समझ आता कि ये नाम क्यों रखा मालकिन ने? नाम रखना ही था तो लक्ष्मी रख लेती, कितना तो प्यारा नाम है.. मेरी माँ का भी यही नाम था.. मेरी नानी मेरी माँ को लिछमी बोलती थी.. मेरी नानी होती तो इस मछली का नाम सुशीला रखती.. मेरी नानी को सुशीला नाम बहुत पसंद था लेकिन नाना को सुशील.. इसलिए मेरे मामा का नाम भी सुशील था.. नाना को सुमित नाम भी बहुत पसंद था लेकिन मामा की तीनो बेटियों का नाम नानी ने ही रखा.. मेरी नानी के घर में एक कछुआ था.. उसका नाम हमने कद्दू रखा था.. वो कद्दू जैसा दिखता था.. अब सोचती हूँ मालकिन होती तो कछुए का नाम रॉबर्ट डी कोस्टा रखती.. लेकिन इस नाम के लिए डी कोस्टा मालकिन को कोसता रहता.. हा हा हा हा...!

कही किसी ने मेरी हंसी सुन ना ली हो.. मालकिन को पता चल गया तो सोचेगी मैं यहाँ खुश हूँ.. मुझे यही रख लेगी.. जैसे मार्गरेटा को रख लिया है.. मालकिन बुरी नहीं है.. अच्छी है.. वो मुझे गाँव से यहाँ इसलिए लायी कि मैं स्कूल में पढ़ सकू.. अच्छे कपडे पहन सकू.. अच्छा खाना खा सकू.. पर मुझे तो गाँव में भी सब अच्छा लगता था.. लेकिन मालकिन कहती है वो मुझे और अच्छे से रखेगी.. जैसे मार्गरेटा को रखती है.. 

मार्गरेटा एक कांच के चमचमाते मर्तबान में रहती है.. जिसे मालकिन एक्के.. नहीं एव्के.. नहीं नहीं एक्वेरियम कहती है.. उसमे रहती है मार्गरेटा.. यूँ तो ये बंगला भी बहुत चमचमाता है.. जिसमे मालकिन रहती है.. कितनी तरह के तो फूल उगे है बगीचे में.. कितना बड़ा झरना है.. इतनी सारी सीढिया.. और मालकिन और मालिक की बड़ी बड़ी तस्वीरे.. लेकिन मालिक घर पे बहुत कम रहते है.. मालकिन ही घर की रानी है.. इतने बड़े घर की मालकिन.. मैं पीछे वाले कमरे में रहती हूँ.. ये कमरा भी बहुत बड़ा है.. हमारे गाँव के पुरे घर से भी बड़ा.. कितने तो सुन्दर रंग है दीवारों पे.. और कितना नर्म बुलायम बिस्तर.. मालकिन मेरा ख्याल भी तो कितना रखती है.. 


मेरी सहेली बिंदिया तो बोलती थी कि शहर ले जाके मालकिन मुझसे बहुत काम करवाएगी.. लेकिन ऐसा कुछ भी तो नहीं है.. झाड़ू लगाना.. पोंछा लगाना.. बर्तन धोना.. बस. ये कोई बड़ा काम थोड़े ही है..ये सब तो मैं गाँव में भी करती थी.. हाँ लेकिन मेरा छोटा भाई होता तो उसके लिए ज़रूर मुश्किल होता.. उसको तो ये सब कुछ भी नहीं आता.. एकदम लल्लू है लल्लू.. मेरी मां बहुत खुश है.. कि मैं यहाँ हूँ.. मेरे बापू भी हर महीने की एक तारीख को आते है मुझसे मिलने.. सबको लगता है कि मैं यहाँ बहुत खुश हूँ.. मैं भी यहाँ इसीलिए रहती हूँ क्योंकि सब खुश है.. मार्गरेटा भी शायद खुश ही होगी अपने चमचमाते मर्तबान में.. लेकिन मैं अगर मार्गरेटा होती तो कभी नहीं रहती उस कांच के डिब्बे में.. मैं तो समुन्दर में रहती.. अपनी सहेलियों के साथ पानी में तैरती रहती.. अपने सुनहरे पंखो से इठलाते हुए सीपियो से खेलती रहती.. लेकिन क्या पता मार्गरेटा भी यही चाहती हो.. और वो भी वैसे ही यहाँ है.. जैसे मैं हूँ.. और मालकिन?? क्या वो भी? नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता... वो तो पुरे घर की मालकिन है.. कितनी खुश रहती है.. लेकिन खुश तो मैं भी हूँ.. और मार्गरेटा भी.. तो फिर क्या हम तीनो..?? 

मैं भी क्या क्या सोचने लग गयी.. मुझे तो चिड़िया को दाना डालना है.. वही चिड़िया जो मेरी खिड़की पे आकर रोज़ बैठती है.. इस शहर में मेरी सबसे अच्छी दोस्त.. मैंने इसका नाम गुज्जी रखा है.. गाँव में मेरा सबसे अच्छा दोस्त था संकू, वो मुझे प्यार से गुज्जी बुलाता था.. अब हम दोनों कितने दूर हो गए.. लेकिन उसी को याद करके मैंने इस चिड़िया का नाम गुज्जी रखा है.. कितना तो प्यारा नाम है.. गुज्जी, वरना मालकिन को देखो मछली का नाम मार्गरेटा रखा है.. भला कोई रखता है मछली का नाम मार्गरेटा..!!

Tuesday, August 26, 2014

रंगमंच का प्यादा

बैकग्राउंड में बांसुरी का संगीत बज रहा है.. स्टेज पर एक आराम कुर्सी पड़ी है.. जिसकी कोई आवश्यकता ही नहीं बची है.. सब लोग व्यस्त है.. परदे पर आसमान भी बनाया हुआ है..  मगर उसमे अभी रात है.. आठ दस तारे बने हुए है परदे पर.. और कोने में एक चाँद पड़ा ऊंघ रहा है..  सामने दर्शक है. जो ताली बजाने से लेकर उबासी लेने तक का काम कुशलता से अंजाम दे सकते है.. “ये कैसी विडम्बना है कि जब मैं गलत था तो सब मेरे साथ थे पर अब जब मैं सच का साथ देना चाहता हूँ तो कोई मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं..” बैक ग्राउंड से आवाज़ आयी है और लाल रंग की मद्धिम रौशनी स्टेज पर उतरी है.. इसी रौशनी में एक दाढ़ी वाला चेहरा नमूदार होता है..  “मैं पूछता हु आखिर क्यों..? संवाद अदायगी में इसका कोई सानी नहीं.. आँखों में जला देने वाली आग और माथे पर भिगो देने वाला पसीना.. रेड स्पोट लाईट ठीक उसके चेहरे पर और आँखे ऐसी लाल के जैसे लहू उतर आया हो इनमे..

दर्शक सांस रोके बस उसी चेहरे पर टकटकी लगाये बैठे है.. अचानक स्वर में करुणा आ जाती है.. दर्शको के बीच अब संवेदनाये हिलोरे मार रही है.. चारो तरफ अँधेरा है बस एक नीली स्पोट लाईट का प्रकाश मंच पर बिखरा हुआ है.. बैकग्राउंड में अब वायलिन बजने लगी है..अक्सर ऐसे उदास पलो में हमें किसी ऐसी ही धुन के सहारे की जरुरत होती है.. इस धुन के साथ ही नायक का करूण  राग दर्शक दीर्घा में फैले अँधेरे को चीरता हुआ उनके भीतर उतरता जाता है.. 

नायक फिर से कहता है...
“ये कैसी विडम्बना है कि जब मैं गलत था तो सब मेरे साथ थे पर अब जब मैं सच का साथ देना चाहता हूँ तो कोई मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं.. क्यू इस दुनिया में गलत सही है और जो सही है वही गलत है.. क्यू सच्चाई और ईमानदारी मक्कारी के पैरो तले रौंदी जा रही है.. क्या सत्य का अंतिम समय आ चुका है? क्या आने वाली नस्लों को नहीं नज़र आएगा सच? जैसे हमारे पास डायनोसोर के सिर्फ किस्से है वैसे ही किस्से उनके हिस्से में होंगे सच के?” उसकी आँखों में आंसू ठहरे हुए है.. अभी गालो तक नहीं पहुंचे, लेकिन पहुंचेगे ज़रूर.. थियेटर में सारा खेल ही टाईमिंग का है, “तो क्या मैं भी चल पडू उसी राह में कि जिसकी मंजिल सिवाय झूठ और पाखण्ड के कुछ भी नहीं?”

दर्शक स्तब्ध बैठे है.. किसी का फोन वायब्रेट हो रहा है पर उससे कुछ ख़ास फर्क नहीं पड रहा किसी को. दो रक्तरंजित आँखो में सैकड़ो आँखे झाँक रही है.. ऐसा लग रहा है अब खून बह उठेगा इनसे.. मगर नहीं, “क्या कोई है जो दे सके मुझे दिलासा? अरे इतना ही कह दो कि मैं तुम्हारे साथ हूँ.. बाद में चाहे धोखा दे देना.. पर एक बार इतना तो कह दो कि मैं साथ हूँ.. डूबते को तिनके का सहारा ही तो चाहिए.. दे सको तो दे दो इतना वरना पूरी दुनिया तुम रख लो.. मैं लात मारता हूँ इस दुनिया को.. जो सिर्फ तब चिल्लाती है जब लात उसके पिछवाड़े पर पड़ती है.. नहीं रहना मुझे ऐसी दुनिया में.. मैं अपनी दुनिया खुद बसाऊंगा.. अपने नियम.. अपनी ख़ुशी के लिए.. और तुम्म!! हाँ हाँ तुम कायर लोगो को फटकने तक ना दूंगा अपनी दुनिया के आस पास भी कि मैं जानता हूँ गर तुम्हारे कदम पड़े उस ज़मी पर तो तुम उसे भी अपनी तरह बना दोगे.. क्योंकि मैं जानता हूँ खुदा ने सिर्फ जन्नत बनायीं थी दोज़ख की ईजाद तो तुम लोगो ने की...” और वो मुंह फेर लेता है दर्शको से

दर्शक खड़े होकर तालिया बजाते है.. मंच पर प्रकाश कम हो जाता है.. अभिनेता के चेहरे पर विजयी भाव है.. वो चाहता है कि जल्द से जल्द उसका नाम पुकारा जाए और वो मंच पे जाकर सबका शुक्रिया अदा करे.. जैसे ही उसका नाम पुकारा जाता है वो मंच पर पहुँचता है लेकिन नाशुक्रे लोग उठ उठ कर चल दिए है.. कुछ है जो फोन पर बात कर रहे है.. कुछ आगे वाली सीट के नीचे खिसक गए अपने जूते ढूंढ रहे है.. इन सबमें भी जो चेहरे मंच की तरफ है उनको देखकर वो खुश हो रहा है.. ये उसका मैडल है.. और जवाब भी कि अभी वो वक़्त नहीं आया है कि उसे अपनी दुनिया बनानी पड़े.. पर्दा गिर रहा है..!!