कुछ बातें दिल की दिल मैं ही रह जाती है ! कुछ दिल से बाहर निकलती है कविता बनकर..... ये शब्द जो गिरते है कलम से.. समा जाते है काग़ज़ की आत्मा में...... ....रहते है........... हमेशा वही बनकर के किसी की चाहत, और उन शब्दो के बीच मिलता है एक सूखा गुलाब....
Monday, July 13, 2009
उछालता कोई मुझे तो..
उछालता कोई मुझे तो
खिलखिला देती...
मुस्कुराता कोई तो
पलकें हिला देती..
पूछता कोई जो कुछ
जवाब आँखें हिला कर देती..
गोद मैं उठाता कोई तो
उसे गीला कर देती..
डाँटता कोई मुझे तो
झटमूट् रोती..
आती जब नींद तो
माँ की गोद में सोती..
मम्मी की पहन साड़ी
श्रृंगार मैं करती..
आ जाए ना कोई कमरे में
इस बात से डरती...
दादा को पकड़ कर
घोड़ा मैं बनाती..
ज़्यादा तो नही पर
खाना, थोड़ा मैं बनाती..
होती जब बरसात
ख़ूब मैं नहाती..
काग़ज़ की कश्तिया
पानी में बहाती..
फिर बड़ी हो जाती और
झूलती झूलो पे..
बन जाती तितली कोई और
घूमती फूलो पे...
सोमवार की पूजा के
फूल मैं चुनती..
आएगा कोई जो
उसके ख्वाब मैं बुनती..
ले जाता मुझे कोई
डोली में बिठाकर..
पलकों की छाओ में
आँखो में लिटाकार...
अपना फिर छोटा सा
परिवार मैं बनाती..
खशियो से सज़ा सा
संसार बसाती..
बाँट प्यार सभी को
सबके दर्द मैं लेती..
गर माँ तेरी कोख से
जन्म मैं लेती....
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बहुत प्यारी कविता कुश.. काश कोई समझ ले तो १००० पर ८०० न हो...
ReplyDeleteकुछ कहा नहीं जाता !
ReplyDeleteगला रुँध गया है ,
आँखें भर आयीं हैं,
कविता ने दिल तो छू लिया है,
हड्डियाँ हमने मुश्किल बचायीं हैं !
बाँट प्यार सभी को
ReplyDeleteसबके दर्द मैं लेती..
गर माँ तेरी कोख से
जन्म मैं लेती....
कुश जी लाजवाब रचना है बस लोग उसे जन्म ही नहीं लेने देते बहुत सुन्दर रचना के लिये बधाई आशीर्वाद्
बाँट प्यार सभी को
ReplyDeleteसबके दर्द मैं लेती..
गर माँ तेरी कोख से
जन्म मैं लेती...
IN PANKTIYON PAR SAB KUCHH KURABAN HO GAYA ......WAAH ....WAAH.....WAAH....WAAH ....ATISUNDAR
बाँट प्यार सभी को
ReplyDeleteसबके दर्द मैं लेती..
गर माँ तेरी कोख से
जन्म मैं लेती....
कुश भाई, सारा दर्शन इन्ही लाइनों में आपने निरुपित कर दिया है.
दुखद, किन्तु सत्य.
ReplyDeleteसादे शब्दों से एक कटु सत्य कह दिया।
ReplyDeleteबाँट प्यार सभी को
सबके दर्द मैं लेती..
गर माँ तेरी कोख से
जन्म मैं लेती....
अद्भुत।
तुम्हारी इन पंक्तियों ने आवेश उद्वेग क्षोभ रुदन और न जाने क्या क्या भर दिया है.........
ReplyDeleteमैंने अपने सामने अपने आस पास कईयों को ,जो किसी भी मायने में ऐसी आर्थिक परिस्थिति के नहीं जो की अपनी संतान का भरण पोषण विवाह न कर सकें....पुत्र लालसा में भ्रूण परीक्षण कराकर कन्या भ्रूण हत्या करवाते देखा है...एक नहीं कई कई बार......
और यह पति या परिवार के दवाब में नहीं अधिकतर स्त्रियाँ स्वेच्छा से करती हैं....कुछेक के तो मैंने पैर तक पकडे....उन्हें पूर्ण आश्वासन दिया की वे उस बालिका को मुझे दे दें,मैं उन्हें अपनी संतान बनूंगी....पर किसी तरह उनके कठोर ह्रदय को न पिघला सकी..........
क्या कहूँ.........आने वाले समय में पूरी मानवता इसका मूल्य चुकायेगी,देखना.....
सुन्दर कविता है. और क्या कहूँ?
ReplyDeleteले जाता मुझे कोई
ReplyDeleteडोली में बिठाकर..
पलकों की छाओ में
आँखो में लिटाकार...
bahut achchha laga !!
ये पीड़ा एक अजन्मी बालिका का है, ये स्वप्न एक अजन्मी बालिका का है। मार्मिक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी..
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक रचना...अजन्मी बच्ची का दुःख बहुत खूब कहा है आपने...पूरी रचना आपके आपने खास रंग में है...वाह
ReplyDeleteनीरज
बहुत सुंदर कविता.
ReplyDeleteरामराम.
भई होँठ सीले है, क्या बोलें?
ReplyDeleteओह !
ReplyDeleteविकट मार्मिक!!
ReplyDeleteबहुत ही कोमल एहसास हैं। तारीफ के लिए शब्द कम पड रहे हैं।
ReplyDeleteकुश भाई खुस कर दिया। कविता मे पारिवारिक सम्बन्धो मे अपकी अभिव्यक्ति ने प्यार, अपनापन, मेरे भी मन मे घोल दिया है। भाई मजा आ गया। अपने राजस्थान के परिवेश मे घर परिवार की मिठ्ठी यादो को सजोया जा सकता है। शहरी वातावरण ऐसी मुल्यवान पारिवारिक कृति बनने बनाने मे असमर्थ ही लगती है।
ReplyDeleteआभार/मगलभवो के साथ
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु य ह तेरापन्थ
कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ एक मार्मिक रचना
ReplyDeleteबढ़े चलो, बढ़े चलो -- मगर बढे़ तो हम कहाँ?
ReplyDeleteकि रास्ता ही जब नहीं, तो डाल दें कदम कहाँ?
---भारत भूषण अग्रवाल
पढ़ना अपने को दुखी करना है।
ReplyDeleteअच्छा लिखा जी।
मार्मिक!
ReplyDeleteकाश सभी जन्मी-अजन्मी बेटियों का यह सपना पूरा होता।
बहुत अच्छी कविता है कुश भाई
ReplyDeleteअब क्या बोलें कुछ बोलने के लिए शब्द नहीं है मिल रहा है. बस आँखें नम हो गयी.
ReplyDeleteसुन्दर कविता
ReplyDeleteकन्या भ्रूण हत्या प्रकति से असंतुलन प्रक्रिया का एक ओर कदम है आदम जात का ...ठीक वैसे ही जैसे धीरे धीरे बाकी प्राणी लुप्त हो रहे है इस धरती से आदमी के सिवा...समलिंगी होना भी प्रकति का असंतुलन है ....जिस चीज से प्रकति आगे बढती है .जैसे की किसी नन्हे शिशु का जन्म ...वही कुदरत का नियम है ....हम इसमें अपनी दखलंदाजी करेगे .तो अपनी जाती ओर आगे आने वाले समाज का नुक्सान ही करेगे .
ReplyDeleteपता नही कैसे, मगर कभी कभी तुम इतना संवेदनशील लिख देते हो कि विश्वास ही नही होता कि तुम जैसा हमेशा मजाक करते रहने वाला व्यक्ति जिंदग के फलसफ़ों को इतनी गहराई से सोच कर फिर पन्ने पर उतारता होगा...!
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा कुश...!
very toching......
ReplyDeleteनन्हा फूल कोख में ही जब मुरझा जाता है तो कुदरत भी रो देती होगी .कितने सपने यूँ ही खिलने से पहले ही टूट जाते हैं...मार्मिक लिखी है यह रचना ..
ReplyDeleteankho ko to bhigoya hi anrman tak bhigo gai ye
ReplyDeletesarthak rachna .kalm jagrti to simit logo tak hi phunch payegi kuch aisi jagrti laye kalm ke sath jo jan jan tk phunch paye .
कविता दिल को छू गयी.
ReplyDeleteन जाने कब sthiti sudheregi?
बेहतरीन कुश भाई.... दिल को छूने वाली पंक्तियाँ...
ReplyDeleteबाँट प्यार सभी को
ReplyDeleteसबके दर्द मैं लेती..
गर माँ तेरी कोख से
जन्म मैं लेती....
अरे आप की कविता सीधी दिल मै उतर गई, बहुत भावुक कर दिया आप ने.
धन्यवाद
अभी मैने इसे ब्लांगबाणी से खोलने कि कोशिश कि लेकिन वहा से आप का ब्लांग नही खुल रहा था.
मन की कितने परते भीगती चली गयी...सामान्य-साधारण शब्दों में एक अनूठी रचना...
ReplyDeleteतुम नीरज जी से बार-बार "मंटो" के बारे में पूछते नजर आ रहे हो? यदि मासिक पत्रिका "नया ग्यानोदय" अभी मई वाला अंक पा सको कहीं से तो तुरत खरीद लो। ये अंक मंटो को समर्पित है। खास कर कृश्न चंदर द्वारा लिखा हुआ संस्मरण...पत्रिका नहीं मिले तो लिखना, मेरे पास दो प्रति है। एक भेज दूँगा!
संवेदनशील अभिव्यक्ति है..
ReplyDeleteमासूम पर मार्मिक !!
pyari si kavita mein badi si chinta..........
ReplyDeleteअनुराग भाई का और कुश भाई आपका ब्लोग
ReplyDeleteसिर्फ मोज़ील्ला से ही देख पा रही हूँ -
खास आप दोनोँ के लिये मोज़ील्ला लगाया
ताकि,
कमेन्ट कर पाऊँ !
...ये कविता की चर्चा पहले पढ चुकी हूँ .
.सँवेदना का सागर उमड पडा है ..
काश !
कोई माँ इसे पढे, जाने और ऐसी बच्ची
सँसार की सुँदरता मेँ चार चाँद लगाने के लिये
ज़िँदा रह जाये तो कितना अच्छा हो !
ना जाने कब रुकेगी ये विनाश लीला ? :-(
बहुत बढिया लिखा है ..
यूँ ही लिखते रहेँ
स स्नेह,
- लावन्या
काश सभी जन्मी-अजन्मी बेटियों का यह सपना पूरा होता।
ReplyDeleteप्यारी सी तस्वीर घुमती रही आँखों के सामने बस आखिरी लाइन....
ReplyDeleteग्रेट .....बस और क्या कहूँ शब्द नहीं हैं मेरे पास .
ReplyDeleteAdbhut bhav piroye hain
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
bahut badhiya Kush.... Antim panktiyan jaan dal gayi kavita me!!!
ReplyDeletekavi kush- jindabad.
ReplyDelete
ReplyDeleteयह मासूम सी चाह बड़े मार्मिक तरीके से रखी गयी है, पग पग उलाहना देती हुई सी यह घुटी चीख ज़वाब माँगती है ।
पर किससे... एक अपने समाज की माँगों को पूरा न कर पाने की भयभीत विकृत मानसिकता से, याकि उस सामाजिक व्यवस्था से जो इसकी जड़ों में है ? पहले बिन्दु पर तुम सफ़ल रहे हो.. पर इसके आगे ?
पुनः -
ReplyDeleteइसे एप्रूव कर देना जी !
Beshak...behtareen 'kavita' kahte hain aap...!
ReplyDeletehttp://kshama-bikharesitare.blogspot.com
जब केवल वाह निकले-बहुत सुंदर!
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