इन लौटती आवाजों को पीछे धकेल धकेल कर मेरे माथे पर पसीने का पहाड़ उग गया है.. पर ये फिसल फिसल के मेरे कानो में आकर बैठ जाती है.. मैंने अपने दोनों हाथ अपने कानो पर रख दिए है.... पर ये स्थायी समाधान नहीं है.. मुझे सोल्यूशन चाहिए.. कॉमरेड,
अपने दल वाले मुझे 'च' से शुरू होने वाले किसी शब्द से बुलाते है.. एक्जेक्टली वो वर्ड क्या है मैं नहीं जानता.. मैंने ठीक से सुना नहीं.. मेरे कानो पर मेरे हाथ है.. मैंने अपने हाथो को वेल्डिंग करके जोड़ लिया है कानो से.. मैं सुनना नहीं चाहता बम विस्फोटो में मरने वालो की चीखे.. मैं सुनना नहीं चाहता गर्भ से लौटती लडकियों का क्रंदन..मैं सुनना नहीं चाहता आरक्षण के लिए भीख मांगती आवाज़े.. मैं सुनना नहीं चाहता लुटती हुई अस्मतो की पुकारे.. कि मेरे कान सुन सुन कर सुन्न हो चुके है.. अब कोई फर्क नहीं पड़ता उन्हें कॉमरेड, ........... तुम चाहो तो तीन सौ बीस की स्पीड से आती ट्रेन को मेरे कानो में घुसा दो.. या फिर ठूंस दो सौ हाथियों की चिंघाड़ इनमे.. इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.. मैंने अपने दोनों हाथो से ढंककर रखा हुआ है इन्हें..
क्या बताऊ तुम्हे कि मैं नोर्मल मोड़ में हैंग हो जाता था बार बार.. मेरी सारी फाइले डिलीट हो जाती थी... मेरा कंट्रोल बटन काम नहीं कर रहा था.. मैं चाहकर भी F5 नहीं दबा पा रहा था... और फिर पूरी तरह करप्ट हो जाने के बाद मैंने खुद को फोर्मेट कर दिया था.... अब मैं खुद को सेफ मोड़ में चला रहा हूँ.. मैं जानता हु तुम ये सब नहीं समझोगे.. तुम कम्पूटर के बारे में कुछ भी तो नहीं जानते.. अगर जानते होते तो समझ सकते थे मेरी बात.. जान जाते कि क्यों में हाय्बर्नेट हो गया था.. पर तुम तो अनपढ़ ठहरे.. तुम कैसे समझोगे.. ? तुम तो, जब ज्ञान बांटा जा रहा था.. तब छलनी लेकर खड़े थे कॉमरेड.. क्यों जब तुम्हे पढ़ लिख जाना चाहिए था.. तब तुम तपती दोपहरी में दो कौड़ी के कंचो के लिए दोस्तों से उलझते थे कॉमरेड..? अब देखो खुद को.. कंचो की तरह टकरा रहे हो दुसरे कंचो से..
खैर..! कंचे खरीदते भी तो कैसे ? तुम्हारे पास पैसे भी तो नहीं है.. वही एक सिक्का अंटी में दबाये घुमते रहते हो.. कि जिसे तुम्हारी माँ ने तुम्हे दिया था कंचे लाने के लिए.. और चप्पल टूटने की वजह से तुम घर लौट आये.. तभी तुम्हारी माँ पंखे से लटकी हुई मिली.. इस सिक्के में तुम क्या अपनी माँ को ढूंढते हो कॉमरेड.. ? क्या इतने पुराने सिक्के में तुम्हे कुछ मिलेगा भी.. क्यों नहीं तुम इस पर नाइट्रिक एसिड डाल देते हो.. ताकि तुम्हारा सिक्का फिर से चमक उठेगा.. ! पर तुम क्या नाइट्रिक एसिड लाओगे.. तुम्हे तो साईंस के माने भी नहीं पता.. तुम इतने बड़े झंडू क्यों हो कॉमरेड..?
वैसे झंडू तो मैं भी हूँ यार.. तुमसे सवाल पे सवाल पूछ रहा हूँ.. ये जानते हुए भी कि जवाब मैं सुन ही नहीं सकता.... पर तुम मेरी एक बात सुन लों.. किसी से भी हमारे मिशन के बारे में बात मत करना.... मैं जानता हूँ कि हम सब किसी भरोसे के लायक नहीं पर क्या मैं तुम पर भरोसा कर सकता हूँ कॉमरेड? या फिर तुम भी मिल जाओगे उन लोगो से और लील लोगे प्राण इस मिशन के.. ?
नहीं नहीं ऐसा मत करना कॉमरेड अब तो मिशन पूरा होने का वक़्त आ गया है... ये पेनअल्टीमेट समय है.. मैंने खुद को समेट लिया है अपने अन्दर..मैं टुकड़े कर रहा हूँ.. अहंकार के, मेरी कायरता के, मेरी चुप्पी के, मेरी नासमझी के, मेरी मक्कारी के, मेरे झूठ के, मेरे वजूद के... कि मैंने आखिरी बार आसमान में नज़र उठाली है.. मैं ईश्वर से नज़रे मिलाने की पोजीशन में हु.. मैं तुम्हारे सामने घुटनों के बल बैठता हूँ.. मेरे हाथ पैरो के नाख़ून नुकीले हो रहे है... मेरी दुम निकल रही है पीछे से.. मेरी जीभ लम्बी हो रही है... मैं अपना सर तुम्हारे पैरो में रखकर तुम्हारे तलवे चाट रहा हूँ... कि मैं अब कुत्ता बन गया हूँ.. अपने मिशन में कामयाब..
हमारे दल की जीत हुई है.. हमारी शपथ पूरी हुई है.. मेरे अन्दर एक जश्न की शुरुआत हो चुकी है.. मुझे नगाडो की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है... तालियों की गडगडाहट मेरे कानो में गूँज रही है.. आदिवासी कबीलों के स्वर सुन रहा हूँ मैं... कितने ही तरह की आवाज़े...लहरों के तट पर आने की आवाज़.. बादलो के गडगडाने की आवाज़.. मंदिरों में बजती हुई घंटिया...वाह.!
इंसान से कुत्ता बनने की प्रक्रिया का अंत यहाँ जाकर होगा.. तुम्हारे चरणों में.. ये मैं नहीं जानता था कॉमरेड.. पर मैं इंसानियत को त्याग चुका हूँ.. और कुत्ता बन गया हूँ..
एक कुत्ते के सुनने की क्षमता 40 Hz से 60,000 Hz होती है.... और ये इंसान से लगभग दुगुनी है.... अब इतना तो तुम जानते ही हो कॉमरेड.. भौ भौ..!
भौ भौ..! भौ भौ..!
ReplyDeleteऔर फिर चारो और से कुत्तों के भौकने की आवाजें आने लग जाती हैं .
कैसी लगी यह पटकथा सर ..अभी मध्यांतर तक ही है !
फिलहाल "लीलाधर मंडलोई" की एक कविता रखकर जा रहा हूँ.....दोबारा वापसी कमेन्ट करने आयूंगा
ReplyDeleteसबसे बीच उपस्थित
दृश्य से बाहर
सबसे खतरनाक
मुजरिम है वह
इस सदी का
समूचे देश को
अपने आरामगाह मे तब्दील करता
हमारे बुजुर्गवारों की
शख्सियत से जोंक की तरह
चिपका है वह
पालतू चीते की भाँति अलसाता
करता है रात गए
अपने नाखूनों को
मृत्यु की अन्तिम सीमा तक तेज
रोज सुबह हमारे घर
आतंक के बीच
ढूँढते हैं दुश्मन के खिलाफ सबूत
अखबार अपनी सुर्खियों में
किसी आदमखोर का
जिक्र करते
हो जाते हैं खामोश
पुलिस तैनात है जंगलों में
और वह रोज रोज
अपनी शक्ल बदलता
निश्चित है अपने आक्रमण में
बुजुर्गवार चुप हैं
और मुर्दनी उनके चेहरो का
अविभाज्य अंग
बनती जा रही है लगातार
सबके बीच उपस्थित
दृश्य से बाहर
सबसे खतरनाक
मुजरिम है वह
इस सदी का
उस आदमी पर वार करो
कितनी भयावह स्थिति है ना ! सब तरफ यही शोर है....
ReplyDeleteअबकी लिखने में कोई जादू नहीं ... बातें ही इतनी गंभीर है की सब कुछ पर हावी हो गया...
ReplyDeleteकामरेड पर कोई जबाब हो तो हमे भी बताये
ReplyDeleteनाइट्रिक एसिड डियर.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteज़िन्दगी के सच की जुगाली करते हुए थके जबड़ों ने अजीब सी शक्ल ले ली है. आवाज़ें जो आश्वस्त किया करती थी उनका वेवलेंथ घातक हो गया है. पढ़ते हुए कामरेड शब्द इतनी बार पढ़ा कि लगा टूटन में लेखन भी समा गया है. बरात के इतर इस दिन में उपजी रात का राग भी आपकी कलम से बेहतर मुखर हुआ है.
ReplyDeletekush ji sach kehoon to gulzaar ji ko kabhi nahi padha par unka likha jab bhi suna hai to bahut asar raha hai,vo kahin na kahin hai is kalam mein aur unhone jo likha hai uska 1% bhi agar mujhe mein hai to mujhe bahut khushi hai.
ReplyDeleteaur shukriya ki yadi aap mere blog par na aate to aapke blog se ru-b-ru hona na hota.. :)
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। Your articles also can be posted at www.fun25.com
ReplyDeleteपढ़कर अजीब सा महसूस कर रहा हूँ
ReplyDeleteअब क्या कहे, बहुत दुख होता है,
ReplyDelete. मैंने अपने हाथो को वेल्डिंग करके जोड़ लिया है कानो से..
ReplyDeleteतुम चाहो तो तीन सौ बीस की स्पीड से आती ट्रेन को मेरे कानो में घुसा दो.. या फिर ठूंस दो सौ हाथियों की चिंघाड़ इनमे
आपकी .लेखनी हमेशा ही चमत्कृत करती रही है मुझे ..और ये लेख भी अपवाद नहीं है....बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है.
इंसान से कुत्ता तक... बहुत बढ़िया दोस्त. और ४० से ६०००० हर्ट्ज़... कितने नंबर दूं? १०० से ज्यादा संभव है?
ReplyDeleteच से शुरू होने वाला वह शब्द शायद चैम्पियन हो सुनकर तो देखा होता । सस्पेन्स रह गया ।
ReplyDeleteशायद ओशो ने ही कहीं कहा था कि इस दुनिया में इंसान ही सबसे 'सीरियस'है.गुमसुम सा चुप्पा. बाकी प्रकृति में तो खिलंदड़ापन बिखरा पड़ा है. अनडाईल्यूटेड.खैर बात पूरी आपके कहे से नहीं जुड़ती पर मैं कहना चाहता हूँ कि इंसानों में भी कुछ के लिए इंसान बनकर भी मुक्ति नहीं है.अतियथार्थवादी व्यंजना में आपने, मानवीयता के नायाब ट्रेटस किस तरह कईयों के लिए बोझ बन गए हैं कि सिर्फ इंसान बन कर गुज़ारा नहीं, इसे सशक्त रूप से व्यक्त किया है.
ReplyDelete-रेफॉर्मेट होने के बाद सेफ मोड़ में रहने से अब कोई ख़तरा होना चाहीए.
ReplyDelete-इस फिल्म की पटकथा में सब कुछ है.
बेक ग्राउंड भी खूब है..आदिवासियों के स्वर ,मंदिरों की घंटियाँ सब कुछ फिल्मी .
--'इंसान अब कितना इंसान रह गया है कुश? '
बहुत ही सार्थक और मार्मिक पोस्ट। वास्तव में हम एक समय जाकर कुत्ते में परिणित हो जाते हैं। पता नहीं हम कौन सी दुनिया बसाना चाहते हैं?
ReplyDeleteसुन्दर लेखन. पढ़कर आनंद आया. आपको साधुवाद और बधाई.
ReplyDeleteसच में बहुत कुछ ऐसा ही चल रहा है।तारीफ़ तो करना चाह रहा हूं मगर शब्द ढूंढे नही मिल रहे हैं।विवेक से ही ले लेता हूं च से चैम्पियन्।
ReplyDeleteतुम्हारा ये आर्टीकल पढ के तुम्हारी लिखी एक कविता याद आइ...उस में भी यही सुर निकलता है...
ReplyDeleteमैं दंगा हूं
मैं दंगा हूं
हा मैं दंगा हूं
बीच सड़क,
भरे बाज़ार,
उतार दिए कपड़े मेरे
कुछ हरे कुछ केसरिया थे
कुछ गाँव के कुछ शहरिया थे
मैं चुप देख रहा
तमाशा भी हूं
और तमाशबीन भी
मैं बुरा हूं, एक गाली हूं
हा मैं दंगा हूं
मैं कहा से आया
कौन मुझे लाया
लावारिस हूं मैं
हूं मैं किसका जाया
सोच रहा हूं मैं,
कुछ बुरे लोगो
ने पैदा किया मुझे
देखो एक बार ख़ुद को
हूं मैं तुम्हारा साया
हा मैं दंगा हूं
शर्म आती है मुझे
बीच सड़क, भरे बाज़ार
मैं नंगा हूं
हा मैं दंगा हूं
हा मैं दंगा हूं...
कानों को कस कर बन्द कर लेना चाहता हूँ, फिर जोर से चिल्लाने को मन करता है.....
ReplyDeleteकानों को कस कर बन्द कर लेना चाहता हूँ, फिर जोर से चिल्लाने को मन करता है.....
ReplyDeleteकॉमरेड, ........... तुम चाहो तो तीन सौ बीस की स्पीड से आती ट्रेन को मेरे कानो में घुसा दो.. या फिर ठूंस दो सौ हाथियों की चिंघाड़ इनमे.. इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.. मैंने अपने दोनों हाथो से ढंककर रखा हुआ है इन्हें......fir itni gambheer baat kin hathon ne likhi hai
ReplyDeleteबिलकुल जायज़ अभिव्यक्ति है ।
ReplyDeleteएक निवेदन
नवरात्र में विदेशी कवयित्रियों की कवितायें प्रतिदिन यहाँ पढ़े http://kavikokas.blogspot.com - शरद कोकास
वाह कुश भाई, आज के हालात पर क्या खूब लिखा है… वाकई कुत्तों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, और हम परेशान हो रहे हैं… :)
ReplyDeleteतुम अपनी उम्र के हिसाब से तीस साल आगे के स्तर की बातें लिख रहे हो...कमाल कर रहे हो...कमाल...ह्सब्द और भाव इस तरह गूंथे हैं इस रचना में की सिवा वाह के मुंह से और कुछ निकलता ही नहीं...लाजवाब ही नहीं उत्कृष्ट लेखन...बधाई...इस बार जयपुर आने पर काफी नहीं बल्कि मोका हाट चाकलेट के साथ...पक्का...
ReplyDeleteनीरज
तकनीकी शब्दों को कहानी में जिस प्रकार आपने डाला है। सच काबिले तारीफ है। संदेश कानों तक साफ सुनाई देता है इतने भयावह शब्दों को पढने के बाद। गुड़।
ReplyDeleteगजब................
ReplyDeleteक्या कहूँ कामरेड........
ReplyDeleteइर्द- गिर्द बरसते शोलों को शब्दों ने यथासंभव ज्वाला दी है ...हर तरफ धुंआ..धुंआ...
ReplyDeleteच से चमत्कारी कुश और कुछ भी नही, जितना आप को पढ़ा है हमेशा अच्छा और अलग...
ReplyDeleteसोल्यूशन ही तो कोई नही बताता कॉमरेड, सब तो सवालो का गट्ठर लेकर घूम रहे है... answers.com भी रिजल्ट नाट फ़ाउन्ड ही दिखाता है..
ReplyDeleteबाकी जो डोज़ तुम देना चाहते थे, लग रहा है वो मिल गयी है... :)
कुछ कहते नहीं बन रहा... कामरेड!!
ReplyDeleteपढ़ चुका हूँ कई बार..और समझ नही आया कि क्या कहूँ इसे..एक अवसादपूर्ण कहानी, असफ़लता का आत्मवृत्त, या एकल अभिनय एकांकी, या किसी डिप्रेस्ड स्क्रिप्ट का ईमानदार मोनोलाग जिसके बाद एक लम्बा धूसर सा पाज्ड शॉट रह जाता हो पर्दे पर?..कम-स-कम दिमाग तरल हो कर किेसी द्रव सा बहने लगता है..इसे पढ़ने के बाद..और एक आवाज सुनाई देती है विजय के इस द्रश्य के बीच परदे के बैकग्राउंड मे..अपनी किसी सबसे प्यारी चीज के गिर कर टूटने की..दरकने की..एक सपने के!!..और इसे सुनने के लिये कुत्ते वाली फ़्रीक्वेंसी जरूरत नही है... ..कुछ अरमानों का हाइबरनेशन, अनबुझे सवाल, बचपन का डिसार्डर, पागल आवाजों के शोर के बीच ’यह जहाँ फ़ानी है, बुलबुला है पानी है’ की फ़्रीक्वेंसी पर ट्यून-अप
ReplyDeleteऔर यह..
इस सिक्के में तुम क्या अपनी माँ को ढूंढते हो कॉमरेड.. ?
कुछ कह नही आऊँगा..मगर वापस फिर लौट कर आऊंगा..कामरेड!!
राम नवमी पर हम देश की खुशहाली के लिए दुआ करते हैं --
ReplyDeleteअब सब सुधर जाए ऐसा भी लिखिएगा कुश भाई ...
स्नेह,
- लावण्या
ब्रह्मराक्षस यूँ ही बेचैन रहता है पीड़क समय में।
ReplyDeleteइस एकालाप में आम आदमी का दर्द बयॉं है।
अपने-आप में एक अद्भुत कविता...एक कवि का अलाप ही तो है ये।
ReplyDeleteयकीन करोगे, कुछ दिनों से एक किसी कामरेड को संबोधित करता कुछ मैं भी लिख रहा हूँ। टाइप करते हुये तुम्हारे मदद करने के बावजूद अभी भी "कामरेड" के "का" के ऊपर वो आधा चांद नहीं लगा पाता हूँ। जब वो पोस्ट लगानी होगी तो तुम्हारे इस पोस्ट से सही हिज्जे वाला कामरेड कापी कर लूंगा...