सुबह दस्तक दे चुकी है.. मस्जिद की तरफ से अजान सुनाई दे रही है.. अँधेरा अभी है थोडा सा.. गाडी फूटपाथ पर पहुची और अखबारों का बण्डल फेंका.. अखबार वाले ने अख़बार उठाया.. आँखे मली और साइकिल उठाली..
इधर मालिनी की भी आँख खुल गयी.. आज थोडी थकान लग रही है.. आखिर सातवा महिना चल रहा है.. वो जानती है उसे क्या करना है.. तैयारी कर रही है.. बस उसे देर नहीं हो जाये..
साइकिल पर तेजी से पैडल मारता हुआ अखबार वाला गली में घुस रहा है.. मालिनी इस बात से बेखबर है की बगल वाले कमरे से बालकनी का दरवाजा खुल चुका है.. अखबार वाले ने पहला अखबार फेंक दिया है.. आँठवा अखबार इसी घर में गिरेगा.. मालिनी जल्दी से जल्दी नहाकर बाहर आना चाहती है.. चौथा अखबार भी फेंक दिया अखबार वाले ने..
मालिनी जल्दी से बाहर आने की कोशिश कर रही है॥ ये सातवा अखबार भी फेंक दिया उसने... बालकनी के नीचे आ चुका है अखबार वाला॥... ऊपर बालकनी में देखता है और सहम जाता है.. घोष बाबु खड़े है अखबार मांग रहे है.. अखबार वाला सोच रहा है क्या करे। घोष बाबु चिल्लाये... अबे देता क्यों नहीं है अखबार..
मालिनी ने सुन लिया वो भागी उसे रोकना होगा.. अखबार वाला सोच रहा है क्या करे ? घोष बाबु की बैचैन आँखे उसे मजबूर कर रही है.. वो अखबार फेंकने के लिए हाथ उठाता है.. मालिनी तेजी से भागती है.. अखबार हवा में उछला जा चुका है.. मालिनी जैसे ही पहुचती है.. घोष बाबु जोर से चिल्लाते हुए अन्दर की तरफ़ भाग जाते है.. घोष बाबु जोरो से रो रहे है. मालिनी को जिस बात का डर था वही हुआ... घोष बाबु कमरे के अन्दर चले गए और जोर जोर से दीवार पर सर मर रहे है... मालिनी की आँखों में आंसू है... पर वो जानती है ये उसे अकेले करना है वो इंजेक्शन में दवाई भर रही है... घोष बाबु ने हाथ उछाल दिया॥ मालिनी फ़िर से उनकी तरफ़ लपकी... इस बार उसने हाथ पकड़ कर इंजेक्शन लगा ही दिया॥ घोष बाबु की आँखे बंद हो रही है वो नीचे गिर चुके है... मालिनी ने उनके सर के नीचे तकिया रख दिया है... आँखों से गिरते आंसू लिए उसने अखबार उठाया है... उसे तो कोई इंजेक्शन लागने वाला भी नही है... आख़िर उसे ही अपने आने वाले बच्चे और अपने ससुर को संभालना है... उसने अखबार को खींच कर दीवार पे मारा है...
और रोते हुए देख रही है दीवार पर लगी अपने पति की तस्वीर को और पूछ रही है क्यो नही ले गए हमें भी साथ... वैसे भी कौनसा जी रहे है हम... रोज़ सुबह बाबूजी की ये हालत देखी नही जाती... हर रोज़ इस उम्मीद पर की आज उस आतंकवादी को सजा मिलेगी जिसने उनके इकलौते बेटे को लील लिया... मेरे सुहाग को मुझसे छीन लिया और एक अजन्मे बच्चे के बाप को... जिसकी तो कोई गलती भी नही थी... डाक्टर कहते है बाबूजी की दिमागी हालत ठीक नही ... मैं अकेली कैसे करू ये सब... अब और नही देख सकती मैं ऐसे...
आज रात मालिनी ने एक फ़ैसला कर लिया है...
अगले दिन अखबार वाला फ़िर से आया है आज कोई बालकनी में उसे दिख नही रहा है... उसने अखबार फेंक दिया है मगर कोई आया नही... बाबूजी चैन से सो रहे है मालिनी भी नही उठ रही... पता नही कल रात को लिया गया मालिनी का फ़ैसला सही था या ग़लत...
पर अखबार में आज की ताज़ा ख़बर है वो आतंकवादी नाबालिग है...
कुश भाई आपकी परिपक्वता देख कर हैरान हूँ...इस उम्र में ऐसी कहानी...ये किसी कमाल से कम नहीं...आप पर सरस्वती माँ का वरद हस्त है...ये बात सिद्ध हो चुकी है अब...लिखते रहो...
ReplyDeleteनीरज
dravit kar diya bhai...............
ReplyDeletebahut khoob !
शुरू से अंत तक बांधे रखने वाली भावनाओं से भरी एक बेहतरीन रचना
ReplyDeletegalat hai faisla...sarasar galat hai.
ReplyDeletekahani behad khoobsoorat hai, sacchi hai, bandhe rakhti hai, par mujhe iska yun khatm hona ek ajeeb bechaini se bhar gaya.
बहुत दर्दनाक है.. पुजा ठीक कह रही है.. नकारात्मक अंत?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कहानी बुनी है कुश आपने .अंत तक बांधे रही ...पिछले दिनों घटे घटना क्रम का ही हिस्सा लगी यह .
ReplyDeleteअखवार ............. आखिरी बार . दर्दनाक , और आतंकी की उम्र उसके अपराध से बड़ा मुद्दा बना दी गई .
ReplyDeleteओह!!!
ReplyDeleteबहुत परेशान करेगी यह कथा कई दिनों तक!
क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फ़ैसला मेरे हिसाब से गलत होगया अगर कहानी ही है तो. और अगर किसी सत्य घटनाक्रम से संबंधित है तो कहानीकार के हाथ बंधे हुये हैं.कोई कर भी क्या सकता है?
ReplyDeleteरामराम.
बेहतरीन !
ReplyDeleteऐसा लगा कोई कसी हुयी डाक्यूमेंट्री चल रही हो सामने !
आखिर में कहने के लिए कुछ बचता नहीं !
बस एक बेचैनी ओढे दर्शक थके क़दमों से वापस आ जाता है !
आज की आवाज
समीर सर सही कह रहे हैं..... बहुत परेशान करेगी यह कथा कई दिनों तक!
ReplyDelete... बेहतरीन ढंग से बाँधे रखा आपने अंत तक..
ऐसे ही लिखती रहीये कुश भाई .दिल सहम गया ..
ReplyDelete- लावण्या
ek behatarin rachana ........unda banawat our bunaawat .......purn sampreshniyataa
ReplyDeleteतन्मयता के साथ पढी जाने वाली कथा .बहुत सुंदर .
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी और सोचने को मजबूर कर देने वाली कहानी के लिए धन्यवाद...!आपका प्रस्तुतिकरण बहुत पसंद आया...
ReplyDeleteआज की वास्तविकता दर्शाता संदेश है इस कहानी में।बहुत बढिया!!
ReplyDeleteक्या कहूं। बेहद कड़ुवा सच।
ReplyDeleteबहुत धांसू है। लेकिन बहुत ड्रामेबाजी है पोस्ट में!
ReplyDelete
ReplyDeleteभई कुश, ऎसे पलायनवादी अँत की आशा न थी ।
सो, पोस्ट को पढ़ते समय की सँवेदना, मालिनी के अँतिम निष्कर्ष ने क़ाफ़ूर कर दिया ।
तुम चाहते तो उसे रोक सकते थे । अच्छा न लगा, सो लिख दिया ।
तुम जान ही चुके होगे कि आजकल मेरी टिप्पणियों की टैगलाइन क्या है ?
ड्रामेबाजी से मतलब मेरा यह है किसी आतंकवादी को सजा न मिले तो प्रभावित लोग क्या अपनी जान दे देते हैं? न जाने क्या फ़ैसला करवाया तुमने मालिनी से। उठ नहीं रहे इसलिये यह कयास मैं लगा रहा हूं कि शायद मालिनी ने जीवनलीला समाप्त कर ली! जिंदगी क्या इस तरह जीते हैं लोग! बहुत भावुक और अपरिपक्व बात है इस तरह की बातें सोचना और उनको ग्लैमराइज करना। शायद मेरी बात बुरी लगे लेकिन मुझे जो समझ आया वह लिख रहा हूं!
ReplyDeleteकुश भाई सही लिखा आप ने जब अपने ही देश मै सुरक्षित नही, ओर हमे मारने वाले ऎश से जिन्दगी व्यातीत करे ओर.... इस से अच्छा तो यही फ़ेसला अच्छा था .
ReplyDeleteबहुत सुंदर ढंग से आप ने दिल की बात कागज पर उतार दी,
कहानी शुरु से अंत तक बांधे रखती है लेकिन हम भारतीय सुखद अंत चाहते हैं भाई फ़िर से लिखिए……:)
ReplyDeleteराजनीतिक लाभ-हानि के चशमें से देखनें वाले या कानून की बदबूदार भूलभुलइया में पक्ष-विपक्ष के हित साधनें में सिद्धस्त हो चुके महनीय लोगों के व्यवहार के अभ्यस्थों को मालिनी का निर्णय भावुक अपरिपक्व या ड्रामाई लग सकता है/लगना ही चाहिये।
ReplyDeleteसीमा पर शत्रू सेना से मुकाबला करनें वाला जवान भावुक न हो तो देश के लिए जान नहीं दे सकता। देश और देश की जनता के प्रति कर्तव्य की यह भावना ही है जो भावुक संवेदानाओं को उस ऊँचाई तक ले जाती हैं जहाँ गर्भवती पत्नीं, बूढ़ा बाप, नन्हीं सी बेटी या वत्सल माँ की आर्त चीत्कार भी उसे प्राणोत्सर्ग से नहीं रोक पाती।
सैनिक की जवान विधवा जब एकाउन्ट रेगुलराइज करानें बैक जाती है या डेथ सर्टिफेकेट के लिए पालिका जाती है या उत्तराधिकारिता का सर्टिफेकट बनवानें कचहरी जाती है या सामर्थ्यवान अयाचित मुहल्ले के रहवासी, जिस नजर से उसे देखते हैं क्या हम नहीं जानते? जवान बेटे की मौत से जर्जरित बूढ़ा ससुर तो मानों माल की गठरी ताक्नें वाला कुत्ता होकर रह जाता है जो हर आनें जानें वाले पर भौंकता रहता है।
समाज के पहेरुओं-खैरख्वाहों की हवस भरी हरकतॊं, अदाओं-निगाहों से अहिर्निश मरनें से एक बार में ही मर जाना क्यॊं बुरा है? समाज जैसा सम्मान देता है उसका जीवंत प्रमाण क्या सम्माननीय अच्युतानंदन के डायलाग और संवेदना प्रकट करनें की एक्टिंग नहीं थी। क्या कोई संवेदनशील व्यक्ति उसे भूल पायेगा?
दर अस्ल अपनें घरों, आफिसों, कहवाघरों, सत्ता के सुरक्षित गलियारों में चाय या स्काच की चुस्की लगाते हुए, विदेशी पैसे से एन०जी०ओ० चलाते हुए जब हम मानवाधिकारों, पड़ोसी से मैत्री संबन्ध या फिर देश कहाँ जारहा है कि तथाकथित बौद्धिक चर्चाऎं कर रहे होते हैं तो हमें होश भी नहीं होता है कि सीमा पर या फिर अंबिका पुर में दुश्मन या नकस्ल या माओवादी की गोली से कितनें जवान मर रहे है या ऎसे मरनें वाले के परिवार वाले कैसे जिन्दा ही मरे जैसा जीवन जीनें के लिए मजबूर किये जा रहे हैं। सत्ताशीर्ष पर विराजमान एक नेता नें तो पत्रकारॊं से चिढ़्कर तो यहाँ तक कह दिया था कि तो क्या हुआ they are paid for & it's a part of job! मतलब मानवाधिकर तो छोड़िये जिन्दा रहनें का मूल अधिकार भी मानों चंद पैसे में खरीद लिया जाता है। वस्तुतः हम हिपोक्रेट ही नहीं कृतघ्न भी हैं।
मार्मिक कथा... वर्तमान परिस्थितियों और उनसे उपजी विवशता को परिलक्षित करती हुई कहानी।
ReplyDeleteसिर्फ कहानी ही रहे यह...
ReplyDeleteबढ़िया। बधाई।
अरे बहुत ही दुखदाई होता है अब मैं क्या कहूं मैं तो निस्पंद सा रह गया हूं आपका ये लेख पड़कर......
ReplyDeleteअनूप जी से सहमत ..पलायन हल नही होता.
ReplyDelete@ जिन्हें अंत सुखद नहीं लगा
ReplyDeleteआप ही बताये सुखद अंत कैसे किया जा सकता है इस कथा का ?
रोज सुबह अख़बार वाला ढेरो लाशें मेरे घर में डाल जाता है.....कब कहाँ पढ़ा था अभी याद नहीं....कल कोई पोस्ट पहले से ड्राफ्ट थी इसलिए आज पोस्ट हो गयी....वर्ना सुबह शायद दुसरे मूड से पोस्ट लिखता....जान बड़ी सस्ती है is देश में .कल रात हमारे शहर में एक अनपढ़ ठेले वाले ने दो बच्चो को रेलवे स्टेशन के पास ट्रेक्टर ट्रोली हटाने को कहा .कहा सुनी हुई,, साहब भीड़ गए .....पुरे शहर के निठल्ले लोग पता नहीं कहाँ से आ गए ओर आधे शहर को रोक दिया ...किन्होने अनपढ़ ओर बेवकूफ लोगो ने ...
ReplyDeleteअनुशासन ...ओर डंडे का जोर ..गायब है..कितने लोग घायल है .एक साहब मय परिवार के रास्ते से गुजर रहे थे उनकी गाडी तोड़ डाली ..काहे ....frustration ....
.. ..सुमंत जी का ये कहना भी एक सच है ....
'बूढ़ा ससुर तो मानों माल की गठरी ताक्नें वाला कुत्ता होकर रह जाता है जो हर आनें जानें वाले पर भौंकता रहता है।'
ओर ये भी
समाज जैसा सम्मान देता है उसका जीवंत प्रमाण क्या सम्माननीय अच्युतानंदन के डायलाग और संवेदना प्रकट करनें की एक्टिंग नहीं थी।
पर जानते हो....
मै भी भावुक आदमी हूँ...पर एक बात समझा हूँ ..युद्घ भावुकता से नहीं लड़े जाते ....उन लोगो से खासतौर से जो छिपे दुश्मन है ..दरअसल अब is देश में शहादत भी मजहब में बंट गयी है ...प्रांत में बंट गयी है ....शाह्दत पर शक उठाने वाले भी है .....खबरों को सूंघता असवेदंशील मीडिया ..जिसमे झूठे बुद्धिजीवियों का एक समूह है.....पोलिटिकली विल की कमी ....निर्णय न लेने के अषमता ...तो फिर उपाय क्या हो...उपाय सिर्फ यही की ईमानदार लोगो को आगे आकर सत्ता में भागीदारी लेनी होगी.अपने आंसू पोछकर ..
दर्द भरी, मार्मिक किन्तु सत्य...................
ReplyDeleteयह कहानी कहाँ है......कल्पित कथाएँ सुखांत की जा सकती हैं....जिवंत कथाओं का अंत क्या अपने हाथ में होता है????????
ReplyDeleteतुमने जिस विषय को उठाया....सुमंत जी ने उसे बड़े ही प्रभावी ढंग से आगे बढाया है.....
मन को झकझोरता है, क्षुब्ध कर देता है,द्रवित कर देता है,इसे अपने आस पास घटते हम नहीं देखना चाहते......लेकिन इस विद्रूपता को नष्ट करने का सामर्थ्य हम आम लोगों में नहीं है.....
हाँ,भुक्तभोगी के साथ आंसू बहा सकते हैं और अपराधी को नाबालिक साबित करने वाले सिस्टम को बद्दुआ दे सकते हैं,उसके विरुद्ध आवाज बुलंद कर सकते हैं.....इतना हमारे वश में है....
तुमने बात को जितने सुन्दर और प्रभावी ढंग से उठाया...उसके लिए तुम्हारे लिए मन से बहुत दुआएं निकल रही हैं....
No comments..
ReplyDeleteक्या अनुपजी सच कह रहे हैं?
ReplyDeleteये क्या....
ReplyDeleteवाकई द्रवित कर देने वाली कहानी, आतंकी गतिविधियों के फलस्वरू जो परिणाम आया है, वह कई परिवारों ने इसे देखा और भोगा होगा। वकाई इस छोटी सी कहानी को, ''विविध भारती'' के ''हवा महल'' पर सुनना एक सुखद अनुभव देगा।
ReplyDeleteक्या कहूँ कुश भाई पढने के बाद शब्द नही मिल रहे। शुरु से लेकर अंत तक बाँधे रखा आपने। आखिर में यही कहूँगा कि कभी ऐसा ना हो। ये बस एक कहानी भर रहे।
ReplyDeleteइतना मार्मिक लिखोगे बन्धु तो पढ़ना कठिन हो जायेगा।
ReplyDeleteबहुत पहले मैने फिल्में देखना बन्द कर दिया। एक पक्ष सेण्टीमेण्टालिटी का भी था। कुछ कर सकते न थे - तो संवेदना काहे ढोयें।
अपने जीवन में ही अपार कशमकश है जो संभाले न संभल रही है!
बेहतरीन लेखन.
ReplyDeleteकहानी का अंत सुखद रहे यह ज़रूरी तो नहीं है.
कुश तुमको सलाम...
ReplyDeleteबहुत कुछ टिप्पणी प्रति टिप्पणी हो गयी है कुश की इस पटकथा पर -जी हाँ वे कथा न लिख कर सीधे पटकथा ही लिख मारते हैं -उनकी हथौटी हो गयी है यह ! मैंने पहले भी उन्हें सहेजा है ! पर रचनाकार को यह पूरी स्वछंदता होनी ही चाहिए कि वह अपनी कहानी का अंत कैसे करे ! अनीता जी का मानस सनातनी भारतीय मानस ही है ,मेरी ही तरह जिसे सुखान्त की चाह होती है ! और यहीं रचना की सोद्येश्यता का सवाल भी उठ खडा होता है ! भारतीय मनीषा सदैव आशावादिता का संबल लिए रही है -मुझे सबसे चौकाने वाली टिप्पणी आदरणीय सुमंत जी की लगी है जो भारतीयता के पुरजोर समर्थक होते हुए भी समाज की समांतर सच्चायियों से इतने क्षुब्ध दीखते हैं कि कुश की कहानी के औचित्य सिद्ध करने के लिए सामजिक विद्रूपों का एक हौलनाक मंजर बयां कर जाते हैं -अनूप जी सदैव से ही बहुत वस्तुनिष्ठ सोच वाले रहे हैं लिहाजा उन्हें यह कथा ड्रामेबाजी ही लगती है -पर नाटकीयता तो कहानी की एक मूल शर्त ही है और कुश इसमें निष्णात हो चुके हैं ! अमर जी भी और ज्ञान जी ने भी टोका है !
ReplyDeleteभाई कुश एक बड़े भाई की बात मानोगे -इस कहानी को ज़रा सुखान्त बना के तो देखो ! शायद तुम्हारी सूखी आँखों के पोरों में भागीरथी उमड़ आयें ! और हमारे भी !
मगर यह भागीरथ काम है ! और तुम्हारे लिए चुनौती भी ! देखते हैं !
दुबारा आया हूँ ..
ReplyDeleteप्रतिक्रियाएं पढ़ कर हैरान हूँ !
मैंने अभी तक पोस्ट के लेखक की प्रोफाईल भी नहीं देखी ...... लेकिन मेरी नजर में यह एक बेहतरीन कहानी है .........
इससे अच्छा कहानी का अंत हो ही नहीं सकता .....
अगर किसी और तरीके से समापन किया जाएगा तब
यकीकन ड्रामा लगेगा !
जिसको भी इस कहानी में ड्रामा लग रहा है तो मेरे भाई जरा आँखें खोलिए तो सही आपको रोज कहीं न कहीं ड्रामा ही नजर आएगा .... कोई अपने जिन्दा होने के 'सार्टिफिकेट' के लिए भागदौड़ कर रहा है ... कोई अपना आक्रोश दर्शाने के लिए विधानसभा के सामने सरेआम आत्मदाह कर रहा है ..... कोई अपनी हक़ की लडाई के लिए १५ साल से धरने पर बैठा है ... अदालतों का हाल यह है कि न्याय की आस में साल दर साल बीतते चले जाते हैं !
सबसे ख़ास बात यह है कि कहानी का अंत लेखक ने नहीं किया ... आप ने तय किया है ! लेखक ने स्पष्ट नहीं किया है .! आखिर आपने ऐसा अंत क्यों मन ही मन सोच लिया ... क्योंकि आप भी कहीं न कहीं यथार्थ देख रहे हैं !
चलते-चलते :
जैसा कि आदरणीय अरविन्द मिश्र जी ने कहा कि कहानी की
दिशा और दशा तय करना रचनाकार का अधिकार है ... हमें यह अधिकार छीनना नहीं चाहिए !
पहले की प्रतिक्रिया में बधाई रह गयी थी !
कुश भाई आपको दिली मुबारकबाद !
आज की आवाज
"आप ही बताये सुखद अंत कैसे किया जा सकता है इस कथा का ?"
ReplyDelete‘गम की अंधेरी रात में
दिल को न बेकरार कर
सुबह ज़रूर आएगी
सुबह का इंतेज़ार कर’
बहुत ही सुन्दर और गहरा लिखा है. दिल में दर्द का अहसास हुआ, कमबख्त बहुत दिनों से मरा मरा सा धड़क रहा था.
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी है कुश भाई। और इसके अंत को लेकर लोगों की तिलमिलाहट कहानी को मिली सबसे बेहतरीन प्रशंसा है।
ReplyDeletemain bhi yehi maanta hoon ki ending kuch zyada filmy ho gayee...kisi bhi ghar ka aadmi fauj me jaata hai to garv se jaata hai...ek sache fauji ko logo ko bachane me jaan de dene me shayad swarg prapti sa santosh milta hai...kehna ka arth ye bilkul nahi ki aise log maare jaaye aur hame fark na pade,vichaar bas yehi hai ki inki shahaadat pe ink ghar waalo ko garv karte dikhaaya jaaye to wo zyaada bhaavpoorn hai...inke marne pe ghar vaale mar jaaye to immature lagta hai bahut...
ReplyDeletethis idea could hav been implemented in much beter fasion...expressions are too good,main bhi padhke dang reh gaya par thoda sa socha to loopholes lage bahut
आतंकवादी नाबालिग है। यह बात कथा की नायिका को पता न चले तो पूरी कहानी ही ढेर हो जाती है। इस कहानी में कुछ भी बदलाव करो लेकिन आत्महत्या का रास्ता बंद होना चाहिए। मैंने बहुत करीब से पूरी उम्र लड़ती रहने वाली महिलाओं को देखा है। ईश्वर ने एक के बाद एक कई हादसे दिए लेकिन वे महिलाए इतनी सख्तजान थी और हैं कि मुकाबला करती जा रही हैं।
ReplyDeleteइसी कारण मैं स्त्री जाति के प्रति नतमस्तक हूं। अस्थाई समस्या का स्थाई समाधान टीन एजर और पुरुष करते हैं। परिपक्व महिलाएं नहीं।
कुश भाई कहानी बदलाव मांग रही है।
मन को छू गयी रचना। आश्चर्य होता है कि आप इतनी मार्मिकता कहां से ले आते हो।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
kafi dino baad padh rahi hu kuch...tumne aur anuragji - dono ne bada shocking likha hai!!!
ReplyDeletedear kush,
ReplyDeleteachcha lage aarif sahab ki post par likhe gaye aapke comments ... kya mein inka istemal akhbar ke liye kar saktin hoon?
varsha [jaipur se hi. ]
contact 0141 5005759
बहुत अच्छी कहानी...! कुश जी बधाई काफ़ी अच्छा लिखते है आप।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी का जवाब दे दिया है यहांअपनी टिप्पणी का जवाब देखें और मुझे मेरे सवाल का भी जवाब दें
stbdh kar gai ye katha .
ReplyDeleteshubhkamnaye
bahut khub...
ReplyDeletesaare bhavnao ko samete, aapke is kahani ne bhavvihor kar diya....
bahut achcha
ReplyDeleteकथा की बुनावट बेहतरीन है, और मर्म पर तो काफी चर्चा हो चुकी है, क्या कहा जाए।
ReplyDeletekahani bhi padhi aur comment bhi aur comment ke uppar comment bhi...
ReplyDeletebus itna hi kehna chahoonga ki koi bhi kahani, Ya koi bhi krit, for that matter is a writer's baby.
..now coming to the post. kahani bahut badhiya thi mujhe iske ant se ya iski shuruat se koi dikkat nahi hai par ye ek naveen rachna si nahi lagti khaskkar ant, jo ki kai laghu katha main/ka hota hai. Which is obvious since to end the short story this would be the best option....
...aur waise bhi vastavikat bhi to kaunsi 'unique' hoti hai? wo bhi to 'repetativ' hoti hai.
isliye all in all acchi post !!