सुना भी तो जा सकता है..
----------------------------------------------------------
शहर का गिरेबान पकड़ कर जैसे किसी ने उसे नीचे गिरा दिया हो.. सड़क पर औंधे मुंह पड़ा हुआ है.. सड़क पर ही पड़ी खाली शराब की बोतले.. एक दुसरे से टकरा टकराकर सन्नाटे को तोड़ने की कोशिशे कर रही है.. उनमे बची थोडी बहुत शराब नालियों में बहती जा रही है.. सिगरेट के कुछ बुझे पड़े ठूंठ रात की चिंगारियों से अभी तक खुद को अलग नहीं कर पाए है.. कुत्ते.. कुत्तो की तरह फूटपाथ पे लेटे हुए है.. और इन सब पे नज़र रखता लैम्पोस्ट बिना हिले अपनी जगह पर खड़ा खड़ा चुपचाप सबकुछ देखता जा रहा है..
तेज़ी से भागती गाडियों के चक्के सड़क की छाती पर निशान छोड़ गए है.. हवा निकल कर फुस्स हो चुके गुब्बारे सड़क के कोनो में बिखरे हुए है.. दो चार पतंगे बिजली के तारो में उलझी हुई है.. दीवारों पर लिखा दिल्ली चलो अब कुछ साफ़ नहीं दिखता.. सड़क पर जमा कचरे में चूहे मुंह मार रहे है..
दूर कही से रेडियो के गाने की आवाज़ आयी है.. ऊंची हील वाली एक सैंडल सड़क पर पड़ी है.. थोडी ही दूरी पर दूसरी सैंडल, आगे चलकर लेडिज पर्स और उसके आगे घुप्प अँधेरा.. लोग अभी तक सो रहे है.. सूरज थोडी देर में निकलेगा निकल ही आएगा.. अखबार से भरा हुआ ट्रक सड़क से गुज़रा है.. फूटपाथ पे लेटे आदमी की टांग से इंच भर के फासले से.. चमेली के पत्तो की महक सहमी सहमी सी सड़क तक आ रही है..
मंदिर में घंटीया बज रही है.. दरगाह से अजान की आवाज़ भी आ रही है.. कुत्ते भोंकते हुए भाग रहे है.. अखबार वाला सायकिल की घंटी बजाता हुआ निकला है... नीम के पेड़ पे बैठी चिड़ियाओ की आवाज़े आ रही है.. कुलमिलाकर अब कह सकते है कि सुबह हो रही है.. ये दिन गुजरेगा.. बीतेगा.. बीत ही जाएगा... फिर शाम होगी, रात होगी और सुबह होगी.. सब कुछ युही चलेगा... चलता ही है.. चलता ही जाएगा..
सुन्दर
ReplyDeleteमजा आ गया... सुनकर..
ReplyDeleteभावपूर्ण आवाज़ से प्रभावशाली बन पड़ी है रचना.शहर की व्यथा..बहुत खूब.
ReplyDeletewaah bahut badhiya
ReplyDeleteवाह...क्या सुबह का मंज़र खींचा है आपने...गज़ब...लाजवाब...बेमिसाल....कभी मौका मिले तो जोश मलीहाबादी साहब की छोटी सी किताब है " यादों की बारात " जिसमें उन्होंने ने अपने जीवन के संस्मरण लिखे हैं , वो जरूर पढना...सुबह होने के अहसास को जिस तरह उन्होंने शब्दों में बांधा है वो दुर्लभ है...किताब मैंने बरसों पहले पढ़ी थी , याद नहीं शायद राजकमल प्रकाशन वालों की थी....जयपुर के चौड़ा रास्ता में "मालिक एंड कंपनी" नाम से किताबों की दुकान है जहाँ हिंदी की अच्छी अच्छी किताबें किस्मत से मिल जाती हैं...उनका एक अन्दर साइड में गोदाम है वहां जाना, वहां हो सकता है मिल जाए...गोदाम मुख्य दुकान के एक दम पास है लेकिन वहां वो हर किसी को नहीं ले जाते...पुस्तक ढूँढने के बहाने वहाँ जा सकते हैं...
ReplyDeleteनीरज
@नीरज जी
ReplyDeleteआप देवदूत है.. मन कर रहा है कि आप पर पुष्पवर्षा करू और अहो अहो का नाद भी..
कौन कहता है नैरेटिव माध्यम होता है , यहाँ तो यूँ लग रहा है कि नैरेटिव ही कहानी है , कहने वाले का दृष्टिकोण ...यूँ रुकी रुकी सी जन्दगी का खाका खींचा है ।
ReplyDeletePadhte hue kayi manzar aankhon ke aage se guzar gaye..kanon me aawaazen goonj gayeen...dil me ek tees uthi..lo ek subah aur hui..
ReplyDeleteमुझे तो लगा कि आप दिल्ली की बात कर रहे है, जो कई महिनो से ऒंधे मुंह पडा है जी.....पता नही डेंगू हो गया या बेचारे को मलेरिया होगया है
ReplyDeletechaliye kisi ki to nazar gayi ..kisi ne to haal samjha...kisi ko to talab hai... :)..beautiful!
ReplyDeletewaah !
ReplyDelete
ReplyDeleteसही कहा आपने, सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा।
………….
साँप काटने पर क्या करें, क्या न करें?
साक्षात पन्नो मे उतार दिया………………।गज़ब का चित्रण्।
ReplyDeleteजीवंत लिखा साहेब, बहुत बढिया. रात के उस पहर मानो मैं भी वहीँ शराब कि खाली बोतलों के साथ लुडक रहा हूँ......
ReplyDeleteबोतलों कि तरह बिलकुल खाली......... शायद सुबह के कबाडी कि इन्तेज़ार मैं.
टिपण्णी तो बहुत लोग देते हैं - बिलकुल सरकारी दफ्तरों कि फाइल पर लगी जसी - बाकि नीरज जी की टिपण्णी बहुत खास होती है. हम समझ जाते हैं कि लेख को पढ़ कर बता रहे हैं.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर, पोस्ट सुनकर पता चला की सुबह२ लैपटॉप के पास कसरत क्यों हो रही थी....
ReplyDeleteभाई मुझे तो ऑडियो क्लिप जानदार लगी... टेक्स्ट की जरुरत नहीं थी, वैसे आपने अच्छा ही किया, टेक्स्ट नहीं लगते तो हमें सुनने का धैर्य भी नहीं होता और ऑडियो क्ल्लिप चले ना चले ढेर सारे कमेन्ट आ जाते वाह क्या आवाज है, फलाना चिलाना टाइप ...
ReplyDeleteतो मजेदार बात ये की ऑडियो क्लिप एक वातावन का निर्माण करती सी लगी जहाँ आप जल्दी में आ होते तो और जानदार बना सकते थे .. नहीं ???
हालांकि औडियो में सुधार की गुंजाइश है । पर कुल मिलाकर खोंमचा जम गया ।
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर परिकल्पना की है शहर की। सच में।
ReplyDeletedear kush, tumhara blog mujhe darpan sah ne forward kiya...
ReplyDeletekitni taarifen ooper padhi-suni...tumhein to khush hona chahiye...kitne tumhein padhte hain, pahchante hain,pasand karte hain...aur apni dili tippaniyaan bhie de rahe hain...
tumhari kalam ya drishti, chaumukhi lenses aur lot of megapixal liye hue hai...tabhi to kitna cristal clear 'darshan' hai tumhari drishti mein, tumhare antar mann mein...
aur yeh chhota sa lekh ek sarvottam 'script' bhi hai...GGS(ggshgs@gmail.com)
सुनकर आंनद आया . वैसे भी सुबह होगी शाम होगी जिन्दगी यूं तमाम होगी
ReplyDeleteहेन्गोवर बड़ी अजीब चीज़ है .होता है तो इन्सान कई कसमे खाता है ....ख़त्म होने पर फिर भूल जाता है.......हमारे शहर को अब देसी या कोकटेल कोई असर नहीं करती...प्रयोग अच्छा है .....
ReplyDeleteबाई दी वे .ये नीरज जी की लाइन
गोदाम मुख्य दुकान के एक दम पास है लेकिन वहां वो हर किसी को नहीं ले जाते
भी अच्छी है ....क्या कहते हो ठाकुर ?
"ऊंची हील वाली एक सैंडल सड़क पर पड़ी है.. थोडी ही दूरी पर दूसरी सैंडल, आगे चलकर लेडिज पर्स और उसके आगे घुप्प अँधेरा.."
ReplyDeleteकुशजी, वो लेडी मिली कि नै :(
Read more: http://kushkikalam.blogspot.com/2010/09/blog-post.html?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+kushkikalam+%28%22%3F%3F%3F+%3F%3F+%3F%3F%3F%22%29#ixzz0ywjcIJGQ
bahut sundar likha aapne....
ReplyDeleteपढ़ लिए, कल भोरे सुनेंगे.. अभी सभी सोने चले गए हैं..
ReplyDeleteइस शहर/सड़क का सफ़र बस क़दम दो क़दम
ReplyDeleteतुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे।
excellent writing... doob hi gaye
ReplyDelete
ReplyDeleteयह पठ्य-श्रव्य प्रयोग, अच्छा है.. बढ़िया है... और तुलनात्मक रूप से शिष्ट लगता है । हालाँकि कुश की कलम पर पहली बार थोड़ा समीरी प्रभाव भी महसूस हुआ । ( समीर भाई क्षमा करें, यह किसी भी प्रकार से कोई तुलनात्मक वक्रोति नहीं है )
सो, यहाँ एक उल्टा प्रभाव यह है, कि पाठक को यह श्रव्य क्लिप एक पुरसुकून सहारा देती है, खिझाती नहीं है । वॉयलिन का प्रयोग अच्छा है, पर इसके साथ पन्डित निखिल बनर्जी के सितार की दूर से छन कर आती हुई गूँज एक डेप्थ, एक गहराई के डाइमेन्शन की मौज़ूदगी का एहसास श्रोताओं पर छोड़ती, और.. यदि राग विलम्बित खमज़ हो, तो क्या कहने । डूबते-उतराते उदास भोर की ऑरा दिलो-दिमाग को जकड़ लेती । कुल मिला कर यह प्रयोग एक उम्दा प्रभाव छोड़ जाती है ।
बताओ.. और क्या कहें...
देश का एक बड़ा तबका शुद्ध शराब के लिये भटक रहा है, उसका यूँ नालियों में बहाया जाना सुखद नहीं लग रहा है.. उसमें से कुछ समेट कर इधर ही भेज देते, तो हम भी कह पाते... doob hi gaye,
नीरज जी की तज़वीज पर गौर करना, पर गोदाम में टटोलने से पहले यह अवश्य पढ़ लेना कि " साँप काटने पर क्या करें, क्या न करें ? "
बताओ.. और क्या कहें...
बाकी सब तो ठीक लेकिन आजकल कुत्तों और खम्भों पर बहुत ध्यान दे रहे हो :)
ReplyDeleteपढ़ कर एक नज़ारा आँखों पर तारी हो गया...सुनने का मन नहीं किया अभी....लगा कहीं कोई और रूप ना ले ले ये मंज़र....कभी ..जब इस मंजर से बाहर आये तो जरूर सुनने आयेंगे दोबारा...
ReplyDeleteकुत्ते.. कुत्तो की तरह फूटपाथ पे लेटे हुए है.......हाय ..हाय..ग़ज़ब...
.
ReplyDelete.
.
केवल पढ़ा ही है अभी,
सुन्दर शब्द चित्र...
कुल मिलाकर अब कह सकते है कि सुबह हो रही है.. ये दिन गुजरेगा.. बीतेगा.. बीत ही जाएगा... फिर शाम होगी, रात होगी और सुबह होगी.. सब कुछ युं ही चलेगा... चलता ही है.. चलता ही जाएगा..
वाह !!!
...
कुश भाई वाकई मजा आ गया. पढ़कर ..! ओह कैसे-कैसे तो आपने बुन दिए शब्द..अहा..शहर तो अब भी आपके बारे में सोच रहा होगा...! बेहतरीन ..!
ReplyDeleteक्या बात क्या बात क्या बात........इस नजिरए से भी सोचा जा सकता है ..
ReplyDeleteबिना बताये कि यह किसकी लिखी हुई है,यदि सिर्फ यह अंश पढने/सुनने को दिया गया होता और इसके रचयिता का नाम बताने को कहा जाता ,तो कह देती...गुलज़ार साहब की लिखी लगती है.........
ReplyDeleteबहुत बहुत लाजवाब !!!!
लाजवाब । कुछ नही फिर भी सबकुछ । पुरा पिक्चर दिखता है ।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है भाई. बहुत खूब.
ReplyDeleteसुन कर उतना मज़ा नहीं आया जितना पढ़ कर आया....
ReplyDeleteसुनने में ऐसा लगा जैसे कोई टेक्स्ट बुक पढ़ रहा हो... और भी बेहतर हो सकता था.. या शायद मुझे ही ऐसा लगा...
Achha likha sir ji....Badhai...
ReplyDeleteबाबू अभिषेक ओझा की टिप्पणी को हमारी टिप्पणी भी माना जाय... और ’उनको’ ’जवाब’ दिया जाय :P
ReplyDeleteशब्दों जितने असरकारी आवाज़ उतनी ही प्रभावी
ReplyDeleteबधाई
सुना तो नही बस पढ़ा ,पर पढ़कर बहुत अच्छा लगा आपका यह आलेख .अच्छी अभिवयक्ति
ReplyDeleteसच जिंदगी यूँ ही चलती रहती है। ऐसा लगा जैसे सामने कोई फिल्म चल रही है
ReplyDelete।
तारीफें बहुत हो गईं, मैं नहीं करूँगी. मेरी फेवरेट लाइन इस पोस्ट की " कुत्ते कुत्तों की तरह फुटपाथ पर लेते हुए हैं." क्या ज़िंदगी है यार कुत्तों की... ये लेडीज़ पर्स वाली बात समझ में नहीं आयी... थोड़ी मोटी बुद्धि है.क्या कहना चाह रहे थे...चुप्पे से कान में बता दो.
ReplyDeleteहाय राम मोडरेशन ! ये क्यों?
ReplyDelete