Wednesday, October 10, 2007

"शिथिल मैं शिथिल मॅन"

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शिथिल मैं शिथिल मॅन
उड़ रहा जैसे क्टी पतंग
ना लक्ष्य है ना आस है
ना हिम्मत ना प्रयास है
देखता हू दूर बहुत
क्षितिज़ के उस पार तक
धूल है बस धूल है..
ना बूझ सके वो प्यास है
क़दम जमे ज़मीन पर
ना इनमे कोई जान है
थमते है ठहरते है
ना जाने कहा प्राण है
भविष्या को देखती
नज़र है इक आँख है
झूलती डगर पर
टूटती सी साख है
बहुत से है गगन में मेघ
ना बूँद ना आभास है
सूखी पड़ी ज़मीन से
जैसे कोई परीहास है
रुकी हुई थकि हुई
गुम सी अब मिठास है
फूल क्या लताए क्या
सबकी सब उदास है
रूकु कही, थमू कही
रोशनी हो जलु कही..
धागा बनू जलता राहू
साथी मुझे मोम की तलाश है
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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..