Thursday, April 23, 2009

ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है..

तारीख १३ अक्टूबर २००५ समय शामबजे
मैंने पापा के कमरे में जाकर कहा जयपुर जा रहा हूँ.. अब वही जॉब करूँगा..
पापा ने पुछा कब ?
मैंने कहा अभी .३० बजे की ट्रेन है..

मेरे दोस्त मुझे छोड़ने आये थे ट्रेन चल चुकी थी मैं अपने दोस्तों के साथ भाग रहा था प्लेटफोर्म पर.. वो ट्रेन एक स्टेबिलिटी थी.. आखिर पकड़ में ही गयी.. शहर बदला.. लोग बदले.. माहौल बदला.. मुझे लगा अब कुछ बदलेगा.. और बदला भी..


अब देर रात जब घर आता हूँ तो जूते पहने हुए ही आता हूँ.. पहले तो गेट के बाहर जूते उतार कर धीरे धीरे दरवाजा खोलकर अन्दर आता था जैसे ही अन्दर घुसता.. मम्मी की आवाज़ आती.. गया तू .. इतनी देर कहाँ लगायी? अब तक का रिकोर्ड है मम्मी का, कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरे आने से पहले मम्मी सोयी हो.. इतने कम डेसिबल की आवाज़ सुनने की खूबी प्रक्रति ने सिर्फ मांओं को ही दी है..


मेरी आदत थी रात को गाने सुनते हुए सोता था.. मैं गाने चलाकर छोड़ देता था सुबह मुझे म्यूजिक सिस्टम ऑफ़ मिलता.. आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि सुबह उठने के बाद मुझे म्यूजिक सिस्टम बंद करना पड़े.. अब रात को टी वी चलाते ही सबसे पहले उसमे टाइमर लगाता हूँ.. कहते है बच्चे घर को रौशन रखते है क्योंकि वो घर की बत्तिया बुझाना भूल जाते है..


ये सब्जी मुझे अच्छी नहीं लगती मैं नहीं खाऊँगा.. और मम्मी दूसरी सब्जी बना देती थी.. और अब अगर चावल कच्चे भी हो तो मैं खा लेता हूँ सोचता हु इतनी गर्मी में दोबोरा कौन एक सी टी और लगायेगा.. झंकार बीट्स फ़िल्म का एक डायलोग है... ' दुनिया गोल है और हर पाप का एक डबल रोल है '


मम्मी के खाना बनाते वक़्त मैंने कभी मम्मी के सर पर जमी पसीने की बूंदों पर गौर नहीं किया.. सोचता हूँ कितनी बार मैंने कहा होगा खाना अच्छा नहीं बना.. कितनी बार मैंने थाली में खाना छोडा होगा.. अब मम्मी तो खाना बनाती नहीं है पर जब भी घर जाता हूँ भाभी के बनाये खाने की जम कर तारीफ़ करता हूँ.. मैं उनके लिए इतना तो कर ही सकता हूँ..


बहुत कुछ बदल गया है आस पास की जिन लड़कियों के साथ बचपन में खेलते थे अब उनसे बात करना तो दूर सामने देख पाना भी नहीं होता.. सो कोल्ड सोशल वेल्यु की गर्माहट दोस्ती को पिघला देती है..


और भी तो बहुत कुछ बदला है.. अब बरसातो में बाईक उठाकर झरनों पर नहीं जाते... अब रात को प्लान बनाकर सुबह शहर से बाहर घूमने नहीं जाते.. अब सब पैसे इकट्ठे करके क्रिकेट की बोंल नहीं लेकर आते.. अब दोस्तों से गानों की केसेट्स और कोमिक्स एक्सचेंज नहीं की जाती.. अब चाय की थडी पर दो की तीन नही होती...


अब सचिन के सिक्सर पर दोस्त लोग एक साथ उछलते नहीं है.. अब होसटलर्स दोस्तों के कमरों में गर्ल फ्रेंड्स के दिए गिफ्ट नहीं रखे जाते.. अब दोस्तों के लिए होकीया नहीं निकाली जाती.. अब गली की सबसे खडूस आंटी से बोंल के लिए झगडा नहीं होता है.. अब एक ही दोस्त का साल में तीन बार बर्थडे नहीं होता.. अब कोई ' तेरी भाभी है ' नहीं बोलता.. अब तीन बार फोन की घंटी बजना कोडवर्ड नहीं होता.. अब केल्शियम का एटोमिक नंबर याद करने में रात नहीं गुजारनी पड़ती है..

बहुत कुछ तो है जो अब नही होता..


अनुराग जी से स्टाइल उधार लेते हुए एक त्रिवेणी..


"ख़ुशी का, खुमार का, थोड़े से प्यार का
एक एक कर सारे रंग छूट गये..

ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है.."

49 comments:

  1. जिन्दगी पुरानी जीन्स सही.. मगर आज इसका रिवाज है.. घुटनो से फ़ाड लीजिये. पौंचो से धागे निकाल लीजिये.. नई हो जायेगी..

    आपकी कहानी पढ कर गजल का एक शेर याद आ गया.

    जिन्दगी जिसे कहते हैं.. जादू का खिलौना है
    मिल जाये तो माटी है... खो जाये तो सोना है

    अच्छी कहानी और अच्छी त्रिवेणी पढवाने के लिये आभार

    ReplyDelete
  2. "ख़ुशी का, खुमार का, थोड़े से प्यार का
    एक एक कर सारे रंग छूट गये..

    ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है.."

    वाह............कितनी बातें, कितनी रातें, और कितने एहसास समय की चादर उघाड़ कर याद करा दिए आपकी इस कहानी ने..................समय वाकई किसी पुरानी जीन की तरह औ भी अच्छा लगता है

    ReplyDelete
  3. और जींस जितनी पुरानी और उधडी हो उतनी ही सेक्सी [?] लगती है .

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. अब तक का रिकोर्ड है मम्मी का, कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरे आने से पहले मम्मी सोयी हो.. इतने कम डेसिबल की आवाज़ सुनने की खूबी प्रक्रति ने सिर्फ मांओं को ही दी है..

    बहुत ही लाजवाब पोस्ट. लगता है जैसे हमको बचपन मे पहुंचा दिया...या..हमे अपने बच्चों का बचपन याद दिला दिया...बस क्या कहूं इस पोस्ट के लिये. तारीफ़ के लिये शब्द नही हैं. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  6. कितनी भी सेक्सी हो... हम तो इस पुरानी जींस को देखकर सेंटी हो गए ! इतना सेंटी नहीं मारा करते आँखे नम हो जाती हैं.

    ReplyDelete
  7. हमें तो पुरानी जींस पहनने का शौंक है भाई.....इसलिए तो कई बार उस गली मोहल्ले में भी झांक आते है ....सोचो ऐसा ही कोई "बचपन का प्यार "अचानक अपने दो बच्चो के साथ आपको दिखाने आ जाये तो ..

    वैसे मुझे कल पोस्ट करना था पर फुर्सत देर से हुई......

    ReplyDelete
  8. कुछ बातें अभी भी उस बंद कमरें में बिस्तर के दरमियाँ पड़ी हैं ....जो तकिया लगाये फ़ोन पर किया करते थे कभी .....चन्द मुलाकातें जहाँ में बसी हैं जो मिलकर आये थे कभी .....

    हाँ यही तो है जीवन ....यादें याद आती हैं .....कभी पुराणी जींस बनकर तो कभी कोई और रूप लेकर

    ReplyDelete
  9. खाने का महत्‍व तभी समझ में आ सकता है जब वह हमें मिलना बंद हो जाए। मां लगातार इतना अच्‍छा खाना खिलाती रहती है कि हमें लगता है यह तो हमारा नैसर्गिक अधिकार है। जब एक दिन वे नहीं बनाती तो समझ में आता है कि कुछ छूट गया है पीछे।

    ReplyDelete
  10. शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जो आपकी पोस्ट को पढ़ कर अपने अतीत में न पहुँचा हो, बहूत दर्द होता है जब ये सब यादे आती हैं, आपने तो बीती हुई जिंदगी का कोई भी पन्ना नही छोड़ा.........बहूत ही मार्मिक पोस्ट है, धन्यवाद ..( अशोक, सौदिअरब से)

    ReplyDelete
  11. "ख़ुशी का, खुमार का, थोड़े से प्यार का
    एक एक कर सारे रंग छूट गये..

    ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है.."

    बहुत खूबसूरत त्रिवेणी!
    बहुत कुछ समय के साथ बदल जाता है..फिर भी छोड़ आये हम वो गलियां 'कह देने से कुछ छूटता नहीं है..
    यादें उन सब से जोड़े रखती ही हैं.


    और हाँ ,फ्लोरेस्सेंट galaxi मैं ले आऊंगी आप के लिए गिफ्ट में...:)

    ReplyDelete
  12. वाह कुश भाई तुसी छा गए।
    अब कोई कोड वर्ड में लव लेटर नही लिखता है। अब कोई साईकिल से रेस नही लगाता। अब कोई गिल्ली डडा नही खेलता। अब कोई कंच्चे नही खेलता। अब कोई आइस पाईस नही खेलता...........
    कुश भाई दिल खुश हो गया। वैसे अनुराग जी भी सही फरमा रहे है। कुश भाई पुराने दिन इतने प्यारे क्यों होते है?

    ReplyDelete
  13. वक्त का वो टुकडा हर किसी की जिंदगी में ऐसा ही होता होगा न ..

    ReplyDelete
  14. सुंदर यादें पुराने दिनों की .. बहुत बढिया लिखा ।

    ReplyDelete
  15. पुरानी जींस और गिटार तो सुबह से मैं गुनगुना रही थी और लिख दिए वो पल कुश जी आपने :) कुछ चीजो को अहमियत बाद में पता चलती है और उस में सबसे पहले माँ का लाड -दुलार और ख्याल ही आता है ..मैं भी अपनी दोनों पुत्रियों को यही ज्ञान बांटती रहती हूँ ...कि माँ की अहमियत बाद में पता चलेगी तुम्हे :) खैर यादे यही तो सुहानी है जी .जो यूँ गिटार के तारों सी झनझना जाती है जहन को ....वैसे तुम्हारी इस पोस्ट का ओरा यह कह रहा है कि तुम्हे घर की बहुत याद सता रही है .:)

    ReplyDelete
  16. uff....kya likha hai kush, kuch vaakaye sabki jindagi me ek se hi aate hain, aur shayad kuch hi palon ke liye bhi.
    triveni behad pasand aayi mujhe, mang kar rakh lene ko jee chaahta hai.

    ReplyDelete
  17. "ख़ुशी का, खुमार का, थोड़े से प्यार का
    एक एक कर सारे रंग छूट गये..

    ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है.."

    बहुत खूब.. बहुत अच्छा लिखा आपने

    ReplyDelete
  18. बचपन में मैं पड़ोस की छोटी-सी मार्केट में विडियो गेम की दुकान पर जाकर घंटों खड़ा रहता था - स्क्रीन पर तरह-तरह के रंग, और तरह-तरह की आवाजें निकलतीं थीं। पूरा दिन कैसे बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। लेकिन आज कंप्यूटर पर हर तरह के नये-नवेले गेम्स आ गये हैं, थोड़ा-बहुत खेलता भी हूँ, लेकिन वो बात नहीं!

    ReplyDelete
  19. अतीत की इतनी मीठी यादें लिख डाली...
    लेकिन वह सब अब क्यो नही होता.... इस का जवाब भी आपके पास है... कभी फुर्सत मे वह लिखिएगा..

    ReplyDelete
  20. बहुत बढिया पोस्ट।बहुत अच्छी लगी।

    ReplyDelete
  21. लड़कपन का वो पहला प्यार
    वो लिखना हाथों पे
    A + R
    वो खिड़की से झांकना
    वो लिखना लेटर
    उन्हें बार बार
    वो देना तोहफे में
    सोने की बालियाँ
    वो लेना दोस्तों से
    पैसे उधार........


    पुरानी यादें ताजा कर दी आपने

    ReplyDelete
  22. रुमाल पास में न था। कुर्ते की बांहों का प्रयोग करना पड़ा आंखों की नमी पोंछने को।

    ReplyDelete
  23. बहुत ही लाजवाब पोस्ट. लगता है जैसे हमको बचपन मे पहुंचा दिया...या..हमे अपने बच्चों का बचपन याद दिला दिया...बस क्या कहूं इस पोस्ट के लिये. तारीफ़ के लिये शब्द नही हैं. बहुत शुभकामनाएं.

    हमारा भी सूर ताऊ के सूर् के साथ !

    ReplyDelete
  24. सुन्दर पोस्ट! आनन्दित हुये पढ़कर!

    ReplyDelete
  25. वाह कुश जी अद्भुत पोस्ट ,वाकई मैं भी सुबह सुबह जब रियाज़ को बैठती थी,माँ सुबह का नाश्ता फिर खाना मुझे मेरे संगीत कक्ष में ही दे जाती,पता था की मैं वहा से नहीं उठने वाली,आज भी जब रियाज़ करने बैठती हूँ तब जब खुद को खाना बनाने के लिए उठाना पड़ता हैं माँ की बहुत याद आती हैं ,उसके हाथ की गर्म गर्म रोटियों की सुगंध आज भी मुझे मेरे घर के संगीत कक्ष में भी आती हैं और आँखे अनायास ही भर आती हैं ,तब पहला फोन होता हैं माँ तुम्हारी याद आ रही हैं .

    इस अच्छी सी पोस्ट के लिए आपको बधाई और आभार

    ReplyDelete
  26. luvly post

    जिन्दगी जिसे कहते हैं.. जादू का खिलौना है
    मिल जाये तो माटी है... खो जाये तो सोना है

    sach chizein pas to to unki koi kadra nahi aur door jate hi sabse kimti..

    ReplyDelete
  27. बहुत सुन्दर.... बहुत कुछ याद दिला दिया आपने ...

    ReplyDelete
  28. bahut hi khubasoorati se likha hai...
    ghar se bahar rah kar mere anubhav bhi aapse hi hai...

    ReplyDelete
  29. यार, तुम्हारा पोस्ट पढ़ने में एक ही दिक्कत है. तुम इमोशनल कर देते हो.

    ReplyDelete
  30. क्या कहूँ? ये सिर्फ एक पोस्ट नहीं है कुश. केवल पोस्ट होती तो बधाई दे देता.

    ReplyDelete
  31. जब जिंदगी का रोमांच खत्‍म हो जाए, तो ऐसा ही लगता है।

    -----------
    TSALIIM
    SBAI

    ReplyDelete
  32. बहुत तसल्ली से दिल में आते जाते भावों को शब्दों का जामा पहनाया है..बहुत पसंअ आया:

    ख़ुशी का, खुमार का, थोड़े से प्यार का
    एक एक कर सारे रंग छूट गये..

    ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है.."


    -त्रिवेणी असरदार और धारदार है.

    बधाई.

    ReplyDelete
  33. isiliye kahti huun..ab shahnaayi bajvaao :))..post aur triveni bahut acchhi hai..:)

    ReplyDelete
  34. कुश ....क्या कहूँ बहुत देर से पढी आपकी ये पोस्ट ..अगर छूट जाती तब कितना अफसोस होता बता नहीँ सकती -
    आजकल नोआ जी मेरे पास हैँ :)
    ..
    समय कम पड रहा है
    और आज समय सार्थक हो गया !
    आपकी माँ को मेरे प्रणाम कहना
    और भाभी को तथा आपको स स्नेह, आशिष
    -लावण्या

    ReplyDelete
  35. बहुत अच्छी और सुंदर शब्दों में निरूपित .

    ReplyDelete
  36. तुम्हारा लिखा पढ़ लेने के बाद कुछ कहना बड़ा मुश्किल-सा हो जाता है। देखो ना, कैसे आप से तुम पर आ गया हूँ। इन शब्दों को आदत होती है रिश्ता बना लेने की...जैसे डायरी के पन्नों को आदत होती है जिंदगी को फिर-फिर से पुरानी जीन्स पहनाने की...

    ReplyDelete
  37. मुझे भी अपना बचपन, अपनी मां याद आ गयी।

    ReplyDelete
  38. कहते है न बच्चे घर को रौशन रखते है क्योंकि वो घर की बत्तिया बुझाना भूल जाते है..
    .
    कुश जी, क्या लिख मारा है!!! सच, जिन्दगी अब पुरानी जींस लगती है.

    ReplyDelete
  39. emotional kar rahe ho tum..???? gandi baat...!

    ReplyDelete
  40. माँ की ममता को कितने सहजता से उजागर कर दिया आपने
    आज वो सब कुछ कितना याद आता है (nostalgic )

    वैसे पुरानी जींस तो फैशन है शायद , नहीं क्या ??
    या आप बहुत पुरानी जींस की बात कर रहे हैं :))P
    Interesting !!!!

    ReplyDelete
  41. गुरु तुस्‍सी तो छा गए

    वैसे बचपन में लगता है कि जल्‍द बडे हो जाओ तो ये बंदिश खत्‍म हो


    और अब ये बडा बनकर लगता है कि काश बचपन ही रहता जिंदगी भर !!

    ReplyDelete
  42. बाते आपकी सही है , भाव सुन्दर है ! लेकिन जिन्दगी को देखने का यह अप्रोच अब पुराना हो गया है ! खैर , वैयक्तिक अनुभूतियों पर कोई प्रश्न नही उठा सकता लेकिन उन्मुक्त व जीवंत जीवन उम्र से ज्यादा व्यक्ति के चीजों के देखने के ढ़ग पर निर्भर करता है ! (अंतिम पैरा को विशेष रूप से ध्यान रख कर यह कह रहा हूँ !)

    ReplyDelete
  43. सच है वक्त के गुजर जाने पर हम उसे याद करने में बढ़िया वक्त गुजारते हैं..... कभी होंठ खुद ब खुद खिंच जाते हैं और कभी आंखें कुछ नमी सी महसूस करती हैं। जब-जब वो वक्त भिंची मुट्ठियों की अंगुलियों के बीच की दरारों से निकलता है तो यूं ही कहीं कनखियां बिखेरती है, स्याही - कलम, कम्प्यूटर की बोर्ड- स्क्रीन या अपनों के कहकहों के बीच। बढ़िया पोस्ट कुश।

    ReplyDelete
  44. पहले जैसा कुछ भी नहीं होता मगर यादें पीछा करती हैं
    सही फरमाया आपने....

    ReplyDelete
  45. kiski yaad aa rahi hai bhai!!!!!!!!!!!

    ReplyDelete
  46. ख़ुशी का, खुमार का, थोड़े से प्यार का
    एक एक कर सारे रंग छूट गये..

    ज़िंदगी अब पुरानी जीन्स लगती है.."

    bahut khoob Kush...nostalgia ka sundar samaa bandjha hai aapne....

    ReplyDelete
  47. देर से आया...माफ़ी...लेकिन कमबख्त तुमने पुराने दिन फिर से याद करवा दिए...
    नीरज

    ReplyDelete
  48. PD ने एक कविता बहुत पहले अपने ब्लोग पर लिखी थी...
    "वो अछूत सी लगने वाली सब्जी,
    भी अब खा लेता हूँ..
    रात में अब चावल से भी
    परहेज नहीं है..
    अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ..

    कोई अब पूछता नहीं,
    की कहाँ जा रहे हो..
    कोई अब पूछता नहीं
    की किससे मिल के आ रहे हो..
    अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ.."

    यही भाव इस लेख में भी आ रहे हैं... बहुत जीवंत चित्रण.. हम सभी के पास कुछ ऐसी यादें होती है... खुब..

    ReplyDelete

वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..