सुगर क्यूब पिक्चर प्रजेंट्स "पापाजी"
रद्दी पेप्पर..
तपती दोपहरी में बाहर रद्दी वाले ने आवाज़ लगायी.. मैं उठ गया था.. मुझे लगा अखबार बहुत हो गए है इन्हें रद्दी में बेच दिया जाना चाहिए.. मैंने उस से पुछा अखबार का क्या भाव है.. वो बोला अंग्रेजी है या हिंदी?
मैंने कहा तुझे कौनसा पढना है? तू भाव बता..
अंग्रेजी का आठ, हिंदी का छ:
और मराठी का?
मराठी का तो.... मालूम नहीं साहब..
चल कोई बात नहीं छ दे देना..
मैं रद्दी निकालने लग गया.. पुराने अखबारों के बीच में एकदम से पापाजी की फोटो नज़र आ गयी.. और मैं फिर से उन गलियों में कही खो गया जब मैं बहुत छोटा था.. हमारे बड़े से घर में के बरामदे में बाहर बैठे पापाजी.. और उनके इर्द गिर्द जमा लोग.. पापाजी से मिलने दिन भर कई लोग आते थे.. मैं देखता था, पापाजी सबकी बाते बड़े ध्यान से सुनते थे... दादाजी का बनाया बहुत बड़ा घर था हमारे पास.. लेकिन पहले इसे दादाजी ने जमींदार के यहाँ गिरवी रखा था.. बहुत साल तक वो घर जमींदार के पास गिरवी ही रहा.. दादाजी के स्वर्गवास के बाद पिताजी शहर आ चुके थे.. उसी जमींदार के भाई के यहाँ पिताजी नौकरी करते थे.. एक दिन जमींदार के भाई ने पिताजी के साथ बदतमीजी कर ली थी.. बस तभी पिताजी उसकी नौकरी को लात मारकर वापस यहाँ आ गए थे..
गाँव आकर पिताजी ने देखा कि जमींदार ने घर पर कब्जा कर रखा है.. तीन कमरों को छोड़कर बाकी को जमींदार ने अपना गोदाम बना दिया था.. दो कमरों में दोनों चाचा जी रहते थे.. तीसरे में हम जाकर रहने लग गए थे.. चाचा जी हमेशा पिताजी को कहते थे कि जमींदार से घर छुड़वाना है तो जबरदस्ती करनी पड़ेगी.. पर पापाजी उनकी बात नहीं मानते थे.. पापाजी शांत स्वभाव के थे.. वो मना करते थे.. पापाजी जमींदार से बात भी कर आये थे.. उसने कहा था वो जमीन दे देगा.. पर वो कभी देता नहीं था..
एक रात बहुत हंगामा हुआ था घर में.. जब बड़े चाचा जी ने जमींदार के गोदाम में आग लगा दी थी.. पिताजी ने उस रात खूब फटकार लगायी थी उनको.. पिताजी नहीं चाहते थे कि हम चाचा से कोई बात भी करे इसीलिए उन्होंने अम्मा को बोलकर हमको आगाह कर दिया था.. पर मैं चाचा जी से अक्सर मिल लेता था.. मेरे दोनों बड़े भाई हमेशा पिताजी के साथ ही रहते.. पर मैं नहीं रहता था.. मुझे चाचा जी का साथ अच्छा लगता था.. उनकी बातो में एक अजीब सा जोश होता था.. मैंने जमींदार के प्रति उनकी आँखों में एक जूनून देखा था.. वो कहते थे.. "ये घर मेरी जमीन है.. मेरी माँ.. और मैं अगर अपनी माँ की लाज ना रख पाया तो ऐसा बेटा किस काम का ?"
फिर एक दिन घर में बहुत चुप्पी थी.. पता चला चाचा जी को पुलिस पकड़ कर ले गयी थी.. मुझे किसी ने कुछ नहीं बताया.. पर बाद में पता चला.. जमींदार के बेटे ने चाचा जी के दोस्तों को गोलियों से मार दिया था.. और चाचा जी ने जमींदार के घर में घुस कर उसके बेटे को गोली मार दी.. पता नहीं ये सच था नहीं.. पर उस रात पुलिस आई थी.. पापाजी बहुत गुस्से में थे.. उन्होंने पुलिस वालो को बोला इसे ले जाकर जो सजा देनी हो दे दो.. हमारे पापाजी उसूलो के पक्के थे..सही न्याय के पक्षधर थे वो.. उस दिन के बाद से मैंने कभी चाचा जी को नहीं देखा.. पता नहीं कहाँ चले गए थे.. लोग कहते थे वो मर गए.. पर मैंने आज तक नहीं माना.. मुझे लगता है कही ना कही वो जिन्दा होंगे आज भी..
लेकिन एक बात बहुत अच्छी हुई थी इन सब में.. जमींदार के मन में डर बैठ गया था.. उसने हमारी जमीन हमको वापस दे दी.. उस दिन घर में दिवाली का माहौल था.. पापाजी मिठाई लेकर आये थे... घर अब हमारा हो चुका था था.. जमींदार गाँव छोड़कर अपने भाई के पास शहर चला गया .. मुझे लगा था अब सब ठीक हो जायेगा.. मगर ऐसा हुआ नहीं.. पापाजी जी की उम्र हो चुकी थी तो उन्होंने मेरे बड़े भाईसाहब को बुलाया और कहा कि मैं घर तुम्हारे नाम कर देता हूँ.. अब तुम ही संभालो.. पर हमारे मंझले भईया घर संभालना चाहते थे.. और पापाजी को मंझले भईया से अधिक लगाव था.. पर बड़े भाईसाहब नहीं माने.. पिताजी एक बार फिर दुविधा में थे..
मैं खामोश खडा देख रहा था.. बड़े भाईसाहब के बच्चे मंझले भईया के बच्चो से लड़ते रहते थे.. फिर एक रात पापाजी ने चौकाने वाला निर्णय लिया.. उन्होंने घर का बंटवारा कर दिया.. एक हिस्सा मंझले भईया को दे दिया.. और दूसरा हिस्सा बड़े भईया को.. मैं छोटा था तो मैं बड़े भईया वाली तरफ ही रहता था.. एक दिन जब मैं दोपहर में अकेला बैठा था तो देखा.. बड़े भईया के बच्चो को मंझले भईया के बच्चो ने मार के भगा दिया.. बदले में बड़े भईया के बच्चे भी मारने लगे.. दोनों में हाथापाई हो गयी.. देखते ही देखते हँसता खिलखिलाता आँगन लहुलुहान हो गया..
मैंने पापाजी की तरफ देखा.. वे बड़े भईया के बच्चो को समझा रहे थे.. लड़ाई मत करो.. मैं उस वक्त घर से बाहर निकल गया.. ये वक़्त बहुत बुरा गुजरा था.. फिर एक दिन मंझले भईया ने कहा कि उन्हें बड़े भईया से दस हज़ार रूपये मिलने चाहिए अपने घर को चलाने के लिए.. बड़े भईया ने साफ़ मना कर दिया.. पर पापाजी को मंझले भईया से ज्यादा लगाव था.. उन्होंने खाना पीना बंद कर दिया.. पापाजी ने धमकी दी थी.. जब तक मंझले भईया को पैसे नहीं मिलेंगे वे खाना नहीं खायेंगे.. हम लोगो की एक भी नहीं चली.. अम्मा ने जाकर बड़े भईया को समझाया.. तब बड़े भईया ने रूपये दिए.. लेकिन उनके बच्चे रोज़ रोज़ लड़ते रहते थे.. जाने अनजाने ही मुझे इन सबके पीछे पापाजी कसूरवार लगते..
आखिर हमने जमींदार से घर छुड़वाया ही क्यों था? इस से अच्छा तो घर जमींदार के पास ही रहता.. कम से कम हम सुखी तो थे.. आपस में लड़ते तो नहीं थे.. मैंने सोचा कभी पापाजी से जाकर पुछु कि कल को अगर मैं भी अपना हिस्सा मांग लु तो? लेकिन मैं जानता था.. पापाजी पर इन बातो का कोई असर नहीं होगा.. वो अपने बनाये नियमो पर पक्के थे.. फिर एक रात मैं बड़े भईया से मिलने पहुंचा.. देखा उनका बड़ा बेटा मर चुका था.. मैंने पुछा ये सब कैसे हुआ? वे बोले हमने पिताजी की बात मान कर हथियार नहीं रखे अपने पास.. पर मेरे बच्चे को मंझले के बच्चो ने इतना पीटा की उसका दम निकल गया.. मेरा खून खौल उठा था.. मैं ये जान चुका था.. कि पापाजी अगर इसी तरह मंझले भईया को नज़रंदाज़ करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब इस घर का कोई नामोनिशान नहीं रहेगा.. और ना ही बड़े भईया का परिवार कभी सुख से रह पायेगा..
पता नहीं कहा से मुझमे एक ताकत आ गयी थी.. मुझे चाचा जी के शब्द याद आ रहे थे... "ये घर मेरी जमीन है.. मेरी माँ.. और मैं अगर अपनी माँ की लाज ना रख पाया तो ऐसा बेटा किस काम का ?" मैंने दीवार पर लगी पापाजी की तस्वीर को प्रणाम किया और घर में पड़ी रिवाल्वर जेब में रखकर सीधा पापाजी के कमरे में घुस गया.. पापाजी उस वक़्त सो रहे थे.. उनको सोता देख मैं वापस लौट आया.. मैं जानता था.. पापाजी शाम को प्रार्थना के लिए जरुर बाहर बरामदे में आयेंगे.. मैंने देखा पापाजी सामने खड़े थे.. उनके आस पास हमेशा की तरह लोग जमा थे.. मैं उनके करीब गया.. और करीब.. वो ठीक मुझसे दो कदम की दूरी पर थे.. और मैंने रिवाल्वर निकाल कर गोली उनके सीने में चला दी... पापाजी वही निढाल होंकर गिर पड़े.. मैंने हाथ उठा लिए थे.. कोई मुझे आकर गिरफ्तार कर ले..
मुझपर मुकदमा चला.. मेरी उम्र कम थी इसलिए मुझे फांसी ना देकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी.. पर किस बात की सजा? सजा तो अपराधी को दी जाती है.. मैं कोई अपराधी नहीं था.. मैं अपराधी तब होता.. जब मैंने कोई अपराध किया होता.. मुझे कभी इस बात का दुःख नहीं हुआ कि मैंने पापाजी पर गोली चलायी.. उस वक़्त मुझे अपने घर को बचाना था.. पापाजी घर से बड़े नहीं थे.. अफ़सोस उन्होंने खुद को घर से बड़ा मान लिया था.. पर मैंने पापाजी को मुक्ति ही दी थी.. वरना आपस में लड़ते हुए अपने बच्चो को देखकर ना जाने उन्हें कैसा लगता..
पापाजी की मैं हमेशा से इज्जत करता था.. आज भी करता हूँ पर मैं पापाजी को कभी माफ़ नहीं कर सकता.. उनके एक फैसले की वजह से.. उनके अपने ही बेटो ने एक दुसरे के खून से हाथ रंग दिए थे.. ये सिलसिला तो आज भी जारी है.. दोनों भाइयो के बच्चे आज भी उसी तरह से लड़ते है.. मंझले भईया के बच्चे चोरी छुपे आकर.. बड़े भईया के बच्चो को मार के चले जाते है..
गाँव आकर पिताजी ने देखा कि जमींदार ने घर पर कब्जा कर रखा है.. तीन कमरों को छोड़कर बाकी को जमींदार ने अपना गोदाम बना दिया था.. दो कमरों में दोनों चाचा जी रहते थे.. तीसरे में हम जाकर रहने लग गए थे.. चाचा जी हमेशा पिताजी को कहते थे कि जमींदार से घर छुड़वाना है तो जबरदस्ती करनी पड़ेगी.. पर पापाजी उनकी बात नहीं मानते थे.. पापाजी शांत स्वभाव के थे.. वो मना करते थे.. पापाजी जमींदार से बात भी कर आये थे.. उसने कहा था वो जमीन दे देगा.. पर वो कभी देता नहीं था..
एक रात बहुत हंगामा हुआ था घर में.. जब बड़े चाचा जी ने जमींदार के गोदाम में आग लगा दी थी.. पिताजी ने उस रात खूब फटकार लगायी थी उनको.. पिताजी नहीं चाहते थे कि हम चाचा से कोई बात भी करे इसीलिए उन्होंने अम्मा को बोलकर हमको आगाह कर दिया था.. पर मैं चाचा जी से अक्सर मिल लेता था.. मेरे दोनों बड़े भाई हमेशा पिताजी के साथ ही रहते.. पर मैं नहीं रहता था.. मुझे चाचा जी का साथ अच्छा लगता था.. उनकी बातो में एक अजीब सा जोश होता था.. मैंने जमींदार के प्रति उनकी आँखों में एक जूनून देखा था.. वो कहते थे.. "ये घर मेरी जमीन है.. मेरी माँ.. और मैं अगर अपनी माँ की लाज ना रख पाया तो ऐसा बेटा किस काम का ?"
फिर एक दिन घर में बहुत चुप्पी थी.. पता चला चाचा जी को पुलिस पकड़ कर ले गयी थी.. मुझे किसी ने कुछ नहीं बताया.. पर बाद में पता चला.. जमींदार के बेटे ने चाचा जी के दोस्तों को गोलियों से मार दिया था.. और चाचा जी ने जमींदार के घर में घुस कर उसके बेटे को गोली मार दी.. पता नहीं ये सच था नहीं.. पर उस रात पुलिस आई थी.. पापाजी बहुत गुस्से में थे.. उन्होंने पुलिस वालो को बोला इसे ले जाकर जो सजा देनी हो दे दो.. हमारे पापाजी उसूलो के पक्के थे..सही न्याय के पक्षधर थे वो.. उस दिन के बाद से मैंने कभी चाचा जी को नहीं देखा.. पता नहीं कहाँ चले गए थे.. लोग कहते थे वो मर गए.. पर मैंने आज तक नहीं माना.. मुझे लगता है कही ना कही वो जिन्दा होंगे आज भी..
लेकिन एक बात बहुत अच्छी हुई थी इन सब में.. जमींदार के मन में डर बैठ गया था.. उसने हमारी जमीन हमको वापस दे दी.. उस दिन घर में दिवाली का माहौल था.. पापाजी मिठाई लेकर आये थे... घर अब हमारा हो चुका था था.. जमींदार गाँव छोड़कर अपने भाई के पास शहर चला गया .. मुझे लगा था अब सब ठीक हो जायेगा.. मगर ऐसा हुआ नहीं.. पापाजी जी की उम्र हो चुकी थी तो उन्होंने मेरे बड़े भाईसाहब को बुलाया और कहा कि मैं घर तुम्हारे नाम कर देता हूँ.. अब तुम ही संभालो.. पर हमारे मंझले भईया घर संभालना चाहते थे.. और पापाजी को मंझले भईया से अधिक लगाव था.. पर बड़े भाईसाहब नहीं माने.. पिताजी एक बार फिर दुविधा में थे..
मैं खामोश खडा देख रहा था.. बड़े भाईसाहब के बच्चे मंझले भईया के बच्चो से लड़ते रहते थे.. फिर एक रात पापाजी ने चौकाने वाला निर्णय लिया.. उन्होंने घर का बंटवारा कर दिया.. एक हिस्सा मंझले भईया को दे दिया.. और दूसरा हिस्सा बड़े भईया को.. मैं छोटा था तो मैं बड़े भईया वाली तरफ ही रहता था.. एक दिन जब मैं दोपहर में अकेला बैठा था तो देखा.. बड़े भईया के बच्चो को मंझले भईया के बच्चो ने मार के भगा दिया.. बदले में बड़े भईया के बच्चे भी मारने लगे.. दोनों में हाथापाई हो गयी.. देखते ही देखते हँसता खिलखिलाता आँगन लहुलुहान हो गया..
मैंने पापाजी की तरफ देखा.. वे बड़े भईया के बच्चो को समझा रहे थे.. लड़ाई मत करो.. मैं उस वक्त घर से बाहर निकल गया.. ये वक़्त बहुत बुरा गुजरा था.. फिर एक दिन मंझले भईया ने कहा कि उन्हें बड़े भईया से दस हज़ार रूपये मिलने चाहिए अपने घर को चलाने के लिए.. बड़े भईया ने साफ़ मना कर दिया.. पर पापाजी को मंझले भईया से ज्यादा लगाव था.. उन्होंने खाना पीना बंद कर दिया.. पापाजी ने धमकी दी थी.. जब तक मंझले भईया को पैसे नहीं मिलेंगे वे खाना नहीं खायेंगे.. हम लोगो की एक भी नहीं चली.. अम्मा ने जाकर बड़े भईया को समझाया.. तब बड़े भईया ने रूपये दिए.. लेकिन उनके बच्चे रोज़ रोज़ लड़ते रहते थे.. जाने अनजाने ही मुझे इन सबके पीछे पापाजी कसूरवार लगते..
आखिर हमने जमींदार से घर छुड़वाया ही क्यों था? इस से अच्छा तो घर जमींदार के पास ही रहता.. कम से कम हम सुखी तो थे.. आपस में लड़ते तो नहीं थे.. मैंने सोचा कभी पापाजी से जाकर पुछु कि कल को अगर मैं भी अपना हिस्सा मांग लु तो? लेकिन मैं जानता था.. पापाजी पर इन बातो का कोई असर नहीं होगा.. वो अपने बनाये नियमो पर पक्के थे.. फिर एक रात मैं बड़े भईया से मिलने पहुंचा.. देखा उनका बड़ा बेटा मर चुका था.. मैंने पुछा ये सब कैसे हुआ? वे बोले हमने पिताजी की बात मान कर हथियार नहीं रखे अपने पास.. पर मेरे बच्चे को मंझले के बच्चो ने इतना पीटा की उसका दम निकल गया.. मेरा खून खौल उठा था.. मैं ये जान चुका था.. कि पापाजी अगर इसी तरह मंझले भईया को नज़रंदाज़ करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब इस घर का कोई नामोनिशान नहीं रहेगा.. और ना ही बड़े भईया का परिवार कभी सुख से रह पायेगा..
पता नहीं कहा से मुझमे एक ताकत आ गयी थी.. मुझे चाचा जी के शब्द याद आ रहे थे... "ये घर मेरी जमीन है.. मेरी माँ.. और मैं अगर अपनी माँ की लाज ना रख पाया तो ऐसा बेटा किस काम का ?" मैंने दीवार पर लगी पापाजी की तस्वीर को प्रणाम किया और घर में पड़ी रिवाल्वर जेब में रखकर सीधा पापाजी के कमरे में घुस गया.. पापाजी उस वक़्त सो रहे थे.. उनको सोता देख मैं वापस लौट आया.. मैं जानता था.. पापाजी शाम को प्रार्थना के लिए जरुर बाहर बरामदे में आयेंगे.. मैंने देखा पापाजी सामने खड़े थे.. उनके आस पास हमेशा की तरह लोग जमा थे.. मैं उनके करीब गया.. और करीब.. वो ठीक मुझसे दो कदम की दूरी पर थे.. और मैंने रिवाल्वर निकाल कर गोली उनके सीने में चला दी... पापाजी वही निढाल होंकर गिर पड़े.. मैंने हाथ उठा लिए थे.. कोई मुझे आकर गिरफ्तार कर ले..
मुझपर मुकदमा चला.. मेरी उम्र कम थी इसलिए मुझे फांसी ना देकर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी.. पर किस बात की सजा? सजा तो अपराधी को दी जाती है.. मैं कोई अपराधी नहीं था.. मैं अपराधी तब होता.. जब मैंने कोई अपराध किया होता.. मुझे कभी इस बात का दुःख नहीं हुआ कि मैंने पापाजी पर गोली चलायी.. उस वक़्त मुझे अपने घर को बचाना था.. पापाजी घर से बड़े नहीं थे.. अफ़सोस उन्होंने खुद को घर से बड़ा मान लिया था.. पर मैंने पापाजी को मुक्ति ही दी थी.. वरना आपस में लड़ते हुए अपने बच्चो को देखकर ना जाने उन्हें कैसा लगता..
पापाजी की मैं हमेशा से इज्जत करता था.. आज भी करता हूँ पर मैं पापाजी को कभी माफ़ नहीं कर सकता.. उनके एक फैसले की वजह से.. उनके अपने ही बेटो ने एक दुसरे के खून से हाथ रंग दिए थे.. ये सिलसिला तो आज भी जारी है.. दोनों भाइयो के बच्चे आज भी उसी तरह से लड़ते है.. मंझले भईया के बच्चे चोरी छुपे आकर.. बड़े भईया के बच्चो को मार के चले जाते है..
बाबु जी ऐसा क्या है तस्वीर में.. क्या देख रहे हो..
मैं अतीत से वापस लौटा.. रद्दी वाला मेरे नीचे पड़े अखबारों को उठा रहा था.. मैंने पुछा अंग्रेजी जानते हो?
वो बोला थोडी थोडी..
मैंने कहा अखबार में से कुछ पढ़ कर हिंदी बताओ उसकी..
उसने अखबार के ढेर में से एक उठाया.. और बोला देश के पापाजी..
मैंने पुछा क्या ? तो उसने अखबार मेरी तरफ बढा दिया..
तीस जनवरी का अखबार था..
Sundar vichar.. waqt milne par poora padhenge.. Happy Blogging :)
ReplyDeleteनम और रचनात्मक, आपका निर्देशन भी सराहनीय... अच्छा लगा एक लंबे अंतराल के बाद
ReplyDeleteक्या कहूँ भाई ...इधर लोगो में कई तरह के जनून है ..किसी किताब में भगवान् /खुदा के आगे श्री या कुछ ओर नहीं लिखा तो नाराज .....दाढ़ी छोटी या बढ़ी तो नाराज .....गाने में दिल विल साला तेली का तेल से ......कोई बिरादरी नाराज ...कोई धर्मगुरु की हत्या अगर विदेश में हुई तो तोड़फोड़ भारत में ...चक्का जाम भारत में .....कल एक औरत ने एक हाई-वे पर जाम के दौरान डिलिवरी की .दूसरा सीरियस मरीज एम्बुलेंस में ही दम तोड़ गया .....तो जनून है भाई....किसी की आलोचना नहीं करने का ....एक भाई साहब अभी किसी ब्लॉग में फलसफा दे रहे थे की चूंकि मर्द एक शादी के बाद भी बाहर कई सम्बन्ध बनाता है इसलिए चार शादी जायज है ....कोई उनसे कहे भाई औरतो को भी कुछ सालो के लिए चार मर्द रखने की इजाज़त दे दो.....सब अपनी सहूलियत के मुताबिक नियम कायदे कानून बनाते है ....फिर उस पर धर्म /मजहब का मुलम्मा चढा कर कह देते है ....ये लो जी नियम ..कर लो औरत को कब्जे में ....
ReplyDeleteब लोग मूर्तियों पे लड़ते है ...पुरुस्कारों पे लड़ते है ...ये बिस्मिल हमारा , वो भगत सिंह तुम्हारा .गांधी हमारा पटेल तुम्हारा ...इस पे लड़ते है ...मेरा राज्य तुम काहे आये मजूरी करने आये इस पर लड़ते है ...मतलब बस किसी न किसी बहाने लड़ते है ......तो तुम काहे शोर मचा रहे हो भाई .....देखना अब .लोग .तुम्हे हड़का देगे ....
भाई कुश
ReplyDeleteमेने पढा, एक नही दो बार तीन बार- फिर टीपणीयो को भी देखा। पर समझ ना सका। आपने यह लिखा वो आपसे सम्बन्धीत है ?
कृपया खुलासा करे। ताकी मै इस पर टीपणी करु तो सुविधा रहे।
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई-टाईगर
SELECTION & COLLECTION
सच कहीं पापाजी और चाचाजी के बीच रहता है। उसको अवतरित कराओ मित्र, तभी सुगर क्यूब पिक्चर्स की सार्थक कृति बन पायेगी।
ReplyDeleteइतनी समझ कहाँ है लोगों में कुश, पूछो तो पता भी नहीं चलेगा किस बात पर झगड़ रहे हैं...२ अक्टूबर सिर्फ ड्राई डे होता है...३० जनवरी भी महज़ तारीख बन के रख गयी है.
ReplyDeleteजिंदगी का हिस्सा बन गया है ये सब...अक्सर डर लगता है सोच कर की कहाँ जा रहे हैं हम...सही गलत की परिभाषा भी बदलती रहती है परिस्थितियों के अनुसार...कहानी अच्छी लगी...कहानी क्या कहें, जिंदगी ही है.
क्या आप एक हत्यारे को जस्टिफाई कर रहे हैं कुश ? ..अगर मैंने गलत समझा हो तो अग्रिम क्षमा ...पर किसी भी दशा में आक्रामकता को मैं हल नही समझती.
ReplyDeleteबडे भईया को एक बार मंझले भाई के साथ आर या पार की सोचकर सबक सिखा ही देना चाहिये
ReplyDeleteऔर अपने दरवाजों पर भी सख्त पहरों की जरूरत है
बडे भाई के बच्चे भी तो अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह हो जाते हैं
प्रणाम स्वीकार करें
तीस जनवरी का अखबार था.....
ReplyDeleteयहीं सब कुछ खत्म हो गया .
क्या कहूँ.. मैं आखिर तक नहीं समझ पाया की तुम क्या कहानी बुने जा रहे हो और क्यों बुने जा रहे है.. पर अंतिम पैरा पढ़ पूरी कहानी सजीव हो गई.. सारे पात्र सामने आ गये.. जैसे चहरों से मुखौटे हट गये.. बहुत अच्छा प्लोट.. बिल्कुल नये अंदाज में..
ReplyDeleteबाकी पापाजी सही थे या बेटाजी फिर कभी चर्चा करेगें..
श्री कुशजी
ReplyDeleteलेखक बधाई का पात्र है उसने कुछ जगह शिक्षात्मक बाते कही। अन्त को जस्टिफाई करना मेरे जैसे जैनी के लिए कठीन है।
वैसे किसी ब्लोग को लगातार पढने पर ही लेखक की भाषा, लेखनी, एवम मत सन्दर्भ को जाना पहचाना जा सकता है। मैने आज आपको पढा तो रुचिकर लगा, पर कन्फ्युज था इसलिए आपसे पुछ लिया ताकी मेरी टिपणी सही हो। आपने मेल द्वारा मुझे बताया मै आपका आभारी हू। अब शायद भविष्य मे आपको पढते समय मुझे सन्दर्भ का पत्ता रहेगा।
@"इतनी समझ कहाँ है लोगों में कुश, पूछो तो पता भी नहीं चलेगा किस बात पर झगड़ रहे हैं...२ अक्टूबर सिर्फ ड्राई डे होता है...३० जनवरी भी महज़ तारीख बन के रख गयी है.
भाई कुशजी! इस टीपणी पर भी मेरे अपने विचार है -' ड्राई डे' का वास्तव मे मुझे नही पता। इसका पता या याद रखने की जरुरत मुझे कभी नही पडी। जिसको याद रखना हो रखे। ३० जनवरी बापु से सम्बघित हो सकती है, या मेरे से।
आभार/शुभकामनाए
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई-टाईगर
SELECTION & COLLECTION
नमस्कार कुश जी,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है, समझने वाले समझ गए हैं. वाकई आखिर तक बाधे रखा और ३० जनवरी ने सारे राज़ खोल दिए, इशारों में सारी बात बहुत खूबसूरती से कह दी.
मैं तो अभी भी विचार मग्न हूँ -क्या कहूं ?
ReplyDeleteजो बीज बोया गया उस वक़्त ,उसका विस्तार आज भी निरन्तर हो रहा है ..सही कौन गलत कौन ..से अधिक जरुरी है यह समझना कि क्या कभी इन पर कांटे की बजाय मीठे फल या खिलते हुए फूल भी लगेंगे ...और क्या कभी एक पल के लिए भी इन हालात को सच्चे सही ढंग से सुलझाने की कोशिश होगी भी या नहीं ...? या यूँ ही खून से हाथ रंगे जाते रहेंगे ..?
ReplyDeleteलिखने का अंदाज़ तुम्हारा हमेशा प्रभावित करता है ...नए तरीके से उसी सोच को कैसे ढालना है यह कला कुश जी आपको खूब आती है ..
निश्चित ही फुरसत से पढ़ा जाना चाहिये इसे एक बार फिर ।
ReplyDeleteअनोखी लेखन शैली । आभार ।
कहाँ थे भाई, हम भी पापा जी को माफ़ नहीं कर पाये हैं आपकी तरह… :) :)
ReplyDeleteaji maine to socha tha ki aap apne hi purane sansmaran suna rahe hain lekin jab papaji ko goli mari or 30 january likha to sab samajh aa gaya.
ReplyDeleteबहुत ही गहनतम विचारणीय प्रश्न है.
ReplyDeleteरामराम.
Papaji ka vyaktitv Paheli tha aur hai... !
ReplyDelete
ReplyDeleteसूगर क्यूब में चींटें लगने का क्या करें ?
लगता है, ससुरी धीरे धीरे करके पूरी क्यूब ही चट कर जायेगी ?
हे भगवान, इस कहानी में तो भारत का इतिहास दर्ज है, आजादी के पहले और उसके ठीक बाद का इतिहास। गॉंधी, चाचा नेहरू और क्रांतिकारी नेताओं के विराट कलेवर को एक पारिवारिक कलह के माध्यम से प्रस्तुत किया है। गजब प्रस्तुति।
ReplyDeleteब्लाकबस्टर लेकिन एक लाइन जरुर लिखनी पड़ेगी किसी जीवित या म्रत्य व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है अगर कोई है तो महज इतेफाक है
ReplyDeleteआख़री लाइन पढने के बाद पूरी पोस्ट फिर से पढी और आपकी लेखनी का कायल हो गया
ReplyDeleteवास्तव में मझले भाई के बच्चे अपमे घर की हद पार कर बड़े भाई के सीधे सादे बच्चे पर जुल्म कर रहे हैं, बड़े भाई को आर या पार की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी
देखना ये है की बड़े भाई का धैर्य कब जवाब देता है
बेजोड़ लिखा है एक बार फिर से बधाई
वीनस केसरी
पहले अक्सर कला फिल्में देख अंत तक मूँह बाये समझने का प्रयास करते रहते थे और फिर अंत में बिना समझे सबको ताली बजाता देख हम भी ताली बजा देते थे कि लोग बेवकूफ न समझें.
ReplyDeleteअंतिम पैरा के ठीक पहले तक उसी तैयारी में लगा था कि बस, ताली बजाना शेष है.
कथा की पृष्ट्भूमि के धरातल पर निश्चित ही विभिन्न नज़रियों की गुंजाईश बनती है किन्तु कथा के गठन, गंभीरता और बांधे रखने की क्षमता पर नहीं. उस हेतु आपको बधाई.
कथा का अंत यदि अलग अलग वर्ग को अलग अलग नजरिये से इस कथा पर बात करने का मंच देता है तो कथा की सफलता ही कहलायेगी. पुनः बधाई.
अब पापाजी को गोली मार देना-सही या गलत- हत्या जस्टिफाईड या अनजस्टिफाईड-यह मेरी टिप्पणी क्षेत्र के बाहर की बात है, अतः विराम लेता हूँ.
kushbhai...kya khub pesh kiya hai...kaafi samvedanatmak lekh likh diya...aur jo main kehna chahta hoon...woh sir ji ne likh diya hain...isliye fir se dohrane ki zarurat nahin rahi...
ReplyDeleteबहुत मार-काट मचा दी भाई!
ReplyDeleteबँटवारे के पहले की कहानी तो आपने बता दी। पापाजी ने जो गलत किया उसका दण्ड भी दिला दिया। लेकिन आज भी पापाजी के नाम पर बड़े-बड़े अपनी दुकान चला रहे हैं। रोज़-ब-रोज़ उन्हें मारा भी जा रहा है। कैसे? इसे यहाँ देख सकते हैं।
ReplyDeleteहे...! तुम वही कुश हो ना..! जो चैट पर अजीब अजीब मजाक करता है...?? मुझे विश्वास नही होता सच में कुश की तुम ऐसा भी लिख सकते हो...!!! अब इसे compliment or comment जैसे चाहे लो..! मगर है यही सच..! Sometime I find your writing skill amazing....!
ReplyDeleteकहीं कहीँ बड़ी बारीक चीजों को डाला है तुमने अपनी कहानी में...!
और अंत तो तुमने बहुत ही अच्छा दिया..!excellent...!
तारीफ पे तारीफ ... तारीफ पे तारीफ...!
hamari umra se badi post? kuch kam samajh aayi
ReplyDeleteहां. पापाजी करते भी तो क्या? इसमें वसियत भी तो नहीं की जा सकती ना!!!!
ReplyDeleteतीन भाई ........ बहुत सही कहा तुमने.
ReplyDeleteलेकिन पता है सबसे बुरी स्थिति तीसरे भाई की ही रहती है,जो संवेदनशील है और अपने घर को बचाते हुए सबके घर में अमन चैन देखना चाहता है.....बाकी दो भाई तो लड़ भीड़ कर अपनी बांछें बुलंद करने में मगन रहते हैं....aur chacha jee,jinhone ghar bachane ke liye prano ki aahuti dee,unhe koun hai yaad rakhne wala.
तुम्हारी इस कहानी की प्रशंशा को शब्द नहीं हैं मेरे पास...
बस ऐसे ही लिखते रहो,सुन्दर बहुत सुन्दर,बहुत सारा...
hmmmmmmmm bahut sach kaha hai
ReplyDeleteapradh to nahi tha
ghar ko bachaya tha
aaj tak sabne desh ke papaji ko to samjha hai
koi to aaya jisne us ladhke ke view ko bhi samjha
मैं क्या कहूं, सभी कुछ उपर लोग कह गये हैं..
ReplyDeleteहां मगर एक बात जरूर कहूंगा कि अंतिम पैरा पूरी कहानी में जान डाल गया..
अन्तिम पैराग्राफ न लिखा होता तो पूरे १०० नम्बर मिलते पर अभी ९९ से संतोष करिये !
ReplyDeleteetni achhi post ke ant tak padne ke baad bhi man nahi bhara...very interesting post....
ReplyDeleteदरअसल पापाजी को समझना मुश्किल था। जब थोड़ी सी बात में वे शहर छोड़कर गांव लौट आए तो यकीन मानो कुश भाई वे जमींदार की जलालत को भी सहन नहीं कर पा रहे होंगे। लेकिन उनका अपना तरीका था। लम्बा था। इसलिए बिना खून खराबे वाला था। बाकी लोगों में जोश ज्यादा था और अक्ल कम। इसलिए एक बच्चा आया और उसने अपने पिता को पिता न मानते हुए गोली मार दी। गोली मारने का समय इतना सही था कि पिताजी अब भी पिताजी बने हुए हैं। और यकीन मानो हमेशा रहेंगे।
ReplyDeleteकहानी बीच में कुछ लटक गई थी। अंत पढ़कर दोबारा पढ़नी पड़ी। थोड़ा कस लो, गति तेज रहे तो मजा आ जाएगा।
kahani achhi likhi hai.
ReplyDeleteतुम्हारी इस अद्भुत कहानी को पढ़ा और फिर एक-एक कर सारी टिप्पणियां...कमाल है कि किसी ने चाचा जी का जिक्र किया ही नहीं। बचपन से उसी चाचाजी को तो आदर्श मानते आया हूँ...पापा जी का तो ये हश्र होना ही था..
ReplyDeleteअब तुम्हारे कमाल के शिल्प की तारीफ़ करूँ? जरूरी तो नहीं कि हर बात खुल कर कही जाय न कुश...तुम भी तो नहीं कहते अपनी कहानी में।
कल्पनाशीलता! भावुकता! प्रतीकों का सुंदर उपयोग
ReplyDeleteकुश जी,
ReplyDeleteपहले तो धन्यवाद आपको की आपकी सोच इतनी दूर तक जाती है, आपने महात्मा ( ? ) गांधी को मारने के पीछे की सोंच और गोडसे महोदय की मानसिकता को प्रर्दशित करने की हिम्मत दिखाई है l कैसे आपने ये सोंचा मुझे आश्चर्य हो रहा है और कोई भी ये नहीं समझ पाया ....
आप महान है.................
ek baar fir padh kar aanand aaya
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