"थैंक्स "...मैंने कहा..
इट्स ओके ..
मुझे अजीब लगा पर वो मुझे देख रही थी.. ट्रेन में बहुत कम लोग थे और सब काफी दूर दूर बैठे थे.. जगह होने के बाद भी वो मेरे बगल में आकर बैठ गयी..
" कहा जा रहे हो.. ? " उसने पुछा..
मैं.. ! इन्द्रप्रस्थ..
और आप?
वहा तक जहा ये मेट्रो नहीं जाती..
मैं समझा नहीं..
समझदार लगते भी नहीं हो..
मतलब ?
देखा..! नहीं समझे न मतलब इसी लिए कहा था..
मैं समझ नहीं पा रहा था वो क्या कह रही थी.. मैंने अपनी आँखे फिर किताब में घुसा ली..
क्या करते हो? वो बोली..
जी मैं कॉल सेंटर में काम करता हूँ..
अरे मैं भी तो वही करती हु..
आप ?
हा ऑर क्या तुम कॉल बॉय हो और मैं कॉल गर्ल..
व्हाट?
मेरे बिलकुल करीब एक कॉल गर्ल बैठी थी.. उसे देखकर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगा था.. मुझे थोडी हिचकिचाहट हुई मैंने आस पास नज़र उठाकर देखा किसी की नज़र हमारी तरफ नहीं थी.. मैंने किताब बंद करके रख दी..
खुद को मुझसे कम्पेयर मत करो.. मैं तुम्हारी तरह नहीं हु..
क्यों ऐसा क्या अलग करते हो तुम? तुम्हारा क्या काम है ?
मैं फ़ोन पर, कस्टमर्स को होने वाली प्रोब्लम का सॉल्यूशन बताता हु..
तो मैं भी तो वही करती हूँ.. तुम्हारा काम भी ग्राहक को खुश रखना है और मेरा काम भी..
वेरी स्मार्ट..! लेकिन तुम जिसके लिए ये काम करती हो मैं उसके लिए नही करता..
मैं तो पैसे के लिए करती हूँ.. तुम किसके लिए करते हो?
मैं भी पैसो के लिए ही करता हूँ.. लेकिन...
लेकिन वेकिन क्या .. ही बताओ क्या फर्क है..
अरे कैसी बात कर रही हो .. हमारा काम सिस्टेमेटिक होता है.. हमारे टारगेट्स होते है जो हमें हमारा बॉस देता है.. हर महीने का एक टारगेट होता है..
अरे तो मैं तो यही करती हूँ.. तुम्हारा तो एक महीने का टारगेट है मुझे तो रोज़ का टार्गेट मिलता है.. ये जो मेरा पेट है ना रोज सुबह, इसको शाम तक भरने का टारगेट देता है.. मैं तो इसी के लिए काम करती हूँ.. यही मेरा बॉस है..
हुह.. मजाक अच्छा है ..
क्या करे.. मेरी लाइफ सबको मजाक ही लगती है..
नहीं मेरा वो मतलब नहीं था.. मैं समझ सकता हु दिल्ली जैसे शहर में कैसे सर्वाइव करते है.. मेरी शादी हो चुकी है पर अपना घर तक नहीं है... सच कहू तो हमारे जैसे लोगो का शादी करना आसान है पर घर.. घर बनाना बहुत मुश्किल.. तुमको नहीं लगता ?
बिल्कुल नही बल्कि हमारे जैसे लोगो के लिए घर बनाना आसान है पर शादी करना बहुत ही मुश्किल.. तुमको नहीं लगता ?
जिस तरह से जवाब दे रही थी.. मैं हैरत में था..
समझ सकता हूँ.... मेरी दोस्त बनोगी? मैंने कहा..
दोस्त ?
क्यों क्या हुआ?
पता नहीं.. पर इस वर्ड से कोई दोस्ती नहीं है मेरी.. दोस्त तो कई मिले पर सबको एक ही चीज़ चाहिए थी.. तुमको नहीं चाहिए ?
क्या?
या तो तुम बहुत बेवकूफ हो या फिर बहुत शातिर..!
अरे ये क्या बात हुई.. ठीक है मत बनो दोस्त..
नहीं नहीं ऐसा नहीं है.. चलो ठीक है दोस्ती पक्की..
ऑर उसने हाथ आगे बढाया.. उससे हाथ मिलाते ही एक अजीब सी सनसनी फ़ैल गयी.. अब तक तो ऐसी कोई फिलिंग थी नहीं पर उसका हाथ थामते ही एक अजीब सी बैचेनी होने लगी.. बहुत देर तक मैं चुप रहा.. बार बार हम दोनों की नज़रे एक दुसरे से मिल ही जाती थी..
अगला स्टेशन करोल बाग़ था.. गेट खुलते ही एक ठंडी हवा का झोंका अन्दर आया.. वो मेरे और करीब आ चुकी थी.. मैं नहीं जानता था मुझे क्या हो रहा है.. दो चार लोग और उतर गए थे..
कुछ बात है जो शायद तुम कह नहीं पा रहे हो.. वो बोली
न न नहीं ऐसी कोई बात नहीं..
अब जब दोस्त कह ही दिया है तो बोल दो..
सच में कुछ भी तो नहीं है..
जैसी तुम्हारी मर्ज़ी..
वो कैसे सब कुछ जानती थी थोडी ही देर में हम लोग उतरने वाले थे.. मैं कोशिश कर रहा था कि जितना जल्दी हो मैं उसे कह सकु..
वो मेरी तरफ मुडी और मैंने उससे कहा क्या तुम मेरे साथ....
उसका चेहरा थोडा बदल चुका था.. गले में एक हलचल देखी मैंने.. वो बोली
मगर तुमने तो मुझे दोस्त कहा था.. और तुम भी??
प्लीज मुझे गलत मत समझना.. तुमको देखकर एक ख्याल आया बस.. तुम न भी चाहो तो कोई बात नहीं हमारी दोस्ती ऐसी ही रहेगी..
तुम्हारी बीवी भी तो है घर पे ?
हाँ है मगर..
मगर क्या ?
तुम नहीं समझोगी.. जाने दो..
हुह.. मैं सब समझ समझती हूँ डियर.
नहीं तुम मुझे गलत समझ रही हो मैं सिर्फ तुम्हारा दोस्त हूँ और दोस्ती के रिश्ते से ही चाहता हूँ.. मेरे लिए तुम कोई कॉल गर्ल नहीं हो..
वाह.. क्या बात कही है.. अच्छे घर के लगते हो ?
थैंक्स.. !
हुह.. मैंने कहा न कुछ नहीं समझते हो..
वो सब छोडो तुम ये बताओ हाँ कि ना ? मैंने पुछा..
ठीक है.. अब जब दोस्त बोल ही दिया है तो ठीक है मगर एक बात याद रखना ये मैं पैसो के लिए नहीं कर रही हूँ..
जानता हूँ.. लेकिन कहाँ पर? ट्रेन में तो पोसिबल नहीं है..
ट्रेन नहीं डफर स्टेशन पर.. मंडी हाउस वाले स्टेशन पर..
उसके बाद जो कुछ हुआ वो तो तू जानता ही है.. और क्या बताऊ..
साले चैम्प तू नहीं सुधरेगा..तेरा रोज़ का है ये..
अबे सुधरने के लिए तो सारी ज़िन्दगी पड़ी है.. पर बिगड़ने की उम्र तो यही है.. देख ले आज ये निन्यानवे नंबर की थी.. बस इस शनिवार को सेंचुरी मार लेंगे..
तू भी साले पुरा कमीना है.. अच्छा ये बता उसका नंबर शम्बर लिया या नहीं कुछ हमारा भी भला कर देता..
नहीं यार उसने दिया नहीं.. पर मेरा नंबर उसने लिया है वो मुझे कर लेगी फोन..
बीप! बीप! बीप! बीप!
मेसेज आया लगता है..
देख तो कही उसी का तो नहीं..
देखता हु..
क्या हुआ बे.. क्या हुआ? कुछ बोलता क्यों नहीं? क्या लिखा है.. क्या हुआ?
" तुम्हारे साथ वाली कल की रात.. बहुत ही बढ़िया थी.. ठीक वैसी ही जैसे आज से सात महीने पहले इसी ट्रेन में मुझे एक दोस्त मिला था.. जिसने मेरी दोस्ती का ग़लत फायदा उठाया.. और मुझे ये बीमारी दी .. उसके बाद से कई बार यहाँ आई हूँ.. उसके जैसे और भी मिलते है.. तुम भी मिले.. पता है तुम निन्यानवे थे.. इस शनिवार को सेंचुरी हो जायेगी..."
ग्रेट! उम्र एक फ्रीडम देती है - इस तरह का शिकार न बनने की फ्रीडम! न इमोशनल, न फिजिकल!
ReplyDeleteक्या खूब लिखा है .
ReplyDeleteKya kahun??????????
ReplyDeleteसही ठेले हो.....वैसे ऐसे दो किस्से हुए है ,एक अहमदाबाद में जहाँ एक एक मोहतरमा को ऐड्स निकला..एक होस्टल में हलचल मच गयी.....ओर लोग लाइन लगाकर अपना टेस्ट करवाने को खड़े हो गए....
ReplyDeleteदूसरा मुज्ज़फर नगर के एक गाँव में....वहां भी पथोलोजी में वेटिंग रही.......
इसे कहते है .................. बम्ब !
tum 99ve ho... century ho jayegi...
ReplyDeletebahut khoob...
Superb bhai.. superb..
ReplyDeleteसच आपकी लेखनी का जवाब नही। बहुत खूब।
ReplyDeleteहूँ !
ReplyDeleteबुनावट अच्छी लगी
सच है यह भी आज का ...कोई किसी से कम नहीं ..शायद जानता हर कोई है पर फिर भी ..हो गयी सेंचुरी पूरी .सही में ...
ReplyDeletevery famous one liner " Jaise Ko Taisa"
ReplyDelete(tit for tat)
han yahan pe ye coincidence tha.
aur jahan tak gyandutt pandey ji ki tippani ka sawak hai sehmat hoon poori tarah pata nhai ye dialouge yahan pe relative hai ya nahi par gyan dutt ke comment se to hai,: "great powers comes with great responsibility. "
ReplyDelete:) :)
ReplyDeletebehtreen likha hai aapne
yae bahut popular kehani haen maene padh rakhi haen pehlae bhi kehaa yae yaad nahin aa rahaa par yae padhi hui haen kush yaa issae similar
ReplyDeleteI had read a similer Tex but in an a forwarded mail & it was in English
ReplyDeleteऐसा लगा मेट्रो मे इन दोनों के पास ही बैठा था . बहुत अच्छा शब्द चित्र उकेरा आपने .
ReplyDeleteमैने तो इसे यहीं पढ़ा है, और पहली बार ही पढ़ा है। आनन्द आ गया। अन्त तक पहुँच कर तो हक्का बक्का रह गया। टिप्पणियों को पढ़कर लगा कि अभी हम बच्चे ही हैं।
ReplyDeleteये है कुश का कमाल !! बहुत खूब लिखा है साहब !!
ReplyDeletejab khud par senchuri ki gaaj girti hai to yun hi bolti band ho jaati hai....
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी..... भौतिकता को बेधता कथानक... वाह.. धन्यवाद.
ReplyDeleteबहुत बढिया लिखा है\बधाई।
ReplyDeletewow !!! nice story..
ReplyDeleteदो बातें..
ReplyDelete१. तुम दिल्ली /द्वारका आये.. मेट्रो में बैठे.. खबर नही की???..:)
२. बहुत प्यारी कथा रची है, शुरु से आखिर तक बिना रुके पढ़ते गये..सरपट..
बहुत बढिया लिखा है ... अच्छा लगा पढना।
ReplyDeleteअपने जोरदार अंत से कहानी चिर स्मरणीय बन गयी ! मैं तो स्तब्ध रह गया ! कथा का सहज प्रवाह और मनोवैज्ञानिक निरूपण तो बहुतै लाजवाब है मास्टर कुश ! बलिहारी !
ReplyDeleteबहुत बढिया....
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट्।
ReplyDeleteजब मैं फ़िल्म बनाऊँगा तो निर्देशक आपको ही लूँगा ! ना मत कहना ! नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा !
ReplyDeleteआपको ब्लॉग-कथाकार कहना गलत न होगा। आपने युवा वर्ग और उसके बीमार मानसिकता को सही उकेरा है।
ReplyDeleteआपको ब्लॉग कथाकार कहना अनुचित न होगा। आपने युवा वर्ग की बीमार मानसिकता को सही उकेरा है।
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteअब समझ आया की नीरज जाट बोल रहा था उसने आपको मेट्रो मे बैठे देखा था. मैने कहा चल हट यार तूने किसी और को देख लिया होगा. अब मालूंम पडा कि उसको नाहक ही डांट पद गई.:)
ReplyDeleteरामराम.
भूल सुधार : पद = पड
ReplyDeleteआज के कड़वे सच को कहानी बनाकर बहुत अच्छी तरह पेश किया....शानदार !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया , निन्यानवे के चक्कर में बोल्ड हो गए .
ReplyDeleteहम्म्म्म तो ये है असली अप्रैल फूल...! इसे १ अप्रैल को क्यों नही पोस्ट किया भैये..!
ReplyDeleteमगर बात गंभीर है कुश जी। प्रतिकार ऐसा भी हो सकता है। कुछ बहुत अधिक काल्पनिक नही है।
अरे भाई, मेट्रो में????
ReplyDeleteये तो दिल्ली की हवा है, भगवान् करे मुझे ना लगे..
वेरी स्मार्ट मेट्रो में...बहुत बढिया लिखा है.
ReplyDelete
ReplyDeleteऊई माँ, यह तुमने लिखा हैऽऽऽ, कुश ?
जहाँ तहाँ चुप्पै से कचोटने वाली लाइनें बेहतरीन तरीके से पिरोने कामयाब रहे हो, दोस्त !
अब सच सच बता, यह सब किस नायाब कलम से लिखा है, जरा मैं भी ख़रीद लाऊँ ?
( वैसे अंदर से तो मैं जल भुन गया हूँ, न तो मेट्रो है.. होगी भी तो लड़की मेरे पास ही क्यों बैठेगी, फिर मैं पोस्ट कैसे लिखूँगा ? दस हज़ार लोचे हैं, मेरे पोस्ट के रास्ते में ! )
mujhe thoda andaaza hai ki aap zara mazaakiya svabhaav ke hai...laga nahi tha ki aapke blo par itni behatraeen gambhir achna padhne ko milegi...
ReplyDeletezordaar asar hailaga jaise chehre par ek tamaacha laga ho..is samaaj ha hissa hona kabh kabhi sharminda kar deta hai...call girl ka jis tarah se apane chitran kiya uski kai batao se baht sehmat hoon main...behatareen lekh
रोचक दास्तान कुश...और लिखने की शैली खूब भायी
ReplyDeleteइसी से मिलती जुलती एक कहानी पढ़ी थी शायद तेजेंद्र शर्मा जी की या फिर सूरज प्रकाश जी की याद नहीं आ रहा...लेकिन आपकी कहानी एक दम फ्रेश लुक लिए हुए है...आपकी कलम को सलाम...
ReplyDeleteनीरज
kahani hai
ReplyDeleteya
kuch aur
majedar ek baar mein puri pad gaya
bahut acchi kahani hai Kush....kahani hee samjhungi,roz metro se safar karti hun, haan usi line se,ussi line se safar karte hue kitni rachnaey mann me aayi aur kitni kagaz par utari....
ReplyDeleteaur is kahani se jo sandes diya hai tumhe..uske liye bahut saadhuvaad.
apki post ki charcha sirf mere blaag me
ReplyDeleteसमयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : जो पैरो में पहिनने की चीज थी अब आन बान और शान की प्रतीक मानी जाने लगी है
बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत अच्छी रचना। एक सांस में पढ़ गया। क्लाइमेक्स से पहले ही दोस्त की फितरत जानकर झटका लगा। उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी। लेकिन उस लड़की ने सही किया। मैं तो उसी लड़की के पक्ष में हूं। आपको भला लगे या बुरा। आपकी मर्जी।
ReplyDelete*****
ReplyDeleteइस शनिवार को सेंचुरी हो जायेगी..."
ReplyDeleteये तो होना ही था।
ReplyDelete-----------
खुशियों का विज्ञान-3
एक साइंटिस्ट का दुखद अंत
excellent presentation ..
ReplyDelete