Friday, June 22, 2007

"सोचता हू तुझे इक नाम क हू"

क्या लिखू तेरे लिए

हर शब्द तड़पता है
तेरी तारीफ़ में समानेके लिए

तुझे ज़िंदगी कह दु तो चलेगा
या फिर दूसरा कोई नाम हू..

सुबह की लालीमा कह दु या फिर
ख़ुशनुमा कोई शाम हू..

तुझे दरिया का पानी कह दु..
दादी की कहानी कह दु...

कह दु तुझे खिलता फूल कोई
या फिर इश्क़ की निशानी कह दु,

एक कशमकश में फंस चुका हू..
तुझे पल भर का आराम हू,

चाँद की चाँदनी कह के देख लेता हू..
या फिर छलकता जाम हू..

निगाओ की महकशी कह देता हू तुझे..
या फिर मुहब्बत का पैगाम हू..

तुझे कह दु मुस्कुराहट बचपन की..
या ..किसी नमाज़ी का ईमान हू..

कह देता हू तुझे मंगला आरती
या फिर सुबह की अज़ान हू

देखती है दो निगाए तुझे प्यार से..
उन निगाओ की तुझे जान हू..

लब शर्म से रुक जाते है जब
सोचता हू तुझे एक नाम हू

3 comments:

वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..