नामचीन लोगो के शेरो पर गुस्ताख लोग तालिया पीट रहे है.. गुमनाम शायर ने पान की पीक थूकते हुए कहा है... नामुराद..! सब के सब..
और फिर उल्टे पांव पर सीधा पांव रखकर दोबारा बैठ गया.. नामचीन ने अपने आगे पड़ी प्लेट से पान उठाकर मुंह में ठूंसा.. दोनों होंट भड़कते तंदूर से लाल हो चुके है.. पता नहीं अन्दर से जो निकलेगा वो पचाने लायक होगा या नहीं.. गुमनाम की बैचेनी बढ़ रही है.. उसने टाँगे बदल ली है.. गोया टाँगे नहीं किसी जाहिल का ईमान हो..
हो गए उनके आगे बेनकाब.. जिनसे पर्दादारी थी..
पीट गए सब सरे राह.. जिनसे भी उधारी थी...
हिम्मत तो देखिये.. फिर से खड़े हो गए पैरो पर..
ऐसे मामलो की तो.. पहले से ही तैयारी थी...
वाह! क्या शेर दहाडा है.. पास बैठे एक और नामचीन ने कहा.. बहुत ही कातिल शेर.. शुभानल्लाह!!
गुमनाम ने पांव की जगह फिर बदल ली.. और इस बार ना मुराद से पहले 'साले' भी लगा दिया... तो शब्द कुछ यु बना.. साले नामुराद!
रात भर जब नामचीन लोग.. शेर दहाड़ दहाड़ के ढीले हो गए तो किसी ने गुमनाम को आवाज़ मार दी.. गुमनाम फुर्ती से चप्पल उतार कर स्टेज पर चढ़ गए.. नामचीन लोग उसी बेलन के आकार वाले तकिये का सहारा लेकर बैठ गए जिनसे घरो में रोटिया बनायीं जाती है.. गुमनाम ने प्लेट में देखा पान बचे नहीं थी.. मगर लाल लाल कत्था जरुर उन्हें घूर रहा था.. गुमनाम ने भी बदतमीजी करने में देर ना लगाते हुए एक शेर ठोंक डाला..
गुजारते है जो.. ज़िन्दगी अपनी उधारो में..
पिट जाते है युही.. सरे आम बाजारों में...
छोटे मोटे जख्मो से कोई फर्क नहीं पड़ता उनको
बदन पर ऐसे टुच्चे निशान तो होंगे हजारो में...
वाह वाह हुज़ूर ये होता है शेर.. क्या तो दहाडा है.. भई माशाल्लाह.. शुभानल्लाह!! ... गुस्ताख लोगो ने शेर की जम कर तारीफ़ कर दी..
नामचीन ने अपने पीछे से वही बेलन के आकार का तकिया हटाया और उल्टे हाथ की तरफ करवट लेकर बोले.. नामुराद! सब के सब..
फिर तो बस दहाड़ पे दहाड़ और करवट पे करवट.. करवट पे करवट और दहाड़ पे दहाड़.... इधर दहाड़ उधर करवट.. उधर करवट इधर दहाड़..
बस फिर क्या होना था..? बची रात में जब तक शमा में तेल डाल डालकर जलाना मुनासिब था.. जलाया गया.. गुमनाम को नाम मिल चुका था.. वो शेर पे शेर दहाड़ रहा था... नामचीन ने नामुराद के आगे ऐसे ऐसे शब्द जोड़े कि.. साला तो फिर भी छोटा लग रहा था..
शेरो की कुछ इसी तरह की दहाडो से पहले नामचीनों ने और फिर गुमनामो ने सारी की सारी महफ़िल लूट ली..
ईर्शाद...
ReplyDeleteमजेदार !
ReplyDeleteइस मंच पर भी पर भे ऐसा ही होता है !
नामचीन और गुमनाम बारी-बारी से दहाडते और करवट बदलते हैं
कुश प्यारे...तेरा जवाब नहीं...कोई तुझसा नहीं हजारों में...(धुन: हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं...) क्या लिखा है..वाह...
ReplyDeleteवैसे किस मुशायरे की चर्चा आपने की है यहाँ...:))
नीरज
गुजारते है जो.. ज़िन्दगी अपनी उधारो में..
ReplyDeleteपिट जाते है युही.. सरे आम बाजारों में...
बहुत खुब कुश भाई, मान गये आप को ओर आप के शॆरो को, आज कल ब्लांग जगत मै भी कुछ ऎसा ही चल रहा है...
धन्यवाद
Waah !!
ReplyDeleteबहुत खूब....बहुत ही रोचक प्रस्तुति है...
ReplyDelete"छोटे मोटे जख्मो से कोई फर्क नहीं पड़ता उनको
बदन पर ऐसे टुच्चे निशान तो होंगे हजारो में..."
गुमनाम से नामचीन की दूरी तय करते करते हजारों ज़ख्म से
दो चार तो होना ही पड़ता है
mujhe bhi aisa hi kuch yaad aa raha hai...tumne kahi uski hi to baat nahi ki thi na... :P
ReplyDelete"दोनों होंट भड़कते तंदूर से लाल हो चुके"
ReplyDeleteसटीक प्रतीक चुना आपने। बड़ा करवटिया लेख:) बधाई॥
बेचारी महफ़िल। किस दिन की बात है? जब अभी पार्टी शार्टी हुई थी?
ReplyDeleteये छाया वादी बड़ी बड़ी बातें जरा ऊपर से गुजर गयीं....नामदार और गुमनाम ?????? मामला क्या है ???? निगाहें कहाँ और निशाना कहाँ है?????
ReplyDeletemushayara achha raha....
ReplyDeletewo kaha hai na...maal-e-muft, dil-e-beraham. loote jaao :D
ReplyDeleteकिबला ...फिराक साहब याद आ गए .ऐसे मौको पे उनके बारे में कई किस्से है ...पर यहाँ लिखे तो मामला कुछ "सनसनी " सा हो जाएगा ...(वही स्टार न्यूज़ पे एक दाढ़ी वाली साहब आ कर कहते है .सनसनी )...
ReplyDeleteजैसे हमारे नॉन शायर दोस्त ने किसी का एक शेर कहा था ....गर बड़े लोग शेर माने ....
"कोई सौ बार तेरी गली से गुजरा हूँ
कोई सौ बार तू अपनी छत पे नहीं आयी "
ओर एक थे दुष्यंत कुमार ....उन्होंने कभी फरमाया था .
"हम लोग उंचे पोल के नीचे खड़े रहे
उल्टा था बल्ब मगर रौशनी ऊपर चली गयी"
बाकी .....बाद में
पहले वाह वाह तो कह लूँ।
ReplyDeleteसच आपकी लेखनी का स्टाईल ही अलग है।
छोटे मोटे जख्मो से कोई फर्क नहीं पड़ता उनको
बदन पर ऐसे टुच्चे निशान तो होंगे हजारो में...
वाह क्या बात है।
सबको बहुत कुछ याद आया हमें तो पटना का कवि सम्मलेन याद आया...
ReplyDeleteपटना दूरदर्शन के पास खुले आसमान में कई कवि विराजे थे... प्रदीप चौबे, गोपाल दास नीरज, अशोक चक्रधर (चीफ) , २-३ कवि राजस्थान के भी रखे हुए थे... वीर रस के कवि थे.. एक लोकल कवि था वो दैनिक जागरण का पत्रकार भी थे... उनकी इतनी हूटिंग हुई की आधा-अधुरा छोड़ कर आना पड़ा... मंच अना देहलवी ने संभाला... फिर अशोक चक्रखर ने लाइन मार दी... अना ने कहा- मुझे अशोक जी से ऐसी उम्मीद नहीं थी... मिटटी पलीद होते देख अशोक ने 'अना बहिन' बोल दिया... वोह रात आज भी जिंदा है... हमलोग २-३ बजे सुबह तक हँसते रहे थे... मुआ बारिश ना आया होता तो सुबह तक कवि सम्मलेन चलता रहता...
एक बात और हुई थी...
राजस्थान के कवि ने राजद (राष्टीय जनता दल के एक बड़े नेता के सामने) एक धारदार कविता परोस दी अखिलेश यादव (नेता) को गुस्सा आ गया... बड़ी मान-मनौव्वल के बाद मुआमला शांत होया था जी...
पर अलगे दिन दैनिक जागरण का समाचार और भी जुदा था...
जागरण के पत्रकार ने श्रोताओं का मन मोहा... खूब बजी तालियाँ...
बहरहाल, आपका यह पोस्ट तो मुझे व्यंग सा लगा को अपने में कई हालत और घटनाक्रम समेटे है...
sid khuub jaagaa....
ReplyDelete
ReplyDeleteज़ालिम वह ग़ुमनाम मैं न था, वरना मुलाहिज़ा अर्ज़ करने से पहले ही किसी नामचीन का शाग़िर्द होना कुबूल कर लेता ।
नामचीन इन्कार तो करते ना, और किबला नामुराद अपने हवन्नक तुकबँदियों पर मिली वाहवाही सँभाल न पाते ।
ग़र एक अदद ख़ुदाबाप ( गॉडफादर ) तैनात कर लिया जाय, फिर तो हवन्नक में भी दिखता रौनक ही रौनक !
एक बानगी ठेलता हूँ :
बहार लूट लें, फूलों का कत्ल-ए-आम करें
वो जैसे चाहें इक ग़ुलिस्ताँ इन्तज़ाम करें
क्या बात है कुश साहब ? महफ़िल रूमानी हुई जाती है आपकी ! आपके ज़मानों में कोई बड़ी तब्दीली हुई मालूम पड़ती है। हा हा। बहुत ख़ूब पोस्ट।
ReplyDeletebahut badhiya ..aapne to bilkul manch wali prstuti ki jhalak dikha di....achcha laga..dhanywaad ji
ReplyDeleteनाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा...
ReplyDeleteमेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे...
जय हिंद...
बेचारी :)
ReplyDeleteलो मुझे एक एसएम (ओंकारा स्टाइल)आ गया:
ReplyDeleteमहफ़िल सजी थी जाम का था दौर
जाम में क्या था ये किसने किया गौर ?
जाम में लहू था मेरे अरमानों का
और सब कह रहे थे...
एक और, एक और !
बहुत गहरी पोस्ट है जो मुझ जैसे कमअक्ल के सर के ऊपर से गुजर गयी :(
ReplyDelete"छोटे मोटे जख्मो से कोई फर्क नहीं पड़ता उनको
ReplyDeleteबदन पर ऐसे टुच्चे निशान तो होंगे हजारो में..."
बड़ी मोटी चमड़ी है भाई! :)
बहुत खूब,
ReplyDeleteइशारो ही इशारों मे दिल लेने वाले ,
बता ये हुनर तुने सीखा कंहा से।
अरे ये महफ़िल तो जानी-पहचानी सी लगी है...
ReplyDeleteमुझे जो पता होता कि मेरे दर्ख्वाश्त पे इतनी जल्दी पोस्ट लगा दोगे, तनिक पहले कर देता ये दरख्वाश्त...
चलते-चलते, डाक्टर साब(निठ्ठले वाले नहीं) ने जिस शेर को दुष्यंत का बता कर चल दिये हैं, वो बशीर बद्र साब का है। अब ऐसी मुशायरों की रपट लगाओगे कुश तो यही गड़बड़झाला होगा
गुमनाम को सलाम बजरिये इस पोस्ट लेखक !
ReplyDelete"शेरो की कुछ इसी तरह की दहाडो से पहले नामचीनों ने और फिर गुमनामो ने सारी की सारी महफ़िल लूट ली"
ReplyDeleteमुझे इस पंक्ति में किसी पर व्यंग्य दिख रहा है, क्या मैं सही समझ पाया हूं??
प्रणाम
" गोया टाँगे नहीं किसी जाहिल का ईमान हो..."
ReplyDeleteइस जुमले पर दाद देने वापस चला आया...
और जयपुर जल्द ही आना होगा, ट्रीट तुम्हारी तो वाकई उधार है।
bounce.....!
ReplyDeleteबहुत खूब,
ReplyDeleteमुम्बई टाईगर
हे प्रभू यह तेरापन्थ
कुश जा बैठा पेड़ पै, पोस्ट दई लटकाय।
ReplyDeleteजाकी जैसी भावना, वैसा अर्थ लगाय ॥
वाह क्या महफिल जमाई है! आनंद आया! :)
ReplyDeleteलो जी मेजर साहब कान पकड़ माफ़ी ........शुक्र है पहले वाले को हमने बशीर बद्र का नहीं बतलाया .....
ReplyDeleteतो यूँ मिला गुमनाम को नाम[aur mahfil bhi! बढ़िया!
ReplyDeleteबहुत दिन के बाद आये, गज़ब आये...
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteसभी की भेजी हुई कवितायें
उम्दा लगी
अता - पता भी बता देते
ये मुशायरा हुआ कहाँ , कुश भाई :)
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसुख, समृद्धि और शान्ति का आगमन हो
जीवन प्रकाश से आलोकित हो !
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एक बार फिर व्यंग्य में कूद पड़े कुश भाई , जो भी लिखते हो अच्छा लिखते हो
ReplyDeleteकमाल कर दिया। शेयर-ओ-शायरी भी गजब की थी।
ReplyDeleteछोटे मोटे जख्मो से कोई फर्क नहीं पड़ता उनको
ReplyDeleteबदन पर ऐसे टुच्चे निशान तो होंगे हजारो में...
मजा आ गया आपकी महफिल मैं ..
इस मजेदार महफ़िल ने दांतों को खूब हवा लगाई ...
ReplyDeletehahaha sher dahada
ReplyDeletekya baat hai
नामचीनों ने और फिर गुमनामो ने सारी की सारी महफ़िल लूट ली..
mushayara ki aisi jhalak kabhi nahi padhi
bahut achcha
क्या बात है...
ReplyDeleteलूटने वाले को कौन रोक पाया है। बस एक उपाय यही है कि इससे पहले कोई और लूटे, आप इस मौके को भुना डालें।
ReplyDelete------------------
और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।
महफ़िल तो मस्त सजायी तुमने...मगर एक निवेदन है आगे से जब भी कोई शेर दहाड़े तो हमें भी कृपया सुनने के लिए निमंत्रित किया जाए!
ReplyDeletebahut din ho gaye
ReplyDeleteab naya kuch aana chahiye