Tuesday, June 16, 2009

आँठवा अखबार

देर रात मालिनी आईने के सामने बैठी रही.. आने वाले मेहमान को निहार रही है.. बगल वाले कमरे के दरवाजे के खटखटाने की आवाज़ से बेखबर.. जानती है कि थोडी देर बाद ये आवाज़ बंद हो जायेगी.. रात और लम्बी होती जा रही है.. मालिनी सोने की कोशिश कर रही है.. वो जानती है कि उसे सुबह जल्दी उठना है.. सोचते सोचते उसकी आँख लग गयी है..

सुबह दस्तक दे चुकी है.. मस्जिद की तरफ से अजान सुनाई दे रही है.. अँधेरा अभी है थोडा सा.. गाडी फूटपाथ पर पहुची और अखबारों का बण्डल फेंका.. अखबार वाले ने अख़बार उठाया.. आँखे मली और साइकिल उठाली..

इधर मालिनी की भी आँख खुल गयी.. आज थोडी थकान लग रही है.. आखिर सातवा महिना चल रहा है.. वो जानती है उसे क्या करना है.. तैयारी कर रही है.. बस उसे देर नहीं हो जाये..

साइकिल पर तेजी से पैडल मारता हुआ अखबार वाला गली में घुस रहा है.. मालिनी इस बात से बेखबर है की बगल वाले कमरे से बालकनी का दरवाजा खुल चुका है.. अखबार वाले ने पहला अखबार फेंक दिया है.. आँठवा अखबार इसी घर में गिरेगा.. मालिनी जल्दी से जल्दी नहाकर बाहर आना चाहती है.. चौथा अखबार भी फेंक दिया अखबार वाले ने..

मालिनी जल्दी से बाहर आने की कोशिश कर रही है॥ ये सातवा अखबार भी फेंक दिया उसने... बालकनी के नीचे चुका है अखबार वाला॥... ऊपर बालकनी में देखता है और सहम जाता है.. घोष बाबु खड़े है अखबार मांग रहे है.. अखबार वाला सोच रहा है क्या करे। घोष बाबु चिल्लाये... अबे देता क्यों नहीं है अखबार..

मालिनी ने सुन लिया वो भागी उसे रोकना होगा.. अखबार वाला सोच रहा है क्या करे ? घोष बाबु की बैचैन आँखे उसे मजबूर कर रही है.. वो अखबार फेंकने के लिए हाथ उठाता है.. मालिनी तेजी से भागती है.. अखबार हवा में उछला जा चुका है.. मालिनी जैसे ही पहुचती है.. घोष बाबु जोर से चिल्लाते हुए अन्दर की तरफ़ भाग जाते है.. घोष बाबु जोरो से रो रहे है. मालिनी को जिस बात का डर था वही हुआ... घोष बाबु कमरे के अन्दर चले गए और जोर जोर से दीवार पर सर मर रहे है... मालिनी की आँखों में आंसू है... पर वो जानती है ये उसे अकेले करना है वो इंजेक्शन में दवाई भर रही है... घोष बाबु ने हाथ उछाल दिया॥ मालिनी फ़िर से उनकी तरफ़ लपकी... इस बार उसने हाथ पकड़ कर इंजेक्शन लगा ही दिया॥ घोष बाबु की आँखे बंद हो रही है वो नीचे गिर चुके है... मालिनी ने उनके सर के नीचे तकिया रख दिया है... आँखों से गिरते आंसू लिए उसने अखबार उठाया है... उसे तो कोई इंजेक्शन लागने वाला भी नही है... आख़िर उसे ही अपने आने वाले बच्चे और अपने ससुर को संभालना है... उसने अखबार को खींच कर दीवार पे मारा है...

और रोते हुए देख रही है दीवार पर लगी अपने पति की तस्वीर को और पूछ रही है क्यो नही ले गए हमें भी साथ... वैसे भी कौनसा जी रहे है हम... रोज़ सुबह बाबूजी की ये हालत देखी नही जाती... हर रोज़ इस उम्मीद पर की आज उस आतंकवादी को सजा मिलेगी जिसने उनके इकलौते बेटे को लील लिया... मेरे सुहाग को मुझसे छीन लिया और एक अजन्मे बच्चे के बाप को... जिसकी तो कोई गलती भी नही थी... डाक्टर कहते है बाबूजी की दिमागी हालत ठीक नही ... मैं अकेली कैसे करू ये सब... अब और नही देख सकती मैं ऐसे...

आज रात मालिनी ने एक फ़ैसला कर लिया है...

अगले दिन अखबार वाला फ़िर से आया है आज कोई बालकनी में उसे दिख नही रहा है... उसने अखबार फेंक दिया है मगर कोई आया नही... बाबूजी चैन से सो रहे है मालिनी भी नही उठ रही... पता नही कल रात को लिया गया मालिनी का फ़ैसला सही था या ग़लत...

पर अखबार में आज की ताज़ा ख़बर है वो आतंकवादी नाबालिग है...

55 comments:

  1. कुश भाई आपकी परिपक्वता देख कर हैरान हूँ...इस उम्र में ऐसी कहानी...ये किसी कमाल से कम नहीं...आप पर सरस्वती माँ का वरद हस्त है...ये बात सिद्ध हो चुकी है अब...लिखते रहो...
    नीरज

    ReplyDelete
  2. dravit kar diya bhai...............
    bahut khoob !

    ReplyDelete
  3. शुरू से अंत तक बांधे रखने वाली भावनाओं से भरी एक बेहतरीन रचना

    ReplyDelete
  4. galat hai faisla...sarasar galat hai.

    kahani behad khoobsoorat hai, sacchi hai, bandhe rakhti hai, par mujhe iska yun khatm hona ek ajeeb bechaini se bhar gaya.

    ReplyDelete
  5. बहुत दर्दनाक है.. पुजा ठीक कह रही है.. नकारात्मक अंत?

    ReplyDelete
  6. बहुत बढ़िया कहानी बुनी है कुश आपने .अंत तक बांधे रही ...पिछले दिनों घटे घटना क्रम का ही हिस्सा लगी यह .

    ReplyDelete
  7. अखवार ............. आखिरी बार . दर्दनाक , और आतंकी की उम्र उसके अपराध से बड़ा मुद्दा बना दी गई .

    ReplyDelete
  8. ओह!!!

    बहुत परेशान करेगी यह कथा कई दिनों तक!

    ReplyDelete
  9. क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फ़ैसला मेरे हिसाब से गलत होगया अगर कहानी ही है तो. और अगर किसी सत्य घटनाक्रम से संबंधित है तो कहानीकार के हाथ बंधे हुये हैं.कोई कर भी क्या सकता है?

    रामराम.

    ReplyDelete
  10. बेहतरीन !
    ऐसा लगा कोई कसी हुयी डाक्यूमेंट्री चल रही हो सामने !
    आखिर में कहने के लिए कुछ बचता नहीं !
    बस एक बेचैनी ओढे दर्शक थके क़दमों से वापस आ जाता है !


    आज की आवाज

    ReplyDelete
  11. समीर सर सही कह रहे हैं..... बहुत परेशान करेगी यह कथा कई दिनों तक!

    ... बेहतरीन ढंग से बाँधे रखा आपने अंत तक..

    ReplyDelete
  12. ऐसे ही लिखती रहीये कुश भाई .दिल सहम गया ..

    - लावण्या

    ReplyDelete
  13. ek behatarin rachana ........unda banawat our bunaawat .......purn sampreshniyataa

    ReplyDelete
  14. तन्मयता के साथ पढी जाने वाली कथा .बहुत सुंदर .

    ReplyDelete
  15. बहुत ही अच्छी और सोचने को मजबूर कर देने वाली कहानी के लिए धन्यवाद...!आपका प्रस्तुतिकरण बहुत पसंद आया...

    ReplyDelete
  16. आज की वास्तविकता दर्शाता संदेश है इस कहानी में।बहुत बढिया!!

    ReplyDelete
  17. क्या कहूं। बेहद कड़ुवा सच।

    ReplyDelete
  18. बहुत धांसू है। लेकिन बहुत ड्रामेबाजी है पोस्ट में!

    ReplyDelete

  19. भई कुश, ऎसे पलायनवादी अँत की आशा न थी ।
    सो, पोस्ट को पढ़ते समय की सँवेदना, मालिनी के अँतिम निष्कर्ष ने क़ाफ़ूर कर दिया ।
    तुम चाहते तो उसे रोक सकते थे । अच्छा न लगा, सो लिख दिया ।
    तुम जान ही चुके होगे कि आजकल मेरी टिप्पणियों की टैगलाइन क्या है ?

    ReplyDelete
  20. ड्रामेबाजी से मतलब मेरा यह है किसी आतंकवादी को सजा न मिले तो प्रभावित लोग क्या अपनी जान दे देते हैं? न जाने क्या फ़ैसला करवाया तुमने मालिनी से। उठ नहीं रहे इसलिये यह कयास मैं लगा रहा हूं कि शायद मालिनी ने जीवनलीला समाप्त कर ली! जिंदगी क्या इस तरह जीते हैं लोग! बहुत भावुक और अपरिपक्व बात है इस तरह की बातें सोचना और उनको ग्लैमराइज करना। शायद मेरी बात बुरी लगे लेकिन मुझे जो समझ आया वह लिख रहा हूं!

    ReplyDelete
  21. कुश भाई सही लिखा आप ने जब अपने ही देश मै सुरक्षित नही, ओर हमे मारने वाले ऎश से जिन्दगी व्यातीत करे ओर.... इस से अच्छा तो यही फ़ेसला अच्छा था .
    बहुत सुंदर ढंग से आप ने दिल की बात कागज पर उतार दी,

    ReplyDelete
  22. कहानी शुरु से अंत तक बांधे रखती है लेकिन हम भारतीय सुखद अंत चाहते हैं भाई फ़िर से लिखिए……:)

    ReplyDelete
  23. राजनीतिक लाभ-हानि के चशमें से देखनें वाले या कानून की बदबूदार भूलभुलइया में पक्ष-विपक्ष के हित साधनें में सिद्धस्त हो चुके महनीय लोगों के व्यवहार के अभ्यस्थों को मालिनी का निर्णय भावुक अपरिपक्व या ड्रामाई लग सकता है/लगना ही चाहिये।

    सीमा पर शत्रू सेना से मुकाबला करनें वाला जवान भावुक न हो तो देश के लिए जान नहीं दे सकता। देश और देश की जनता के प्रति कर्तव्य की यह भावना ही है जो भावुक संवेदानाओं को उस ऊँचाई तक ले जाती हैं जहाँ गर्भवती पत्नीं, बूढ़ा बाप, नन्हीं सी बेटी या वत्सल माँ की आर्त चीत्कार भी उसे प्राणोत्सर्ग से नहीं रोक पाती।

    सैनिक की जवान विधवा जब एकाउन्ट रेगुलराइज करानें बैक जाती है या डेथ सर्टिफेकेट के लिए पालिका जाती है या उत्तराधिकारिता का सर्टिफेकट बनवानें कचहरी जाती है या सामर्थ्यवान अयाचित मुहल्ले के रहवासी, जिस नजर से उसे देखते हैं क्या हम नहीं जानते? जवान बेटे की मौत से जर्जरित बूढ़ा ससुर तो मानों माल की गठरी ताक्नें वाला कुत्ता होकर रह जाता है जो हर आनें जानें वाले पर भौंकता रहता है।

    समाज के पहेरुओं-खैरख्वाहों की हवस भरी हरकतॊं, अदाओं-निगाहों से अहिर्निश मरनें से एक बार में ही मर जाना क्यॊं बुरा है? समाज जैसा सम्मान देता है उसका जीवंत प्रमाण क्या सम्माननीय अच्युतानंदन के डायलाग और संवेदना प्रकट करनें की एक्टिंग नहीं थी। क्या कोई संवेदनशील व्यक्ति उसे भूल पायेगा?

    दर अस्ल अपनें घरों, आफिसों, कहवाघरों, सत्ता के सुरक्षित गलियारों में चाय या स्काच की चुस्की लगाते हुए, विदेशी पैसे से एन०जी०ओ० चलाते हुए जब हम मानवाधिकारों, पड़ोसी से मैत्री संबन्ध या फिर देश कहाँ जारहा है कि तथाकथित बौद्धिक चर्चाऎं कर रहे होते हैं तो हमें होश भी नहीं होता है कि सीमा पर या फिर अंबिका पुर में दुश्मन या नकस्ल या माओवादी की गोली से कितनें जवान मर रहे है या ऎसे मरनें वाले के परिवार वाले कैसे जिन्दा ही मरे जैसा जीवन जीनें के लिए मजबूर किये जा रहे हैं। सत्ताशीर्ष पर विराजमान एक नेता नें तो पत्रकारॊं से चिढ़्कर तो यहाँ तक कह दिया था कि तो क्या हुआ they are paid for & it's a part of job! मतलब मानवाधिकर तो छोड़िये जिन्दा रहनें का मूल अधिकार भी मानों चंद पैसे में खरीद लिया जाता है। वस्तुतः हम हिपोक्रेट ही नहीं कृतघ्न भी हैं।

    ReplyDelete
  24. मार्मिक कथा... वर्तमान परिस्थितियों और उनसे उपजी विवशता को परिलक्षित करती हुई कहानी।

    ReplyDelete
  25. सिर्फ कहानी ही रहे यह...

    बढ़िया। बधाई।

    ReplyDelete
  26. अरे बहुत ही दुखदाई होता है अब मैं क्या कहूं मैं तो निस्पंद सा रह गया हूं आपका ये लेख पड़कर......

    ReplyDelete
  27. अनूप जी से सहमत ..पलायन हल नही होता.

    ReplyDelete
  28. @ जिन्हें अंत सुखद नहीं लगा

    आप ही बताये सुखद अंत कैसे किया जा सकता है इस कथा का ?

    ReplyDelete
  29. रोज सुबह अख़बार वाला ढेरो लाशें मेरे घर में डाल जाता है.....कब कहाँ पढ़ा था अभी याद नहीं....कल कोई पोस्ट पहले से ड्राफ्ट थी इसलिए आज पोस्ट हो गयी....वर्ना सुबह शायद दुसरे मूड से पोस्ट लिखता....जान बड़ी सस्ती है is देश में .कल रात हमारे शहर में एक अनपढ़ ठेले वाले ने दो बच्चो को रेलवे स्टेशन के पास ट्रेक्टर ट्रोली हटाने को कहा .कहा सुनी हुई,, साहब भीड़ गए .....पुरे शहर के निठल्ले लोग पता नहीं कहाँ से आ गए ओर आधे शहर को रोक दिया ...किन्होने अनपढ़ ओर बेवकूफ लोगो ने ...
    अनुशासन ...ओर डंडे का जोर ..गायब है..कितने लोग घायल है .एक साहब मय परिवार के रास्ते से गुजर रहे थे उनकी गाडी तोड़ डाली ..काहे ....frustration ....
    .. ..सुमंत जी का ये कहना भी एक सच है ....
    'बूढ़ा ससुर तो मानों माल की गठरी ताक्नें वाला कुत्ता होकर रह जाता है जो हर आनें जानें वाले पर भौंकता रहता है।'
    ओर ये भी
    समाज जैसा सम्मान देता है उसका जीवंत प्रमाण क्या सम्माननीय अच्युतानंदन के डायलाग और संवेदना प्रकट करनें की एक्टिंग नहीं थी।
    पर जानते हो....
    मै भी भावुक आदमी हूँ...पर एक बात समझा हूँ ..युद्घ भावुकता से नहीं लड़े जाते ....उन लोगो से खासतौर से जो छिपे दुश्मन है ..दरअसल अब is देश में शहादत भी मजहब में बंट गयी है ...प्रांत में बंट गयी है ....शाह्दत पर शक उठाने वाले भी है .....खबरों को सूंघता असवेदंशील मीडिया ..जिसमे झूठे बुद्धिजीवियों का एक समूह है.....पोलिटिकली विल की कमी ....निर्णय न लेने के अषमता ...तो फिर उपाय क्या हो...उपाय सिर्फ यही की ईमानदार लोगो को आगे आकर सत्ता में भागीदारी लेनी होगी.अपने आंसू पोछकर ..

    ReplyDelete
  30. दर्द भरी, मार्मिक किन्तु सत्य...................

    ReplyDelete
  31. यह कहानी कहाँ है......कल्पित कथाएँ सुखांत की जा सकती हैं....जिवंत कथाओं का अंत क्या अपने हाथ में होता है????????

    तुमने जिस विषय को उठाया....सुमंत जी ने उसे बड़े ही प्रभावी ढंग से आगे बढाया है.....

    मन को झकझोरता है, क्षुब्ध कर देता है,द्रवित कर देता है,इसे अपने आस पास घटते हम नहीं देखना चाहते......लेकिन इस विद्रूपता को नष्ट करने का सामर्थ्य हम आम लोगों में नहीं है.....

    हाँ,भुक्तभोगी के साथ आंसू बहा सकते हैं और अपराधी को नाबालिक साबित करने वाले सिस्टम को बद्दुआ दे सकते हैं,उसके विरुद्ध आवाज बुलंद कर सकते हैं.....इतना हमारे वश में है....

    तुमने बात को जितने सुन्दर और प्रभावी ढंग से उठाया...उसके लिए तुम्हारे लिए मन से बहुत दुआएं निकल रही हैं....

    ReplyDelete
  32. क्या अनुपजी सच कह रहे हैं?

    ReplyDelete
  33. वाकई द्रवित कर देने वाली कहानी, आतंकी गतिविधियों के फलस्‍वरू जो परिणाम आया है, वह कई परिवारों ने इसे देखा और भोगा होगा। वकाई इस छोटी सी कहानी को, ''विविध भारती'' के ''हवा महल'' पर सुनना एक सुखद अनुभव देगा।

    ReplyDelete
  34. क्या कहूँ कुश भाई पढने के बाद शब्द नही मिल रहे। शुरु से लेकर अंत तक बाँधे रखा आपने। आखिर में यही कहूँगा कि कभी ऐसा ना हो। ये बस एक कहानी भर रहे।

    ReplyDelete
  35. इतना मार्मिक लिखोगे बन्धु तो पढ़ना कठिन हो जायेगा।
    बहुत पहले मैने फिल्में देखना बन्द कर दिया। एक पक्ष सेण्टीमेण्टालिटी का भी था। कुछ कर सकते न थे - तो संवेदना काहे ढोयें।
    अपने जीवन में ही अपार कशमकश है जो संभाले न संभल रही है!

    ReplyDelete
  36. बेहतरीन लेखन.

    कहानी का अंत सुखद रहे यह ज़रूरी तो नहीं है.

    ReplyDelete
  37. बहुत कुछ टिप्पणी प्रति टिप्पणी हो गयी है कुश की इस पटकथा पर -जी हाँ वे कथा न लिख कर सीधे पटकथा ही लिख मारते हैं -उनकी हथौटी हो गयी है यह ! मैंने पहले भी उन्हें सहेजा है ! पर रचनाकार को यह पूरी स्वछंदता होनी ही चाहिए कि वह अपनी कहानी का अंत कैसे करे ! अनीता जी का मानस सनातनी भारतीय मानस ही है ,मेरी ही तरह जिसे सुखान्त की चाह होती है ! और यहीं रचना की सोद्येश्यता का सवाल भी उठ खडा होता है ! भारतीय मनीषा सदैव आशावादिता का संबल लिए रही है -मुझे सबसे चौकाने वाली टिप्पणी आदरणीय सुमंत जी की लगी है जो भारतीयता के पुरजोर समर्थक होते हुए भी समाज की समांतर सच्चायियों से इतने क्षुब्ध दीखते हैं कि कुश की कहानी के औचित्य सिद्ध करने के लिए सामजिक विद्रूपों का एक हौलनाक मंजर बयां कर जाते हैं -अनूप जी सदैव से ही बहुत वस्तुनिष्ठ सोच वाले रहे हैं लिहाजा उन्हें यह कथा ड्रामेबाजी ही लगती है -पर नाटकीयता तो कहानी की एक मूल शर्त ही है और कुश इसमें निष्णात हो चुके हैं ! अमर जी भी और ज्ञान जी ने भी टोका है !
    भाई कुश एक बड़े भाई की बात मानोगे -इस कहानी को ज़रा सुखान्त बना के तो देखो ! शायद तुम्हारी सूखी आँखों के पोरों में भागीरथी उमड़ आयें ! और हमारे भी !
    मगर यह भागीरथ काम है ! और तुम्हारे लिए चुनौती भी ! देखते हैं !

    ReplyDelete
  38. दुबारा आया हूँ ..
    प्रतिक्रियाएं पढ़ कर हैरान हूँ !

    मैंने अभी तक पोस्ट के लेखक की प्रोफाईल भी नहीं देखी ...... लेकिन मेरी नजर में यह एक बेहतरीन कहानी है .........
    इससे अच्छा कहानी का अंत हो ही नहीं सकता .....
    अगर किसी और तरीके से समापन किया जाएगा तब
    यकीकन ड्रामा लगेगा !

    जिसको भी इस कहानी में ड्रामा लग रहा है तो मेरे भाई जरा आँखें खोलिए तो सही आपको रोज कहीं न कहीं ड्रामा ही नजर आएगा .... कोई अपने जिन्दा होने के 'सार्टिफिकेट' के लिए भागदौड़ कर रहा है ... कोई अपना आक्रोश दर्शाने के लिए विधानसभा के सामने सरेआम आत्मदाह कर रहा है ..... कोई अपनी हक़ की लडाई के लिए १५ साल से धरने पर बैठा है ... अदालतों का हाल यह है कि न्याय की आस में साल दर साल बीतते चले जाते हैं !

    सबसे ख़ास बात यह है कि कहानी का अंत लेखक ने नहीं किया ... आप ने तय किया है ! लेखक ने स्पष्ट नहीं किया है .! आखिर आपने ऐसा अंत क्यों मन ही मन सोच लिया ... क्योंकि आप भी कहीं न कहीं यथार्थ देख रहे हैं !

    चलते-चलते :
    जैसा कि आदरणीय अरविन्द मिश्र जी ने कहा कि कहानी की
    दिशा और दशा तय करना रचनाकार का अधिकार है ... हमें यह अधिकार छीनना नहीं चाहिए !

    पहले की प्रतिक्रिया में बधाई रह गयी थी !
    कुश भाई आपको दिली मुबारकबाद !


    आज की आवाज

    ReplyDelete
  39. "आप ही बताये सुखद अंत कैसे किया जा सकता है इस कथा का ?"
    ‘गम की अंधेरी रात में
    दिल को न बेकरार कर
    सुबह ज़रूर आएगी
    सुबह का इंतेज़ार कर’

    ReplyDelete
  40. बहुत ही सुन्दर और गहरा लिखा है. दिल में दर्द का अहसास हुआ, कमबख्त बहुत दिनों से मरा मरा सा धड़क रहा था.

    ReplyDelete
  41. बेहतरीन कहानी है कुश भाई। और इसके अंत को लेकर लोगों की तिलमिलाहट कहानी को मिली सबसे बेहतरीन प्रशंसा है।

    ReplyDelete
  42. main bhi yehi maanta hoon ki ending kuch zyada filmy ho gayee...kisi bhi ghar ka aadmi fauj me jaata hai to garv se jaata hai...ek sache fauji ko logo ko bachane me jaan de dene me shayad swarg prapti sa santosh milta hai...kehna ka arth ye bilkul nahi ki aise log maare jaaye aur hame fark na pade,vichaar bas yehi hai ki inki shahaadat pe ink ghar waalo ko garv karte dikhaaya jaaye to wo zyaada bhaavpoorn hai...inke marne pe ghar vaale mar jaaye to immature lagta hai bahut...

    this idea could hav been implemented in much beter fasion...expressions are too good,main bhi padhke dang reh gaya par thoda sa socha to loopholes lage bahut

    ReplyDelete
  43. आतंकवादी नाबालिग है। यह बात कथा की नायिका को पता न चले तो पूरी कहानी ही ढेर हो जाती है। इस कहानी में कुछ भी बदलाव करो लेकिन आत्‍महत्‍या का रास्‍ता बंद होना चाहिए। मैंने बहुत करीब से पूरी उम्र लड़ती रहने वाली महिलाओं को देखा है। ईश्‍वर ने एक के बाद एक कई हादसे दिए लेकिन वे महिलाए इतनी सख्‍तजान थी और हैं कि मुकाबला करती जा रही हैं।
    इसी कारण मैं स्‍त्री जाति के प्रति नतमस्‍तक हूं। अस्‍थाई समस्‍या का स्‍थाई समाधान टीन एजर और पुरुष करते हैं। परिपक्‍व महिलाएं नहीं।
    कुश भाई कहानी बदलाव मांग रही है।

    ReplyDelete
  44. मन को छू गयी रचना। आश्‍चर्य होता है कि आप इतनी मार्मिकता कहां से ले आते हो।

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

    ReplyDelete
  45. kafi dino baad padh rahi hu kuch...tumne aur anuragji - dono ne bada shocking likha hai!!!

    ReplyDelete
  46. dear kush,
    achcha lage aarif sahab ki post par likhe gaye aapke comments ... kya mein inka istemal akhbar ke liye kar saktin hoon?
    varsha [jaipur se hi. ]
    contact 0141 5005759

    ReplyDelete
  47. बहुत अच्छी कहानी...! कुश जी बधाई काफ़ी अच्छा लिखते है आप।


    आपकी टिप्पणी का जवाब दे दिया है यहांअपनी टिप्पणी का जवाब देखें और मुझे मेरे सवाल का भी जवाब दें

    ReplyDelete
  48. bahut khub...

    saare bhavnao ko samete, aapke is kahani ne bhavvihor kar diya....

    ReplyDelete
  49. कथा की बुनावट बेहतरीन है, और मर्म पर तो काफी चर्चा हो चुकी है, क्‍या कहा जाए।

    ReplyDelete
  50. kahani bhi padhi aur comment bhi aur comment ke uppar comment bhi...

    bus itna hi kehna chahoonga ki koi bhi kahani, Ya koi bhi krit, for that matter is a writer's baby.


    ..now coming to the post. kahani bahut badhiya thi mujhe iske ant se ya iski shuruat se koi dikkat nahi hai par ye ek naveen rachna si nahi lagti khaskkar ant, jo ki kai laghu katha main/ka hota hai. Which is obvious since to end the short story this would be the best option....

    ...aur waise bhi vastavikat bhi to kaunsi 'unique' hoti hai? wo bhi to 'repetativ' hoti hai.

    isliye all in all acchi post !!

    ReplyDelete

वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..