ठक ठक ठक!
ठक ठक ठक!
शहर की बदनाम गलियो में सुबह के आठ बजे कोई दरवाजा खटखटा रहा है.. अंदर से किसी आदमी की आवाज़ आई..
कौन है सुबह सुबह?
जी वो..
क्या है भई?
जी वो यहा पर..
क्या यहा पर?
यहा पर लड़किया....
अरे बाबूजी सुबह सुबह मस्ती सूझ रही है..
नही दरअसल..
हा जी सब पता है हमको.. बोलिए
आपके यहा पर लड़किया..
अरे लड़कियो के आगे भी कुछ बोलॉगे.. ??
लड़किया मिल जाएगी..?
हा हा क्यो नही आप हुकुम कीजिये पुरानी शराब की तरह है हमारे यहाँ का माल..
नही मुझे जवान लड़किया चाहिए
क्या मतलब?
यही कोई पंद्रह सौलह साल की..
ओहो!! बड़े रसिक लगते हो बाबू.. अंदर आकर पसंद कर लो
नही कोई भी..
अच्छा .. तो ये बात ..
कितने रुपये होंगे?
एक घंटे के दो हज़ार रुपये..
और पाँच घंटे के?
अब उस आदमी ने घूर कर देखा. और शरारती अंदाज़ में बोला.. क्यो बाबू कोई दवाई लेते हो क्या..
देखिए आप अपने काम से मतलब रखिए..
हा हा जी हमे क्या मतलब.. आप आइए अंदर..
नही मैं उन्हे साथ ले जाऊँगा अपने..
साथ में? क्यो जी कोई होटेल में...
देखिए आप ज़रूरत से ज़्यादा बोल रहे है..
अरे जनाब आप तो बुरा मान गये.. मैं अभी भेजता हू..
ये है बिंदिया.. इसे ले जाइए..
ऐ बिंदिया! साहब को खुश करना अच्छे से..
बिंदिया अधखुली आँखो से साहब को देख रही थी.. शायद अभी नींद पूरी नही हुई थी..
कोई और.. ?
क्यो साहब ये पसंद नही आई क्या?
नही ऐसी बात नही.. इसे तो ले ही जाऊँगा और भी कोई है क्या?
ऐ बाबू करना क्या चाहते हो? कोई गंदी फिल्म तो नही बना रहे हो..
अरे नही आप ग़लत समझ रहे है.. आप बताइए ना कोई है क्या? मैं एक घंटे के चार हज़ार दे दूँगा..
अरे साहब कैसी बात कर रहे है हुकुम कीजिए आप तो बस.. जितनी मर्ज़ी ले जाइए..
और हो सकती है..?
हा हा क्यो नही.. अरे सुन बिंदिया जा और बुला ला और पाँच को..
आइए साहब बैठिए.. कुछ लेंगे चाय वाय..
नही.. उसकी कोई जरूरत नही..
सारी लड़किया सहमी हुई खड़ी थी.. वो आदमी चिल्लाया.. जाओ रे साहब के साथ..
साहब ने नोटो का एक बंडल उसकी और बढ़ा दिया..
पैसे लेते हुए वो फिर एक बार बोला साहब जल्दी छोड़ जाना.. अपनी बच्चिया है..
साहब अपनी गाड़ी में सबको बिठा के चल दिए.. शहर की एक संभ्रांत कॉलोनी में.. इन लड़कियो ने ऐसे घर सिर्फ़ फ़िल्मो में देखे थे.. साहब ने एक बड़ी कोठी के आगे गाड़ी रोकी.. और सबको अंदर आने को कहा..
लड़किया विस्मय नज़रो से एक दूसरे को देख रही थी.. एक अजीब सा डर लग रहा था उन्हे.. साहब अंदर गये और अपनी धर्म पत्नी से बोले.. कही कोई लड़की नही मिली.. फिर इन लड़कियो को लाया हू.. पैसे देकर.. छ्: ही मिली है.. बाकी तीन का इंतेज़ाम तुम खुद कर लो.. और जितनी जल्दी हो सके अष्टमी का पूजन ख़त्म कर देना.. एक घंटे के हिसाब से आई हुई है..
इतना बोलकर साहब ऊपर वाले कमरे में चले गये.. साहब का बेटा खड़ा खड़ा देख रहा था.. साहब की पत्नी के लिए ये मुसीबत थी की बाकी तीन लड़किया कहाँ से लाए.. उन्हे तो ये भी नही पता था की पड़ोस में किसी के यहा कोई लड़का है या लड़की..
"ये पन्ना है एक डायरी का 16 सितंबर 2080 के दिन लिखा गया है.. लड़कियो को ऐसे लाना पड़ रहा है.. शुक्र है अष्टमी का पूजन अभी बंद नही हुआ है.. पता नही लोग अब भी धार्मिक है या फिर डर की वजह से पूजा पाठ कर रहे है.."
भाई मैं तो पढ़ते २ सहम गया था की ये कुश भाई को आज क्या हो गया है ?
ReplyDeleteपर आखिरी पैरा में साँस आई और आपने तो गजब का यु-टर्न लिया ! शायद कहीं ना कहीं
आप जो कह रहे हैं , वो ही बात है ! बहुत शुभकामनाएं !
very much BOLD writing..... aur achcha kataksh bhi ladkiyo aur ladko ke aane wale ratio par.... thanks...
ReplyDeleteबहुत कमाल की पोस्ट भाई....एक परिपक्व लेखक बन गए हो भाई...बधाई हो...लेखन शब्द और भाव..उच्च कोटि के...
ReplyDeleteनीरज
अद्भुत !
ReplyDeleteमान गए कुश मियां, पहले तो लगा ये क्या होगया है आज, कुश भी ओछी हरकतों पर उतर आए लेकिन दिल को तसल्ली नहीं हुई। यदि और किसी का होता तो ऊपर से ही अलविदा कर दिया होता पर कुछ हैं अपने जिनके ऊपर पूरा विश्वास बन चुका है। २०८० का पोस्ट है ये गजब। शायद भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार नहीं रुके तो और भी बुरे दिन देखने पड़ सकते हैं।
ReplyDeletebahut shandaar likha hai aapne
ReplyDeleteचार पीढियां और होगीं, लड़कियां तब भी बाजार में रहेंगी?!
ReplyDeleteएक अच्छा और समग्र लेखन ।
ReplyDeleteइसका अंत बिल्कुल ही अप्रत्याशित ।
हा हा हा . कुश भाई !
ReplyDeleteआप कमाल की पोस्ट लिखते हैं. पढ़कर हँसी आ गई. मेरे देश में धर्म अभी जिन्दा है क्या इतना ही काफी नहीं? सस्नेह .
कुश जी साँसे थम गई थी . किंतु ऐसा सुखद अंत .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया .
आशा है देवी के प्रति आस्था और सम्मान सिर्फ़ पूजा पंडाल तक और नौ दिनों तक न रहकर , हमेशा रहेगी .
, my god, begning was so horrible that what is going on, but thanks god, mind blowing end. great presentation'
ReplyDeleteregards
बहुत बेहतरीन लिखा ! गजब की रचना !
ReplyDeleteसीमा जी से सहमत हूँ ! शुरूआत में सोच रहा था कि कुश क्या परोस रहे हैं, मगर अंत....वाह
ReplyDeleteऔर फिर ...जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी .... इस पोस्ट पर लागू होता है !
आपकी कलम में बड़ी धार है ...
kush ji,
ReplyDeletemain vismay-vimugdh waqt aur haalat ko padhti gai,dil me bechaini hui,aankhen bhari par kuch kahna mumkin nahi
bas aapki kalam ne aaj kuch alag sa likh diya
Kush such bataoon to mai jaan gaya tha ki end me kuch is terah ka hi hoga, jaahir hai ke hum peechle pare lekhon ke uppar ek dharana bana lete hain. Bahut bara kataksh kiya hai, jabardast.
ReplyDeleteपांडे जी जो प्रश्न उठाया है ,अपने आप में औरत की स्थति ब्यान करता है....दुनिया कितने ही मशीनी युग में पहुँच जाये औरत हमेशा शोषित वर्ग में रहेगी .हाँ उसके शोषण जो तरीके बदल जायेगे
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन
ReplyDeleteअद्भुत चमत्कारी पोस्ट! पढ़ने वाले को बेचैन बनाकर अचानक ठण्डी फुहार डाल दी आपने।
ReplyDeleteलेकिन, मुझे पोस्ट का ‘शिड्यूल्ड टाइम’ कुछ ज्यादा ही लम्बा लग रहा है। २०८० आते-आते मामला नयी करवट ले चुका होगा। लड़की पैदा होने पर लोग खुशियाँ मनाएंगे तब तक।
आपने जो कहानी बतायी वह तो दस-बीस साल में ही आम बात हो जाएगी।
पूजेगे भी और खरीद-बिक्री भी करेंगे। कैसा दोमुहां समाज है। बहुत साहसिक रचना।
ReplyDeleteधन्य हो महात्मा पुरूष
ReplyDeleteवीनस केसरी
शावश कुश, यह कोठे वालिया भी तो किसी की (हमारी भी हो सकती है) बेटिया ही तो है, जो किसी तरह से गलत हाथो मे पहुच गई, हमारा फ़र्ज है इन्हे बेटियो जितना ही मान दे, इज्जत दे, एक तरफ़ तो हम नारी नारी ओर आजादी की बात करते है जब मोका आता है तो हमे अपने सारे असुल भुल जाते है, यह भी हमारे इस समाज का एक अंग है, हमारी हि किसी भुल से यह जहा पहुची है, यह हमारी ही बेटिया, बहने है, फ़िर इन से नफ़रत केसी
ReplyDeleteधन्यवाद
काश आगे ऐसा होता कि वो सेठ और उसकी पत्नी जी उन बच्चियोँ को आज़ादी दीलवा देते -
ReplyDeleteऔर अच्छा जीवन जीने मेँ सहायता करते तब सुखाँत होता
-लावण्या
good thought well presented....really a burning issue
ReplyDeleteगजब भाई कुश...क्या कल्पना है. वैसे इस दिन कुवांरियों को भोज कराते हैं शायद.
ReplyDeleteवास्तविक और सशक्त ।
ReplyDeleteशुरुआत चौंका गई थी लेकिन एंड पढ़कर मैं हैरान नही हुयी..क्योंकि इतना तो यकीन था की शुरुआत में जो लिखा था , किसी मकसद के तहेत लिखा होगा...आज जो हालात हैं वो वाकई दुःख देते हैं...ये सोच आज के दौर की है जब हम खुदको बड़ा उदार और खुले दिमाग का कहते हैं...जबकि सच तो ये हैं की आज हम सदियों पुराने जाहिलों को भी शर्मसार कर रहे हैं...बहुत शानदार
ReplyDeletebhaut sunder rachana
ReplyDeleteregards
यदि वाकई में 2080 की कल्पना है तो आपसे एक तकनीकी गलती हो गई. एक घंटे के लिए 2 हजार नहीं 2 लाख से 2 करोड की संख्या सोचें.
ReplyDeleteआलेख सशक्त है एवं सोचने वाले को चिंतन के लिये बहुत सामग्री प्रदान करती है.
लेख का आरंभ पढ कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मानी हुई बात है कि आप जैसा चिट्ठाकार आलेख का अंत एकदम बौद्धिक तरीके से करेगा -- एवं तभी पाठक इसका आरंभ समझ पायेंगे!!
-- शास्त्री
-- हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
kushbhai....achanak ye kya mod le liya? vaise msg accha tha...sawal bada gehra tha...
ReplyDeletebahur sundar post bhai apke bhi kya kahane . dhanyawad.
ReplyDeleteअरे, क्या वाकई में ? वहाँ मेरे ब्लाग पर भी एक का टोटा पड़ा है ! बताना चाहिये था न, पूल कर लेते, तुम भी सस्ते में निपट जाते.. मेरा भी काम बन जाता । अगली नवरात्र में ध्यान रखना !
ReplyDeleteकाश ! फिल्मी दुनिया के बुद्धिमान लोग आप जैसे लेखकों से भविष्य के कल्पना की फिल्में लिखवाते तो कितनी यथार्थपरक, उद्येश्यपूर्ण फिल्में बनती और अनेक हादसे....लव स्टोरी २०५० जैसे रचने से बच जाते. २०८० को आपने महिमामंडित कर दिया है...वस्तुतः यह आज से दूसरे या तीसरे जनगणना के बाद ही यह स्थिति गोचर होगी.
ReplyDeleteक्या कहें ऊपर सबने सब कुछ कह ही दिया है वाकई बहुत अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteलड़कियों के घटते अनुपात ko बेहतर ढंग से अवगत कराया
ReplyDeleteलेकिन अष्टमी पूजन का संदर्भ तार्किक नहीं लग रहा
समीर जी से आधा सहमत हूं क्योंकि कुंवारी या अविवाहित
नहीं
अष्टमीपूजन में उन कन्याऒं को भोजन-पूजन कराया जाता है
जो रजस्वला ना हुई हों
मैं 4-5 लाइन पढ़कर ही समझ गई थी की आप क्या कहना चाहतें हैं, किस और बहाव जा रहा है कहानी का ..विस्वाश था जो बरकरार रहा ..कहानी से ज्यादा इस विश्वास को बनाये रखने का धन्यवाद ..
ReplyDelete..पर एक भूल कर बैठे १२ साल से कम की लड़की को पूजा जाता है जो रज गुण से मुक्त हो ..बहरहाल सुंदर लेख ..बधाई
इसको देर से पढ़ा और पढ़ कर निशब्द हो गई ..बहुत ही बेहतरीन ...
ReplyDeleteसआदत हसन मंटो की कहानियों का अंदाज कुछ-कुछ ऐसा ही होता था, और अंत में हतप्रभ कर देनवाला वैसा ही अंदाज यहॉं भी नजर आया। पर मंटो के नसीब में काफी बदनामी आयी थी, नग्न यथार्थ को उकेरने में ये खतरा तो रहता ही है।
ReplyDeleteरेट तो बड़े सस्ते हैं !
ReplyDeleteशुरू में तो लगा की कहाँ मूड गया है आज कुश का... पर अंत में कूल हो गया.
बाप रे बाप,आपने तो आतंकित और निःशब्द ही कर दिया.पहले डराकर झकझोरा और फ़िर इतना जबरदस्त व्यंग्य.........लाजवाब लेखन.
ReplyDeleteउपर की हकीकत से हम सभी वाकिफ़ यें
ReplyDeleteपर हां नीचे की पंतियों की हकीकत देखनी बाकी हैं !!!!!!