
सुबह की लालीमा, छाई है मुझ पर
पर ढल गयी है रात,
ये कह नही सकता
होंठ सील दिए याद मिटा दी
पर भूल गया हर बात,
ये कह नही सकता
आँसू तो रुक गये दिल हुआ पत्थर
पर भूल गया जज़्बात
ये कह नही सकता
हाथ मेरे तो अब भी खुले है
पर मिल जाए कोई साथ
ये कह नही सकता
चारदीवारी बना दी, दिल के चारो ओर
पर ना हो कोई वारदात
ये कह नही सकता
सब अपने से लगते, इस भीड़ में सारे
लगाके कौन बैठा घात
ये कह नही सकता
मायूस सी कलम देखती मुझे
भर जाए फिर दवात
ये कह नही सकता
लिखना तो बहुत है इस मंच पे आकर
पर क्या है मेरी औकात
ये कह नही सकता....
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हाथ मेरे तो अब भी खुले है
ReplyDeleteपर मिल जाए कोई साथ
ये कह नही सकता
अब हमारे कहने को कुछ छोडा नहीं है आपने
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सब अपने से लगते, इस भीड़ में सारे
ReplyDeleteलगाके कौन बैठा घात
ये कह नही सकता
बहुत खूब कुश जी सही लिखा आपने ..
बात सिले हुए होठों की हो या सीले हुए होठों की
ReplyDeleteबात तो है कुछ
जिसे कह नहीं सकता
सब अपने से लगते, इस भीड़ में सारे
ReplyDeleteलगाके कौन बैठा घात
ये कह नही सकता
bahut khoob
बेहतरीन! बहुत खूब.
ReplyDeleteहाथ मेरे तो अब भी खुले है
ReplyDeleteपर मिल जाए कोई साथ
ये कह नही सकता
hame bhool gaye thakur....?
आँसू तो रुक गये दिल हुआ पत्थर
ReplyDeleteपर भूल गया जज़्बात
ये कह नही सकता
bahut hi sundar,badjai
चारदीवारी बना दी, दिल के चारो ओर
ReplyDeleteपर ना हो कोई वारदात
ये कह नही सकता
sunder khayaal hein.badhaayee.
हाथ मेरे तो अब भी खुले है
ReplyDeleteपर मिल जाए कोई साथ
ये कह नही सकता
waah...bahut umda. beautiful..
सुंदर प्रयास..पहले छंद में पर की जगह अगर 'या 'कर दें तो कैसा रहे?
ReplyDeleteसुबह की लालिमा, छाई है मुझ पर
या ढल गयी है रात,
आप सभी की स्नेहिल प्रतिक्रियाओ का धन्यवाद..
ReplyDelete@मनीष जी
आपका सुझाव सर आँखो पर..
इसी तरह हौंसला बढ़ाते रहे
आभार
कुश
bahot dino baad....tumhara likha hua kuch padhne ko mila.....iske liye to aapko THANKS kahna padega......mast hai...hamesha ki tarha...aur jara hatkar bhi...:)
ReplyDeletewah!
ReplyDeletebahut khubsurat
आँसू तो रुक गये दिल हुआ पत्थर
ReplyDeleteपर भूल गया जज़्बात
ये कह नही सकता
wah! wah!
poori rachna hi achchee hai........