बीन बैग में अगर जुबान होती तो वो ज़रूर कहता कि इस बैडोल हो चुके शरीर को अब उठा क्यों नहीं लेती.. लेकिन ये भी खामोश है.. शाम उर्दू की एक किताब पढ़ते हुए मैं इस पर आ बैठी थी.. अभी रात के दो बजे जब दोबारा चाय की तलब हुई तो ख्याल आया कि रात का खाना पका हुआ ही रह गया.. वैसे भी जली हुई दाल और अधपके चावल खाने में कुछ भी अच्छा नहीं था.. बिना मन से बने खाने में जायका नहीं होता.. चाय बनाकर पांचवे और लास्ट कप में चाय डालकर फिर से बीन बैग पर जा बैठती हूँ.. मेरे पास पांच कप है.. और जब तक पांचो में चाय नहीं पी ली जाए वो धुलते नहीं.. अब किताब पढने का मन नहीं है.. दरअसल मन शाम से ही कुछ ठीक नहीं ऊपर से माँ का शादी के लिए बार बार फोन करना.. सिर्फ इसलिए कि मेरी उम्र बीत रही है, किसी से भी शादी कर लेना कहाँ तक जायज है.. मैं खुद को समझाती हूँ..
मोबाईल उठाकर कोंटेक्ट लिस्ट को छान मारा एक भी नंबर ऐसा नहीं जिस पर कॉल किया जा सके.. कुंवारे लडको से बात करने पर सिवाय फ्लर्ट के और कुछ नहीं मिलता.. ऐसा नहीं है कि मैं समझती नहीं पर अच्छा लगता है.. मेल फ्रेंड्स ज्यादा हो गए है अब मेरे.. जो लडकिया थी उन सबकी तो शादिया हो गयी.. एक दो बार फोन लगाया भी तो पीछे से उनके हसबैंड का बार बार फोन रखने की आवाज़ सुनकर दोबारा मन ही नहीं किया कॉल करने का.. लोग घर पर बुलाने से भी डरते है.. मेरी एक सहेली की सास को लगता है कि मेरा कैरेक्टर ठीक नहीं है इसलिए मेरी शादी नहीं हुई.. बुल शीट.!
पर कभी कभी जब मेरी कॉलेज की वो सहेलिया घर आती है जिनकी शादी हो चुकी है.. तो ये सोचकर बड़ा अच्छा लगता है कि पहले जब वो आती थी तो अपने पति अपने ससुराल की बाते करती थी.. पर अब यहाँ आकर वो कहती है काश ऐसी लाईफ हम भी जी सकती.. मुझे क्यों ऐसा लगता है जैसे कुछ भी हमेशा नहीं रहने वाला.. ना शादी ना अकेलापन.. रहेंगे तो बस हम..
इस अकेलेपन से प्यार हो जाने के बाद भी कई बार किसी की जरुरत सी महसूस होती है.. लैम्प पोस्ट की पीली रौशनी खिड़की से कमरे में बिखर रही है.. चादर में सिलवटे कुछ बढ़ गयी है...दिवार पर मार्लिन मुनरो अपनी स्कर्ट उठाये खडी है.. उसके ठीक सामने बिना शर्ट के जॉन अब्राहम.. मैं अपनी आँखे बंद कर लेती हूँ.... मेरा हाथ कमर के नीचे जाता है.. बस कुछ और सालो की बात है.. उसके बाद इसकी भी जरुरत नहीं होगी.. आखिर ज़िन्दगी में और भी रंग है खुदको रंगने के लिए..
एक नया विषय लिया है इस बार तुमने....और काफी हद तक एक ऐसी बड़ी उम्र की महिला...जिसकी शादी नहीं हुई है , उसके मन की उथल पुथल को समझा सके हो! पर मुझे लगता है...इस कहानी को थोडा और लम्बा करते तो और बेहतर बन पड़ती! वैसे मैं भी पर्सनली यही मानती हूँ...जिंदगी में बहुत सारे रंग हैं...बस जिस पर मन आ जाये उठाकर रंग लो अपना कैनवास!
ReplyDeleteएक नया विषय लिया है इस बार तुमने....और काफी हद तक एक ऐसी बड़ी उम्र की महिला...जिसकी शादी नहीं हुई है , उसके मन की उथल पुथल को समझा सके हो! पर मुझे लगता है...इस कहानी को थोडा और लम्बा करते तो और बेहतर बन पड़ती! वैसे मैं भी पर्सनली यही मानती हूँ...जिंदगी में बहुत सारे रंग हैं...बस जिस पर मन आ जाये उठाकर रंग लो अपना कैनवास!
ReplyDeleteसोसाइटी आजकल इतनी शार्प हो चुकी है करेक्टर की पहचान तुरन्त करती है .
ReplyDeleteकई रंगो से भरी कहानी .
पिम्पल फ़ूटने के बाद ऎसा तो लिखना ही पडेगा समय जो बहुत हो गया:-)
अपने अविवाहित मित्रों को देखकर लगता है कि कितने प्रसन्न हैं वे।
ReplyDeleteबस कुछ और सालो की बात है.. उसके बाद इसकी भी जरुरत नहीं होगी.. आखिर ज़िन्दगी में और भी रंग है खुदको रंगने के लिए..
ReplyDeleteसही एहसास हैं.
...अच्छा लगा।
ReplyDeleteमेरे पास पांच कप है.. और जब तक पांचो में चाय नहीं पी ली जाए वो धुलते नहीं..... :)
ReplyDeleteपर अब यहाँ आकर वो कहती है काश ऐसी लाईफ हम भी जी सकती....yup, that i'll have to agree with
bohot khoobsurat post hai sir....sach hai bilkul, kuch bhi hamesha nahin rehta, na shaadi, na akelapan, bas ham....
बढ़िया लगा...
ReplyDeleteअच्छा लेख
ReplyDeletetabhi to.....abhi kai aur rang badlenge......bhai
ReplyDeletekush....apni soch ke kanvas jaise honge....rang utne aayamon ko chhoo kar niklenge.....
fantastic......
कुछ भी स्थिर नही है और यही सच है मगर फिर भी चाहते सिर उठाती ही हैं…………यही मानव की त्रासदी है इसीलिये एक साथी की जरूरत होती है कोई हो अपना सा ………फिर चाहे उसके साथ अच्छी गुजरे या नही………कहीं भी चैन नही होता।
ReplyDeleteअविवाहित लोगों के साथ अकेलापन क्यों जोड़ा जाता है ?
ReplyDeleteवो भी उतने ही सामजिक खुशमिजाजा हो सकते है जितना कोई अन्य
एक दो रंगों को छोड़ उनके जीवन में भी वही रंग होते है जितना किसी और के |
शानदार, एक दुखती रग/राग, भोर का दुख, सांझ का दुःख और सालता दुःख......
ReplyDeleteगोया यह तो सोचालय हो गया... थोडा और होता पर यह तो सोचालय हो गया
manav man ki mrug-marichika ka sundar chitran, kush ji
ReplyDeleteभैया इतने-इतने दिनों बाद लिखोगे और वह भी इतना-इतना सा? कैसे चलेगा? :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, आभार,
ReplyDeleteअरविन्द जांगिड,
सीकर.
सोचा था पढ़ के आगे बढ़ जाऊँगी बिना कमेंट किये। वही सब लिखा होगा ... रूमानियत के छोटे छोटे क्षण, जिनपे तुम्हारी अच्छी पकड़ है और पिछली कई पोस्ट इन्ही पे थी... और वो पढ़ने का मन नहि था आज...!!
ReplyDeleteलेकिन जब पढ़ा तो वो लिखा था, जो पढ़ने का मन था। पल्लवी जी के कुछ शब्द हू ब हू उधार ले लेती हूँ
एक नया विषय लिया है इस बार तुमने....और काफी हद तक एक ऐसी बड़ी उम्र की महिला...जिसकी शादी नहीं हुई है , उसके मन की उथल पुथल को समझा सके हो
भइये अब शादी कर ही डालो वर्ना इस तरह की कहानिया लिखते लिखते कहीं मंटो न बन जाओ...
ReplyDeleteनीरज
विषय जल्दी में समेट दिया ...कुश वाली बात नहीं लगी .
ReplyDeleteमुझे क्यों ऐसा लगता है जैसे कुछ भी हमेशा नहीं रहने वाला.. ना शादी ना अकेलापन.. रहेंगे तो बस हम.
ReplyDeleteकाफी संक्षिप्त सा लेख है मगर "आज की कहानी" है ..
आज की कशमकश है और
"आज की महिला है"
@कुंवारे लडको से बात करने पर सिवाय फ्लर्ट के और कुछ नहीं मिलता..
ReplyDelete.
ReplyDelete
ReplyDeleteअपने अकेलेपन को स्वीकार करने और खुद को दिलासा दिये जाने का बेहतरीन प्रतीकात्मक चित्रण !
पल्लवी से शत प्रतिशत सहमत, इस पोस्ट को थोड़ा विस्तार देकर इसमें नये आयाम भरे जा सकते थे ।
:) न जाने क्यों, हाथ कमर के नीचे जाते ही तुमने आगे लिखने की ज़रूरत क्यों न समझी ?
;)
neeraj ji ki baat kabile gaur hai :)
ReplyDeletekalam ke saath,jindagi pe pakad bhi jaruri hai :)
‘कुंवारे लडको से बात करने पर सिवाय फ्लर्ट के और कुछ नहीं मिलता..’
ReplyDeleteबेचारे बेरोज़गार जो हैं :)
बहुत सुंदर विषय ...अच्छा प्रस्तुतीकरण..... सच में अकेलापन चुना हुआ भी हो सकता है..... और खुशियों से भरा भी....
ReplyDeleteसुन्दर है।
ReplyDeleteकुंवारे लडको से बात करने पर सिवाय फ्लर्ट के और कुछ नहीं मिलता
पर कोई कुंवारा मानहानि का मुकदमा न ठोंक दे!
कुश भाई .. बहुत अलग विषय चुना है आपने ...यह अलग होने के साथ साथ बहुत प्रासंगिक भी लगा मुझको ... प्रासंगिक इसलिए कि बदलते हुए समय में ...तेज भागते हुए समय ..किसी को शादी के लिए समय नहीं मिल पाता और जब मिलता है तो लगता है कि देर हो गयी ... अभी अभी एक फिल्म आई थी टर्निंग ३० .. देखि नहीं मैंने ... पर हाँ वो उम्र इस ३० बरस की उम्र की ही आस पास की होगी जब ऐसे ख्याल दिमाग में आते होंगे ... अच्छी लगी पोस्ट आपकी
ReplyDeleteदेख रहा हूँ कंप्यूटर अपनी बंदिशे छोड़ने लगा है ......बगावती तेवर है ....रंगों की कई किस्मे है ...कौन सा ब्रश हाथ में आया....किस मूड में ...
ReplyDeletebahut hi bhawpoorn prastuti.
ReplyDeleteभले बहुत विस्तार नहीं दिया है..पर मनोभावों को पकड़ा तुमने काफी अच्छी तरह है....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्लाट...इसको विस्तार दे बहुत सुन्दर कहानी/उपन्यास या नाटक रच सकते हो तुम...
वैसे फ़ीमेल वॉइस बना कर बोल कौन रहा है..हमें भी पता चले..!..मगर सीरियसली अच्छी पोस्ट..सोचने लायक..रात के एकांत जैसी..धीरे-धीरे बहती..पहला पैराग्राफ़ जैसे खालिस अपन जैसों के ही लिये लिखा गया हो..और चाय के पांच कपों का अकेलापन..जिनका नंबर बारी-बारी से आता है..पोस्ट विस्तार तो पक्का मांगती है..
ReplyDelete..और हाँ लगे हाथ हमारा नंबर ही दे दिये होते उधर..बहुत टाइम रहता है परोपकार करने को अपने पास..और इरादे भी :-)
रंग बहुत बिंदास होते जा रहे हैं, आजकल हवा का रूख काफी बदला सा है...लेकिन फिर भी तुम्हारा ब्लाग पर लौटना अच्छा लगा। तुम लिखते हमेशा ही अच्छा हो लेकिन हर बार एक नया एंगल देते हो
ReplyDeleteज़िन्दगी में और भी रंग है खुदको रंगने के लिए..
ReplyDeleteबात तो आपका सही है। दिलचस्प लिखा है।
अच्छा लगा । समाज मे हर क्यारेक्टर की साइकालोजी एक दुसरे से भिन्न रहना ही है । सर्टकट पर पठनीय ।
ReplyDeletebahut badhiya ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर| आभार|
ReplyDeletenice description of a women's emotion...yeah...aur bhi rang hai khud ko rangne ke liye...lekin pyaar ke rang jaisa aur koi nahi..:)
ReplyDeleteहर कोई अकेला है यहाँ ...
ReplyDeleteकमर के नीचे हाथ जाना जरूर एक नयी चीज़ है | क्या इसी को लेख की मुख्य विशेषता रेखांकित करके लिखने का प्रयास किया गया था ...