कुछ बातें दिल की दिल मैं ही रह जाती है ! कुछ दिल से बाहर निकलती है कविता बनकर..... ये शब्द जो गिरते है कलम से.. समा जाते है काग़ज़ की आत्मा में...... ....रहते है........... हमेशा वही बनकर के किसी की चाहत, और उन शब्दो के बीच मिलता है एक सूखा गुलाब....
Wednesday, October 15, 2008
... फुर्सत वाली चाय ...
फुर्सत वाली चाय
हाँ यही तो कहता था मैं..
सुरम्यी शाम जब गुनगुनाती
हुई आती थी घर हमारे....
कभी ऑफीस से घर जल्दी आता
तब मिलती थी..
.. फुर्सत वाली चाय..
मेरी उंगलिया चाय के प्याले से ज़्यादा
तुम्हारी गर्माहट से गरम
हो जाती थी.. तुम बिठाकर मुझे
आराम कुर्सी पर.. मेरी गोद में
बैठ जाती थी.. और तुम्हारी सांसो
की खुशबु चाय में मिल जाती थी..
क्या खूब होती थी वो..
फुर्सत वाली चाय..
तुम अंगूर की बेल जैसे.. झूल जाती
थी गर्दन पर मेरे.. और थाम लेती
मेरे हाथो को जैसे बारिश के बाद
पत्ते गिरती बूँदो को
थामा करते है..
और बिखेर देती थी मुस्कुराहट जैसे
सुबह बादलो में धूप..
बिखर जाती है.. और सितारे बिखर जाते
है जैसे रात में...
तुम नही जानती थी की..
तुम्हारी एक मुस्कुराहट.. ना जाने
कितनी गुड की डलियो सी मिठास ..
घोल जाती थी मेरी निगाओ में..
ये मुस्कुराहट.. मेरी दिन भर की
थकान उतार कर..
टंगा देती थी चिन्ताओ के साथ
खूँटी पर..
जब तक प्याला ख़त्म नही होता
उस चाय का.. तुम मेरी सांसो से
अपनी साँसे उलझा के रखती थी बस..
और मैं इन्तेज़ार करता रहता
था हमेशा की.. कब
ऑफीस से जल्दी घर जाना होगा..
अब भी इन्तेज़ार है.. आज शाम को टहलके
जल्दी घर आया था.. बाल्कनी
मैं बहू को देखा..
छोटे के लिए चाय लाई थी..
और आसमान से बूंदे गिरने लगी
दो तीन बूंदे लबो
पर अभी भी रुकी हुई है..
लगता है अब तुम वहा से पिलाती हो मुझे
.... फुर्सत वाली चाय
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फ़ुर्सत वाली चाय, क्या बात है? चाय की प्याली की तलब थी सो कविता से बुझ गयी!
ReplyDeletepahle wali fursat chai mile to koi harz nahi....baad vali nahi chahiye.... :) hmm...mithi hai...fursat wali aapki chay
ReplyDeletesundar.. swadist..chay nahi aapki rachna.. :-)
ReplyDeleteमेरी उंगलिया चाय के प्याले से ज़्यादा
ReplyDeleteतुम्हारी गर्माहट से गरम
हो जाती थी.. तुम बिठाकर मुझे
आराम कुर्सी पर.. मेरी गोद में
बैठ जाती थी.. और तुम्हारी सांसो
की खुशबु चाय में मिल जाती थी..
फुर्सत वाली चाय .दिल में उतर गई ..क्यों कि यह सच और ज़िन्दगी के करीब है बहुत ..बहुत बेहतरीन ..
आखिरी की कुछ पंक्तिया ख़ास तौर पे पसंद आयी ....कुछ बदले बदले से मिजाज नजर आते है ....पर हमें ये मिजाज पसंद आया ....
ReplyDelete"सुनो जब कभी भी बारिश होती है
तुम चाय में शक्कर सी घुल जाती हो"
क्या बात है! विचारों की लड़ी अद्भुत शब्दों में पिरोई हुई.
ReplyDeleteबहुत शानदार.
क्या बात है इस चाय की और आपकी कविता का मैं भी अब पऊंगा यही चाय । बहुत बहुत धन्यवाद अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteऔर आसमान से बूंदे गिरने लगी
ReplyDeleteदो तीन बूंदे लबो
पर अभी भी रुकी हुई है..
लगता है अब तुम वहा से पिलाती हो मुझे
.... फुर्सत वाली चाय
कविता अंत में ऐसा टर्न लेगी, सोचा नहीं था ! बहुत सुन्दर एहसास छोड़ गयी ये नज़्म दिल में...
और आसमान से बूंदे गिरने लगी
ReplyDeleteदो तीन बूंदे लबो
पर अभी भी रुकी हुई है..
लगता है अब तुम वहा से पिलाती हो मुझे
बहुत सुन्दरतम अभिव्यक्ती है ! शुभकामनाएं !
बहुत सुँदर हैँ आपकी नज़्म कुश जी ...
ReplyDeleteयादों के जंगल में जुगनुओं को छोड़ दिया आपने. पंक्तियाँ पढ़ते-पढ़ते सब अपनी यादों में खो कर किसी की खुशबु से महकने लगते है. मजा आ गया. अनवरत रहें.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भाव पुर्ण कविता के लिये
ReplyDeleteधन्यवाद
भावपूर्ण दर्दनाक रचना, काश लोग महसूस कर सकें इस संदेश को !
ReplyDelete.... फुर्सत वाली चाय!
ReplyDeleteसुन कर ही एक अलग सा आनन्द आता है।
पिलाने का शुक्रिया।
.... फुर्सत वाली चाय का आन्नद ही कुछ और है।
ReplyDeleteचाय की प्याली अच्छी... लेकिन जाते-जाते गम में डूब गई !
ReplyDeleteइन पंक्तियों के बिनाह पर कह सकता हूँ- एक परफेक्ट कवि की संभावनाओं से लैस-
ReplyDeleteऔर बिखेर देती थी मुस्कुराहट जैसे
सुबह बादलो में धूप..
बिखर जाती है.. और सितारे बिखर जाते
है जैसे रात में...
हालॉकि पूरी कविता में एक गजब का आकर्षण है, अंत का अवसाद भी चाय के खाली प्याले में कुछ भरता चला जाता है, और फुर्सत के क्षण भी यादों के बारिश में भीगे से जान पड़ते हैं।
ahsaason ke sang kalpna ka sunder sammishran.
ReplyDeleteasli badhai.
तुम नही जानती थी की..
ReplyDeleteतुम्हारी एक मुस्कुराहट.. ना जाने
कितनी गुड की डलियो सी मिठास ..
घोल जाती थी मेरी निगाओ में..
bahut pyari aur sachi hain ye panktiyan
पियो,पिलाओ..फुर्सत वाली चाय
ReplyDeletekavita bhi likhte hain!
ReplyDeletepar likhte hain achcha.
yaar! ye sahajta kahan se le aate ho!
ज़रूर पढिये,इक अपील!
मुसलमान जज्बाती होना छोडें
http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2008/10/blog-post_18.html
अपनी राय भी दें.
वाह, क्या जबर्दस्त कविता लिखी है ! अन्त तो एकदम अप्रत्याशित है ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आप हँसेंगे..........आपकी चाय विवरण में ऐसे निमग्न हो गई कि जब जब चाय की प्याली के साथ गोद में बैठने वाली बात आपने कही तो सहसा लगा कि ......"अरे संभल कर कहीं गरम गरम चाय छिटक कर जला न दे "
ReplyDeletelajawaab लिखा है आपने.सही में ये सुख मन में ऐसे रच बस जातें हैं कि इन्ही कि सुगंध जीवन को सुवासित रखती है और उर्जा देती रहती है.
bahut hi aakarshak shaili hai aapki likhne ki , kush ji ,bas aapki kavita ek nisang udaasi faila gayi...bahut hi apni si....
ReplyDeletebadi hi nostalgic hai ...
ReplyDeletesach...
Kavitaa kaheen door, door, ek sapnon ke gaaonme le gayee....pyar ek kitnaa saral jazbaa hota hai aur phirbhee kitnaa goodh....!
ReplyDeleteचाय भी इतनी जायकेदार हो सकती है...अब जाना.... बेहद खूबसूरत रचना...देर से पढ़ी लेकिन आनंद आ गया.
ReplyDeleteनीरज
bhavnao se mithi bani ye chai bahut hi laziz lagi,belated diwali wishes.
ReplyDeleteक्या मस्त लिखते हो कुश भाई , मज़ा आ गया ....
ReplyDeleteBahut hi sundar Kavita Kush.......Raho hamesh Khush
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