Monday, March 24, 2008

तेरे नाम का रंग..


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रंग
लगा दिया था तुमने
चुपके से
आकर के मेरे
गालो पर..
पूरे मोहल्ले में
खबर फैली थी..
तुम्हारा नाम
पहली बार मेरे
नाम के साथ आया
था.. और इक ऐसे
रंग में रंगी थी मैं
क़ी फिर कभी छूट ना पाया
मेरे बाबूजी से तुमने
अपनी पसंद बताई थी
फिर तुम्हारा नाम मेरे
नाम के साथ आया था
बस उस दिन से...
तुम्हारे रंग में जो रंगी थी
उसी को याद करती हू
तुम्हारी यादो के
रंगो से अपनी सूनी
माँग भरती हू... ना जीती हू
ना मरती हू..
जंग के बाद
जो चिट्ठी आई थी रतन वीर
सिंह क़ी बीवी के लिए..
उसी को पढ़ती रहती हू
शायद उसमे आख़िरी बार
तुम्हारा नाम...
मेरे नाम के साथ आया था
बस तब से सोचती रहती हू
क़ी फिर किसी होली के दिन
तुम्हारा आना हो चुपके से
मुझे पता भी ना चले
और तुम आकर के
लगा दो रंग.. क़ी मैं
फिर से तुम्हारा नाम मेरे
नाम के साथ मिलाना चाहती हू
और तुम्हारे रंगो में ही
रंग कर तुम्हारी हो जाना चाहती हू......

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5 comments:

  1. बहुत मर्मस्पर्शी कविता है ........

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  2. अत्यन्त सुंदर अभिव्यक्ति , बधाईयाँ !

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  3. "जंग के बाद
    जो चिट्ठी आई थी रतन वीर
    सिंह क़ी बीवी के लिए..
    उसी को पढ़ती रहती हू
    शायद उसमे आख़िरी बार
    तुम्हारा नाम...
    मेरे नाम के साथ आया था"

    आपकी कविता दिल को उद्वेलित कर गयी..

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  4. आप सभी क़ी प्रतिक्रियाओ के लिए धन्यवाद

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  5. संयोग से आपने मधुशाला या पाकशाला पोस्ट पढ़ी और हम इधर आ निकले... भावभीनी कविताएँ और पर्वों पर आपका लेख प्रभावित कर गया.

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..