मुसीबतों में भी लोगो को आशा की किरण नज़र आ जाती है.. देखिये ना हमारे घर के सामने करीब सौ सालो से जिन्दा एक महिला की मृत्यु हो गयी.. पता चला बीमार थी लेकिन मौत नहीं आ रही थी तो घर वालो ने उसे मुक्ति देने के लिए ४६ डिग्री टेम्प्रेचर में बिना पंखे वाले एक कमरे में सुला दिया.. बुढ़िया को रातो रात मुक्ति मिल गयी.. कल शाम को उस कमरे की खिड़की पर कूलर लग गया.. अब उसमे छोटा पढाई करेगा.. मेरे मोबाइल पर गाना बज रहा है.. "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.." नहीं प्यासा का नहीं, गुलाल का है.. पुरानो की अब वेल्यु नहीं रही.. मैं पूरी रात इस घटना पर करवटे बदलता रहा..
दिसम्बर का महिना मैं अपने दोस्त के पिताजी की डेथ के बाद उस से मिलने गया.. डेथ के सात दिन बाद पहुंचा घर पर कुछ काम चल रहा था.. दीवार बनायीं जा रही थी... दुबई से छोटेवाले चाचा जी आये है अगले सप्ताह उनकी फ्लाईट है.. इसीलिए.. काम जल्दी हो रहा है... स्टार वन पर एक प्रोग्राम आ रहा है.. "दिल मिल गए.. "
एक महिना पहले मैं अपने जूते पोलिश करवा रहा था एक पंद्रह सोलह साल का लड़का था.. इतने में एक आदमी आया पोलिश वाले ने उसको कुछ रूपये दिए मैंने पुछा क्या है तो बोला ब्याज पे पैसे लिए है.. थोडी देर बाद वो बोला अब ऐसे हालात नहीं रहेंगे.. बस पंद्रह दिन की बात है फिर हमारे पास भी गाडी होगी.. बहुत जल्द मैं करोड़पति बनने वाला हूँ.. मैंने पुछा कैसे? तो बोला अहमदाबाद में किसी में माता आई है.. वहा पर कुछ भी ले जाओ वो सोना बन जाता है ... तीन दिन पहले देखा वो अभी भी वही जूते पोलिश कर रहा था.. मेरी हिम्मत नहीं हुई उसके पास जाने की.. सड़क के उस पार मंदिर के जीर्णोद्वार के लिए चंदा इकठ्ठा किया जा रहा है..
किसी ऑफिस के बाहर बैठा गार्ड अपनी लाचारी को तौलिया सर पे रखे ढो रहा है.. सूरज उसको दादागिरी दिखा रहा है.. मैं ऊपर देखता हूँ.. और पूछता हूँ हिम्मत है तो ए सी वालो को दिखाओ ये गर्मी.. वो मेरी बात का जवाब नहीं देता पर शाम को थोडी बारिश होती है.. शुक्र है थोडी तो गैरत है सूरज में.. अगले दिन सुबह ऑफिस आता हूँ मेरा एसी खराब है.. खिड़की से बाहर देखता हूँ सूरज मुस्कुरा रहा है.. कितना इगो होता है ना लोगो में.. ?
रात के बारह बजे मैं फोन पर किसी से लड़ रहा हूँ.. उस गार्ड की खातिर जो सर पे तौलिया रखे बैठा है.. कूलर क्यों नहीं दे देते उसको..? मुझे जवाब मिला है.. गार्ड का काम ही वही है.. उसको कूलर कैसे दे सकते है.. बी प्रेक्टिकल..! रात बीत चुकी है सुबह सुबह मेरा होंकर पूरी दुनिया को बण्डल में बाँध के फेंकता है.. मैं चाय बनाने के लिए दूध गर्म करता हूँ.. अखबार में खबर है.. डेढ़ साल की बच्ची का बलात्कार.. मैंने दूध पूरा वाश बेसिन में डाल दिया है...
आज रात को फोन पर फिर से वही जवाब मिला है... बी प्रेक्टिकल.... गुलाल का गाना अभी भी बज रहा है.. जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...
दिसम्बर का महिना मैं अपने दोस्त के पिताजी की डेथ के बाद उस से मिलने गया.. डेथ के सात दिन बाद पहुंचा घर पर कुछ काम चल रहा था.. दीवार बनायीं जा रही थी... दुबई से छोटेवाले चाचा जी आये है अगले सप्ताह उनकी फ्लाईट है.. इसीलिए.. काम जल्दी हो रहा है... स्टार वन पर एक प्रोग्राम आ रहा है.. "दिल मिल गए.. "
एक महिना पहले मैं अपने जूते पोलिश करवा रहा था एक पंद्रह सोलह साल का लड़का था.. इतने में एक आदमी आया पोलिश वाले ने उसको कुछ रूपये दिए मैंने पुछा क्या है तो बोला ब्याज पे पैसे लिए है.. थोडी देर बाद वो बोला अब ऐसे हालात नहीं रहेंगे.. बस पंद्रह दिन की बात है फिर हमारे पास भी गाडी होगी.. बहुत जल्द मैं करोड़पति बनने वाला हूँ.. मैंने पुछा कैसे? तो बोला अहमदाबाद में किसी में माता आई है.. वहा पर कुछ भी ले जाओ वो सोना बन जाता है ... तीन दिन पहले देखा वो अभी भी वही जूते पोलिश कर रहा था.. मेरी हिम्मत नहीं हुई उसके पास जाने की.. सड़क के उस पार मंदिर के जीर्णोद्वार के लिए चंदा इकठ्ठा किया जा रहा है..
किसी ऑफिस के बाहर बैठा गार्ड अपनी लाचारी को तौलिया सर पे रखे ढो रहा है.. सूरज उसको दादागिरी दिखा रहा है.. मैं ऊपर देखता हूँ.. और पूछता हूँ हिम्मत है तो ए सी वालो को दिखाओ ये गर्मी.. वो मेरी बात का जवाब नहीं देता पर शाम को थोडी बारिश होती है.. शुक्र है थोडी तो गैरत है सूरज में.. अगले दिन सुबह ऑफिस आता हूँ मेरा एसी खराब है.. खिड़की से बाहर देखता हूँ सूरज मुस्कुरा रहा है.. कितना इगो होता है ना लोगो में.. ?
रात के बारह बजे मैं फोन पर किसी से लड़ रहा हूँ.. उस गार्ड की खातिर जो सर पे तौलिया रखे बैठा है.. कूलर क्यों नहीं दे देते उसको..? मुझे जवाब मिला है.. गार्ड का काम ही वही है.. उसको कूलर कैसे दे सकते है.. बी प्रेक्टिकल..! रात बीत चुकी है सुबह सुबह मेरा होंकर पूरी दुनिया को बण्डल में बाँध के फेंकता है.. मैं चाय बनाने के लिए दूध गर्म करता हूँ.. अखबार में खबर है.. डेढ़ साल की बच्ची का बलात्कार.. मैंने दूध पूरा वाश बेसिन में डाल दिया है...
आज रात को फोन पर फिर से वही जवाब मिला है... बी प्रेक्टिकल.... गुलाल का गाना अभी भी बज रहा है.. जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...
जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...वैसी भी बची रह जाए तो कुछ गनीमत है ..जो लिखा तुमने वह रोज का घटने वाला एक सच है जो सुबह सुबह जहन पर छा जाता है और दिन भर पूछता है कि क्या हम वाकई इंसान कहलाने लायक रह गए हैं ... ???
ReplyDeleteइस पोस्ट को पढ़ कर बहुत सुखद अहसास हुआ। कुश क्यों नहीं रोज झाँकते जिन्दगी में।
ReplyDeleteबहुत सोचते हो भाई, इतना ज्यादा सोचोगे तो दिमाग का दही बन जायेगा… है तो वाकई बड़ी मुश्किल दुनिया, लेकिन हकीकत है…
ReplyDelete४६ डिग्री टेम्प्रेचर में बिना पंखे वाले एक कमरे में सुला दिया.. बुढ़िया को रातो रात मुक्ति मिल गयी.. ------ एक सवाल मेरे मन मे भी उठता है..... यह सम्वेदनहीनता आई कहाँ से ???
ReplyDeleteभाई इतनी गहन संवेदनशीलता ...? अखबार में खबर है.. डेढ़ साल की बच्ची का बलात्कार.. मैंने दूध पूरा वाश बेसिन में डाल दिया है...
ReplyDeleteक्या कहुं? कहने को कुछ है नही. बस यही सलाह है कि ... बी प्रेक्टिकल..
ये सब मानवी सवेदनाओ के मरने का नतीजा है।
ReplyDeleteये तो अपने आसपास को परखना हो गया. क्या खूब.
ReplyDeletedon;t be practical.. its good to have some emotional people in the world..
ReplyDeleteजिदंगी के रंग निराले। कहीं सफेद, कहीं काले, और कहीं हरे कुश भाई।
ReplyDeleteअत्याधिक संवेदनशीलता स्वास्थय के लिए हानिकारक होती है-यह जानते हुए भी आप कुछ नहीं कर सकते. यह आपके हृदय की विडंबना है और आपको इसी के साथ जीना है, अतः आदत बना लें.
ReplyDeleteफिर बस एक सकारात्मक तथ्य:
जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...
--यही वचन शायद दुर्गति की गति को जरा मद्धम करे-रोकने का इलाज तो हकीम लुकमान ढूंढ ही रहे हैं.
Kya kahun....man bhari ho gaya aur shabdon ne saath chhod diya.
ReplyDeleteFir bhi tumhare saath hun...
ReplyDeleteजैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...
आज दोपहर में ही एक तेरहवी से आ रहा हूँ......अब हर चीज स्टेटस सिम्बल है .कित्ते लोग आये .कित्ते लोग गए ...अर्रेंज्मेंट भी एक इवेंट ओर्गानाज़र ने संभाल रखा है....शुक्र है ...सफ़ेद कपडे पहनने की शर्त नहीं लगा रखी थी....मोबाइल क्रान्ति ...वहां भी थी....कोई चेहरा ग़मगीन नहीं ....रिश्तेदार आनन फानन में....
ReplyDeleteजिंदगी अब फ्लेटो में सिमट गयी है.परिवार की परिभाषा बदल गयी है.....बीवी बच्चा ओर सिर्फ मै ....पार्क ख़त्म हो गये है...पड़ोस में सब्जी बाटना ...जैसा सिस्टम अब नहीं दिखता...गरीब ओर गरीब है ....अमीर ओर अमीर......लेकिन सब मस्त है .....आदमी सोचता है मै खुद को सेफ कर लूँ ....जिंदगी एक है ....जरूरते ज्यादा ....
कैसी बचेगी दुनिया ......खुदा की जिम्मेदारी .आखिर उसकी सरकार ठहरी...
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें संवेदनशीलता जन्म से उपहार में मिलती है ...और वो मरने तक ख़त्म नहीं होती ...लाख कोशिश कर लो ...चाहे जितना सोचो खुद को बदलने की ...हम नाकामयाब हो जाते हैं
ReplyDeleteअब जो बचा है इस लायक नहीं की उसे बचाने की प्रार्थना की जाए . छोटी बच्ची से बलात्कार भी हमारी अंतरात्मा को उद्धेलित नहीं करता क्योकि हमारी प्राथमिकता समाज नहीं सिर्फ अपना परिवार है
ReplyDeleteमैने यह सब इन आंखो से देखा, बाप को हराम जादे कहते सुना, मां को कुतिया पागल कहते सुना,लेकिन इन हराम जादे, ओर कुतिया पागल की ज्यादाद पर ऎश करते करते इन लोगो को शर्म भी नही आती, पता नही क्यो मेरे हाथ रुक से गये, दिल मै तो था, ऎसे सभी कमीनो को अपने हाथो से मार दुं, ओर इसे मै पाप भी नही समझता,
ReplyDeleteलेकिन हम यह क्यो भुल जाते है कि हम भी लाईन मै लगे है, जो हम आज वो रहे है कल हमारे बच्चे हमे व्याज समेत हमे लोटयेगे, वो यह सब देख रहे है, हम अपने मां बाप का भविष्य थे, हमारा भाविष्या हमारे यह बच्चे ही है, ओर नाग का बच्चा कभी हिरण नही बन सकता, यानि कल हमारा किया जरुर हमारे सामने आयेगा.
कुश भाई धन्यवाद
ऐसा इसलिए भाई जी क्योंकि अब हमारी संवेदनाएं मर गयीं हैं या संभवतः इसलिए भी क्योंकि हम उगते सूर्य को ही प्रणाम करना चाहतें है -खैर ,बेहतरीन पोस्ट .
ReplyDeleteये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है के तर्ज पर बस फिल्में बन सकती हैं, कवितायें रची जा सकती हैं, ब्लौग लिखे जा सकते हैं और भावुक हो बस दो-चार आँसु बहाये जा सकते हैं इसी कोने में बैठ कर सिगरेट के धुओं में छुपाते हुये...
ReplyDeleteऔर कुछ टिप्पणियों को पढ़ उन्हीं आँसुओं के बीच मुस्काया भी जा सकता है।
be practical KUSH!
हादसे इतने है शहर मे अपने के,
ReplyDeleteअख़बारो को निचोड़ो तो खूं टपकता है॥
ReplyDeleteयह सब देख कर ही तो मैं बहुधा डाक्टर का बाना त्याग अमर कुमार बन जाया करता हूँ ।
बहुरुपिये समाज का बहुत ही दुःखद सत्य बड़े मीठे ढँग से उकेरा है, कुश ।
ये दुनिया हमें मिल भी जाये तो.. क्या है ?
कितने चित्र, कितनी संवेदनायें - सब सिमट कर जैसे बह जाना चाहते हों यहाँ । मैं मति-विपन्न भी यूँ ही राह खोजने की कोशिश में रह जाता हूँ । यह पोस्ट पढ़ कर जा नहीं रहा हूँ । ठहर गया हूँ यहीं कहीं किसी कोने में संवेदना की चाकरी में ।
ReplyDelete१९५७ लुधियानवी जी ने कहा "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है." आज पियूष मिश्रा जी ने भी यही कहा की "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है.............
ReplyDeleteअगर इन ५२ सालों में कुछ नहीं बदला तो फिर हम तो बस यही कहेंगे... तुम्हारी है तुम ही संभालो यह दुनिया..........
चेन्नई से देख रहे हैं लड़का बिगड़ रहा है। दुनिया भर की बातें कर रहा है! जय हो!
ReplyDeleteसिर्फ अफ़सोस कर सकते हैं हम ..अपनी हालत पर ..समाज की असंवेदनशीलता पर, और गिरते नैतिक मूल्यों पर. आजकल कमबख्त आत्मा ने भी लोगों को कचोटना बंद कर दिया है.
ReplyDeleteहम इंसान क्यों हैं, क्योंकि हमारे पास संवदेनाएं हैं। आपकी लेखनी हमें बार बार इस बात का एहसास कराती है कि मनुष्यता को जीवित रखना हमारा ही फर्ज है।
ReplyDeleteकितना सोचते हो कुश....पर क्या करोगे तुम भी, साला अन्दर का इंसान अभी जिंदा है! है ना ?
ReplyDeleteवाह रे बनाने वाले तेरी लीला न्यारी है
ReplyDeleteहम्म.... बी प्रैक्टिकल ही कहूं या कुछ और ! समझ में नहीं आ रहा कुछ पढने के बाद.
ReplyDeleteNaiteek muly gir rahey hain unhin ka parinaam hai yah sthtiyan..
ReplyDeletekal hi samachar mein tha 'ek beti ne apni maa ko maar diya...dusri khabar Mahathag ki jo ek prefessional doctor ho kar hazaron logon ki aastha se khel gaaya!
kahan jaa rahi hai yah duniya ..samjh nahin ata.
subah hi padh ke gaye the, kya likhun samajh nahin aa raha tha, socha shaam tak kuch kahungi...abhi bhi kahne ko kuch nahin mil raha.
ReplyDeleteandar ka insaan kamse kam kuch logon me to jinda rahe, warna chaos hi hoga aur kya. ye dard ye chhatpatahat jaroory hai.
कुश, मेरा तो मन करता है प्रकृति इस मनुष्य को ही दुनिया से डिलीट कर दे, दुनिया अपने आप मजे से बच जाएगी।
ReplyDeleteसारी मुसीबतों की जड़ मनुष्य ही है।
माँ से यही बात कह रही थी कि हम सबसे अधम हैं और वे कह रही थीं चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य का जन्म मिलता है !
हम्म ।
घुघूती बासूती
इतने आँसू बह चुके हैं यहाँ कि मन ग़मगीन हो गया।
ReplyDeleteकुश, असल में है क्या कि दुनिया में अच्छी बातें भी बहुत हैं। हाँ, बुरी बातें कुछ ज्यादा हैं। हम मनुष्यों को सभ्यता के विकास की कहानी लिखनी है। यह कहानी और कुछ नहीं, बस अच्छाई को बढ़ाना और बुराई को कम करना ही तो है। आपका लेखन भी इस दिशा में योगदान कर रहा है।
बुराई अपने आप पनपती है, घास-पात की तरह। लेकिन अच्छे फूलों के लिए उपयुक्त पौधे रोपने पड़ते हैं। माली को उनकी देखभाल करनी पड़ती है। घास-पात को निकालना पड़ता है। इसलिए अच्छाई तो तभी आएगी जब उसके लिए सकारात्मक प्रयास किया जाएगा।
हमॆं इस संवेदना का प्रसार करना है। एक आशावादी मन ही सही राह चुन सकता है। हताशा तो मारे डालेगी।
इस संवेदनशीलता के साथ कैसे जीयेगा रे कुश ! लो अचानक हमदर्दी सी उमड़ आयी तेरे प्रति भाई मेरे !
ReplyDeleteकितने ही किस्से याद आ गये कुश..! अपनी सहेली के श्वसुर की अचानक मौत पर मेरा फोन करना.."अरे अभी कल ही तो गुड़िया को विदा कर के कैसे आश्वस्त थे यार" कहते हुए मेरा गला भर आना और उसका कहना कि अपने को संभालो। मैं चकित..! दूसरे दिन जाने पर हँसी खुशी के माहौल में पिता जी को याद कर लिया जा रहा था। अधिक बाते गुड़िया की शादी की थी।
ReplyDeleteसुबह जिन अंकल से हँस के बात क थी शाम को घर लौटने पर उनका शव देखने पर स्तंभिट रह जाना। और आई हुई महिलाओं में एक का दूसरे से पूँछा कि "यार कलर कौन सा लगाती हो ?" मेरा रात भर आंटी के साथ जागना और घर में किसी के भी जोर से बोलने पर उलाहना देना कि कुछ तो मानवता लाओ सुबह ही इस घर से मिट्टी उठी है और शाम को उसी घर से जोरदार ठहाकों की आवाजे आना। खुद ही अफसोस करना आंटी बचारी क्या सोच रही होंगि और जब आंटी से मिलने पहुँचें तो आंटी का उन्ही जोक्स में शामिल होना और याद दिलाना कि वो वाल जोक सुनाओ..!
और मुझे समझ में ना आना कि आंटि के साथ उन जोक्स में हँसे घर लौट आयें और घर लौतने पर माँ का फोन कैसी हो बेटा, आंटी के पास जाती रहना..बहुत दुःखी होंगी।
मीनाक्षी दी की तरह मन में प्रश्न " ये संवेदनहीनता आई कहाँ से ?"
समजिक त्रुटियों और उस पर आपकी शम्वेदंशिलता इस लेखनी के माध्यम से बहुते मार्मिक है.
ReplyDeleteमुझे बहुत अच्छा लगा
गुलाल का गाना अभी भी बज रहा है.. जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो रे दुनिया...
ReplyDeleteसही जगह ले आये हैं हमारी सोच को
ReplyDeleteसही जगह ले आये हैं हमारी सोच को
ReplyDeleteसमझ नही आता हम तरक्की करने के बाद पृथ्वी से अलग न जाने किस दुनिया में पैर रखने की जगह तलाश रहे हैं। समाज में संवेदना को बचाये रखने की बात न जाने क्यों हास्यास्पद होती जा रही है!! संभवत: इसके पैरोकारों में निष्ठ़रता की गुंजाइश से सभी आश्वस्त हैं, इसलिए निष्ठुरता बॉटने में ही अपनी शान समझते हैं। इसके बावजूद मैं निराशावादी नहीं हूँ। जैसा है उसे बदलने के लिए एक कतरा संवेदन की आवश्यकता हमेशा बची रहेगी, अगर ऐसा नहीं है तो मनुष्य प्रजाति बिना ममत्व के उत्पन्न होकर दिखा दे,विकसित होकर दिखा दे।
ReplyDeleteकुश जी की पोस्ट में इसी संवेदना को बचाये रखने की कवायद है।
"ye duniya gaar mil bhi jaaye to kya hai" ye geet(dono,naya bhi purana bhi) aatma ko jhakjhor dete hai...kuch aisa hi kiya aapke post ne...jab bhi aapko padhta hoon kuchh khaas ehsaas hota hai...bahut kam log hai jinki lekhan me ye taakat hai....kisi bhi rikshe waale ya waiter ko thanks bolt ahoon(hamesha) to aapka khyaal ek baar zaroor aata hai...likhte rahiye...haalat behtar honge,koshish jaari rakhiye :)
ReplyDeleteनोबत यहाँ तक आ जायेगी मुझे नहीं पता था........
ReplyDeleteबचा ले रे दुनिया..........
अक्षय-मन
कितना अच्छा लगता है न
ReplyDeleteसंवेदनात्मक बात करना
भावुकता प्रर्दशित करते हुए चार लोगों के साथ चर्चा करना
वाह .........
साला यह भी एक फैशन हो गया है
जब तक दो-चार आदर्शवादी बातें हलक से बाहर न आयें तब तक ब्रेक फास्ट और लंच हजम ही नहीं होता
सच कहू तो लगता है जैसे दिन भर चोर बाजारी करने वाला लाला सेठ शाम को मंदिर की आरती में पांच सौ एक रुपया चढा रहा हो
मै, मेरी बीवी और मेरे बच्चे खुश रहें..
बाकी की क्या चिंता क्या करना ?
क्यों करना ?
दुनिया भर का क्या ठेका लिया है ?
आप में से कौन-कौन महानुभाव हैं जो अपने बच्चे या बच्चों की परवरिश के साथ दुनिया के कम से कम एक अन्य बच्चे की परवरिश कर रहे हैं ?
परवरिश छोडो .... पढाई का खर्च ही उठा रहे हैं ?
आप में से कितने महान ऐसे हैं जिन्होंने दहेज़ के नाम पर कुछ भी न स्वीकार करके शादी की है ?
कितने ऐसे आदर्शवादी हैं जिन्होंने किसी बेहद गरीब परिवार की लडकी से शादी की है ?
निकले हैं दुनिया बचाने ........
अरे बस अपने और अपने परिवार को बचा लो यही काफी है ..... ज्यादा दिक्कत हो तो थोडा जुगाड़ करके बाहर निकल लो ......... यह देश रहने लायक है ही कहाँ ?
देश के प्रति संवेदना तो बाहर रहकर ज्यादा
अच्छी तरह से दे सकते हो
तब लोग ज्यादा सुनेंगे भी ......
हाय बेचारा ... देखा !!
मिटटी से जुडा हुआ आदमी है ...
आज भी अपनी मिटटी को मिस करता है
अमां अब रहने भी दो ....... कहने को दिल भरा पड़ा है लेकिन आप लोगों का मूड और खराब नहीं करूंगा...खामखाँ आपको ईवनिंग में एक पैग एक्स्ट्रा लगाना पड़ेगा
चियर्स .... इंज्वाय द डिस्कसन
दुनियादारी की बातें समझ आ रही हैं !
ReplyDeleteJai ho
ReplyDeleteJai Ho
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