Friday, April 11, 2008

दो क्षणिकाए...

( )
मैं
कमरे से
निकालकर भागा
सोचा पकड़ ही
लूँगा इस बार
मगर अबकी बार
भी नही मिली..
मैं हारकर लौट
रहा हू घर को
और सोच रहा हू
की ये महक तुम्हारी
भला आती
कहा से है......






















(
)
मैने
काग़ज़
पर तस्वीर घटाओ
की इक बनाई थी..
अचानक बारिश ने
आकर तस्वीर बिगाड़ दी
तुम इतनी ज़ोर से हसी थी
की तुम्हारी हसी
घुल गयी फ़िज़ा- में...
अब जो बूंदे बरस
रही है उनका नशा
कुछ ऐसा है की..
मुझे अब तस्वीर ना बन
पाने का गम भी नही है..

8 comments:

  1. Tum bahut hi badhiya shanikaye..likhte ho..par yaar itni achhi! kitni tareef karen! mazaa aa gaya! :)

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  2. अब जो बूंदे बरस
    रही है उनका नशा
    कुछ ऐसा है की..
    मुझे अब तस्वीर ना बन
    पाने का गम भी नही है..
    bahut bahut badhiya

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  3. यही हकीकत है , सुंदर अभिव्यक्ति, बधाईयाँ !

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  4. पहली वाली बहुत खूबसूरत बनी है........बधाई

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  5. और सोच रहा हू
    की ये महक तुम्हारी
    भला आती
    कहा से है......
    कुश बहुत ही खुबसुरत हे,धन्यवाद

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  6. आप सभी की स्नेहिल प्रतिक्रियाओ का धन्यवाद..
    @सई
    आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद..

    @महक जी
    आपकी प्रतिक्रियाओ का खास इन्तेज़ार रहता है.. मुझे लगता है की मैं पहले लिखता हू या आप पढ़ लेती है.. बहुत बहुत धन्यवाद..

    @प्रभात जी
    आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत बड़ी बात है.. धन्यवाद

    @अनुराग जी
    भाई साहब आप बस अपने इस छोटे भाई की अंगुली भी यूही थामे रखिएगा..

    @भाटिया साहब
    आपकी प्रतिक्रियाओ से भी खास लगाव हो गया है.. अच्छा लगता है आपको यहा देखकर

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  7. बोलती हुई रचना…।
    सुंदर!!!

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  8. भावभीनी रचनाएँ ..

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..