एक कहानी
आज पूरे तेरह दिन हो चुके है.. शहर फिर से उसी गति से चल रहा है.. जिस गति से वो मंगलवार की उस शाम से पहले तक चल रहा था. फिर दो दिन कुछ रुका फिर दो दिन बाद कुछ संभला.. अब फिर उसी गति से या शायद उस से भी तेज.. इन तेरह दिनो में मेरा दोबारा वहा जाना नही हुआ.. जब पहली बार इस शहर में आया तो पता चला की ये शहर का सबसे बड़ा हनुमान मंदिर है.. कितने ही लोग हर मंगलवार यहा पूजा पाठ करने आते है.. मेरे ऑफीस के रास्ते में होने की वजह से मैने भी वहा जाना शुरू कर दिया..
फिर तो हर मंगलवार को मेरा इस मंदिर पर आना शुरू हुआ.. एक बात जो मेरे वहा जाने के दूसरे या तीसरे मंगलवार से हमेशा होती रही.. मैं जब भी मंदिर के बाहर जाकर गाड़ी खड़ी करता एक अधेड़ सी महिला मेरे पास आती.. बजरंग बली तेरी रक्षा करेंगे.. खूब तरक्की हो.. अमूमन तो मैं किसी भिखारी को पैसा नही देता.. लेकिन उसकी आवाज़ में इतनी आत्मीयता होती की उसे मैं मना नही कर पाता. फिर उसकी ये भी आदत थी की पेट भर खाने के बाद वो किसी से कुछ नही मांगती.. ये मुझे वही बैठे माला बेचने वाले से पता चला..
उसकी आँखो में एक अजीब तृप्ति हमेशा रहती थी.. बजरंग बली तेरी रक्षा करेंगे.. ये बात वो इतनी विश्वसनीयता से कहती जैसे खुद बजरंग बली ने उसे आश्वासन दिया हो की तू बस मुझे बता दे कौन है फिर मैं देख लूँगा..
जब तक मैं मंदिर से दर्शन करके लौटकर आता.. वो मेरी गाड़ी के पास खड़ी शीशे में खुद को निहार रही होती.. ओर अपने गालो पर उंगलिया फिरा रही होती.. शायद उसे अभी भी लगता था की वो उतनी ही सुंदर है जितनी कभी रही होगी.. या फिर वो किसी छुहन को महसूस करती होगी..
शुरुआत में तो मैं भी वापस आकर उसे दूसरो की तरह ए! ये ले प्रसाद, कहता था.. पर फिर उसकी शांत झुकी नज़रे देखकर मुझे कुछ अच्छा नही लगता .. फिर मैने उसे माई कहना शुरू किया..
मुझे याद है जब पहली बार मैने उसे माई कहा उसने मुझे नज़र उठाकर देखा था.. उसके होंठ कुछ फड़फडाए शायद वो कुछ कहना चाहती थी.. पर सिर्फ़ इतना बोली की बजरंग बली तुम्हारी रक्षा करे..
"साहब बहुत भूख लगी है कुछ दो ना".. अचानक एक आवाज़ आई.. मैं स्मृति से लौटा एक औरत कुछ माँग रही थी मैने उसकी ओर ध्यान दिए बिना ही माई को ढूँढा वो कही नज़र नही आई.. मुझे लगा जैसे मेरा शक़ ठीक था.. तेरह दिन पहले हुए बम विस्फोट में वो भी मर गयी होगी.. इसी मंदिर पे तो हुआ था विस्फोट.. ओर यही बैठी रहती थी वो.. तब एक बार तो सोचा भी था की मंदिर जाकर देख आऊ.. मगर हिम्मत नही हुई.. शायद मर गयी होगी वो.. इसी उधेड़बुन में था की वो औरत फिर आई बोली साहब बहुत भूख लगी है कुछ दो ना..
इस बार फिर उसे अनसुना करते हुए मैं आगे बढ़ा.. मैने फूल वाले से पूछा वो माई कहा है? उसने पूछा कौन माई? मैने कहा वो बुढ़िया जो यहा भीख मांगती थी.. उसने कहा पता नही साहब क्या हुआ है उसको, लगता है पागल हो गयी है.. जब से विस्फोट हुआ है ना तो किसी से कुछ माँग रही है ना कुछ खा रही है.. मैने पूछा कहा है तो उसने सामने इशारा करते हुए बताया..
मैने देखा सामने पीपल के पेड़ से सटे हुए बैठी थी वो.. आँखे बंद किए हुए.. कुछ बच्चे उसके पास पड़े पैसे उठा रहे थे.. मैं उसके करीब गया. मैने जाकर पुकारा माई! उसने कोई जवाब नही दिया... मैं फिर बोला माई! वो चुप रही.. मैने उसके कंधे पर हाथ रख कर उठाने के कोशिश की.. मेरे छुते ही माई निढाल होकर गिर गयी.. मुझे कुछ समझ नही आया..
आस पास लोग इक्कठे हो गये थे.. कुछ लोगो ने उसको सुलाने की कोशिश की तो देखा उसके हाथ पर एक नाम गुदा था, फ़ातिमा.. फिर किसी ने पहचाना ये तो दरगाह वाली भिखारिन है.. एक एक करके लोग कम होते गये..किसी ने कहा दरगाह में खबर कर दो अपने आप ले जाएँगे..
उस दिन पता चला वो दरगाह के बाहर बैठने वाली भिखारिन थी.. जो हर मंगलवार को हनुमान मंदिर पे आ जाती थी... उसके शब्द मेरे कानो में गूंजने लगे.. बजरंग बली तेरी रक्षा करे.. उसका झोला उसके पास ही पड़ा था.. कुछ बाहर झलक रहा था.. एक तो हनुमान चालीसा थी.. मैं पहचान गया.. दूसरी हरे कपड़े में लिपटी शायद क़ुरान ए पाक रही होगी..
अपनी भूख मिटाने के लिए वो कभी मस्जिद के आगे भीख मांगती थी तो कभी मंदिर के आगे.. भूख से बड़ा भी क्या कोई मज़हब होता है? मैं वहा खड़ा खड़ा बस यही सोचता रहा...
क्या कहूँ.....निःशब्द हो गई.
ReplyDeletebahut samvedna ke saath likhi gayi kahani....aur aakhiri shabdo ne sochne apr majboor kar diya. Is 'maai' ki vyatha katha padhkar sachmuch laga ki bhookh ka koi dharm nahi hota.
ReplyDeleteमेरी पत्नी जी के ननिहाल में एक मूकज्जी थीं। वे बोलती बहुत कम थीं। ज्यादा समय साथ रहो तो पूछती थीं - ईश्वर एक कि दो?
ReplyDeleteएक कहो तो बहुत प्रसन्न होती थीं। और चिढ़ाने के लिये बच्चे दो कहते थे तो क्रोध में बड़बड़ाने लगती थीं।
इन असुरों से बेहतर तो वे पगली थीं, जिन्हें मालुम था कि ईश्वर एक है!
मजहब इंसानी जरुरत नहीं... मतलब साधने की चीज है !
ReplyDeleteईश्वर-अल्लाह एक ही नाम है .पर ..आपकी इस आप बीती ने बहुत कुछ कह दिया
ReplyDeleteohh sooo nice...very nice
ReplyDeleteहूँ , स्टीरियोटाईप !
ReplyDeletebhookh sabse badi cheez hai....chaahe uski poorti bajrang bali ke maadhyam se ho ya allah ke madhyam se. aise na jaane kitne log honge.
ReplyDeleteमूरख को तुम राज दियत हो पंडित फिरत भिखारी
ReplyDeleteसंतों, करम की गति न्यारी (मीरा बाई)
very touching !!! ...
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर. यही सच है. भूख का कोई धरम नहीं होता. यह सब तो उनको सूझता है जिनके पेट भरे होते हैं. सस्नेह.
ReplyDeleteसच कहा आपने कि "भूख का कोई धर्म नही होता"। दिल को छू गया आपका लिखा।
ReplyDeleteरोटी की चिंता ही सबसे बड़ी चिंता है. वोह चाहे जो दे दे. बजरंगबली या फिर अल्लाह.
ReplyDeleteसुंदर कहानी. बहुत मार्मिक.
fatima uske haath per guda tha jhole men hanumaan chalisaa
ReplyDeletebhikaarin kyon kahaa
ek ibaadat karne wali mahilaa jo bhagwan ke aasre thi vo bhikhaaran ki maut mari aisa aap kahte hain rab ki najar men kyaa bita chitrgupt ki kalam hi bata sakti hai
अच्छी कहानी।
ReplyDeleteकहानी में सामयिक चिंतन का पुट अच्छा है
ReplyDeleteबहुत सही कहा भूख का कोई धर्म नही होता !
ReplyDeleteशुभकामनाएं !
kushbhai...la-alfaz kar diya...
ReplyDeletezyada kuchh kya kahun...humare vichar is vishya par aap jaante hi hain...
बहुत अच्छी लेकिन मार्मिक रचना...और आप के शब्द हमेशा की तरह सटीक...बधाई
ReplyDeleteनीरज
Man ki gahrai tak utar jane wali kahani. Bahut marmik.
ReplyDeleteअच्छी कहानी थी। पर अंत में दरगाह वाली भिखारिन होने के नाते दरगाह वालों को बुलवाने को क्यों कहते हैं? खुद ही आगे बढ़ते...
ReplyDeleteख़ुदा तो खैर मुसलमाँ था उससे शिकवा क्या
ReplyDeleteमेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया
सच्चा इंसान बही हे जो उपर वाले के बनाये खिलोनो को प्यार करे, उन्हे तोडे नही, अगर ऎसा करते हे तो हमारी पुजा, इबादत यही हे,
एक अच्छी कहानी के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
माई री,
ReplyDeleteमैँ कासे कहूँ पीर अपने जिया की...
माई री
- लावण्या
हृदय स्पर्शी कहानी...बहुत अच्छी.
ReplyDeleteबेहद खूबसूरती से सच्चाई बयान करती पोस्ट...। देर से आकर पछता रहा हूँ। इस भावुक रस में डूबने से रह गया था।
ReplyDeleteनिदा फाजली की छाप है इस कहानी पर. उनके एक इंटरव्यू से प्रेरित है. बोलो सच कहा या नहीं?
ReplyDeleteआप सभी की स्नेहिल टिप्पणियो के लिए धन्यवाद.. कृपया अपना आशीर्वाद यू ही बनाए रखे..
ReplyDelete@वर्षा जी
मैने लिख कुछ लोग पीछे होगआय.. ये भी एक सच है..
@घोस्ट बस्टर जी
मैने निदा फ़ाज़ली साहब का सिर्फ़ नाम सुना है... उनका कोई इंटरव्यू ना कही देखा है ना पढ़ा है..
-कुश
then accept my congratulations on this brilliant story.
ReplyDeletebahut khoobsoorat katha..ise katha maan na mushkil hai..lagta hai sach mei hua vakiya hai..bahut hi marmsparshiya...
ReplyDeletelikhne ke liye badhai..
likhte rahe..
agar nam aankhen kuch kahti ho
ReplyDeleteto wahi nami is rachna ko samarpit
Bahut hi marmik kahani!
ReplyDeleteMarmik aur Kathor Satya Kush ji
ReplyDeleteकुछ शब्द नहीं हैं कहने को। बहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteधन्यवाद कुश ब्लाग पर आने का।
ReplyDeleteक्या कहूं
ReplyDeleteखूब अच्छा लीखें हैं। हनुमान जी मेरे फेवरेट
मंदिर की हो या मस्जिद की, मीठी ही लगती है
ReplyDeleteइन मुई रोटियों का कोई मज़हब नही होता
शब्द स्तब्ध हैं...कुछ कह पाने में असमर्थ..
ReplyDeletechup si lag gayi hai
ReplyDeletemagar jo baat kahe di hai wo sach hai atal satay
कुश भाई, मर्मस्पर्शी लेखन कर रहे हैं आप। आभार। बिजली की मेहरबानी से पिछले दिनों पीसी से दूर ही रहा हूं। लेकिन आपकी पिछली दोनों पोस्टें भी मोबाइल पर पढ़ ली थीं। यह आप ही हैं कि इतना संजीदगी से लिख सकते हैं, वरना हमारे जैसे लोग तो उबाल खाने लगते हैं।
ReplyDeleteकुछ दिन परिदृश्य से गायब सी थी, निजी कारणों से.आज ही वक्त मिला है ..सबसे पहले तो आपके ब्लॉग के नए रूप के लिए बधाई स्वीकारें.फ्लेस बेक का बवाल भी देखा ..सिर्फ़ वही कहूँगी जो आपने कभी मुझसे कहा था किसी पर व्यक्तिगत रूप से लिखने से अच्छा है की उसकी विचारधारा का विरोध करो कुछ याद आया ..?
ReplyDeleteबाकि आपकी आज वाली रचना का जवाब नही ..आपकी कलम की सुन्दरता इन्ही मर्मिक भावों को व्यक्त करने से बढती है
सिर्फ इतना ही कि कथा अपने उद्देश्य में सवा सोलह आने खरी है।
ReplyDeleteक्या कहूं दोस्त, अगर जानना चाहते हो कि कहानी कैसी लगी, तो मेरे दिलो-दिमाग़ में आकर देखो, जो फटने की कगार पर है।
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