Friday, May 25, 2007

"पहली सुबह..."

लिखी थी कुछ बातें
रात को तुमने और मैने ....

उजाले ने खोल दी मुट्ठी
और रात उड़ गयी ..
रोशनी चुपके से
कमरे में उतर आई...

उनंदी निगाओ से
तुमको देखा, आज पहली सुबह है
अपने सीने से तुम्हारा
हाथ हटाया, कितनी मासूम सी सोई थी..

माथे पर तुम्हारे
फैला हुआ सिंदूर
किसी साँझ की
लाली का एहसास कराता है..

खिड़की से देखती बेल
ने शायद तुमको छुआ होगा
कितनी सुंदर तुम्हारी
पहली अंगड़ाई है ...

धीरे धीरे
खुलती तुम्हारी आँखें..
कुछ ख्वाब अभी तक
है बाक़ी..

खोल कर आँखें
तुम होले से मुस्काई..
और फैला दी बाहें
तुम्हारा दिल भी ना, भरा नही..

रुके क़दमो से..
जा पहुँचा...
तुम्हारी गोद में
सर अपना छुपाया था..

चददर की सलवटे
रात की कहानी सुना रही है
हया से चेहरा हमारा
लाल होने लगा है ...

खुले बालो मैं तुम्हारे
ऐसे खो गया हू
जैसे बच्चा कोई भ्रे बाज़ार में
खो गया है

तुम्हारी मुस्कुराहट
गुलाब की पंखुड़ी...
महकती है और
महकाती भी..

आज जो ये sparsh
है तुम्हारा...
पहली बार मा की गोद
में इसे पाया था...

ऐसा ही प्यार मेरी
ज़िंदगी मैं भरना
तुम्हारी रात वाली बात
मुझे हमेशा याद रहेगी..

दिल तो किया था
थोड़ी और बढ़ा लेते
पर बुलबुले सी रात
ख़त्म हो चुकी थी..

कुछ बूँदे फिर भी
जो गिरी थी कल रात
अपने गीले निशान
कमरे में छोड़ गयी थी...

लेकर इक दूजे का हाथ
अपने हाथो में..
एक कसम दोनो की ज़ुबान
पर थी..

लिखी थी जो बातें
रात को तुमने और मैने
वो बातें अब भी
आसमान पर थी....

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"एक और ख़्याल...."

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इक रोज़ किसी ने
दरवाज़ा खटखटाया था

देखा जो झाँक कर एक लिफाफ़ा मिला
खोला तो इक रात पड़ी थी
काग़ज़ में लिपटे हुए
मैने उठाकर सेंकली, जलती
हुई लकड़ियो पर
पहले से और काली,
वो रात हो गयी थी ....
उस रात जब संग मेरे
तुम चले थे पल दो पल
वो राहें आकर के मेरे
पैरो से लिपट गयी
पूछने लगी तुम्हारे साथ
वाले क़दमो के निशान कहा है
मैं क्या जवाब दु
कहा से लाऊ वो निशान
जिसके रंग धूसर हो चले
अब मैं अकेला
मुडके देखता हू
सब कुछ ढुंधला
आँखें भीग आई
आँसू गिरने लगे..
मेरे हाथो में पड़ी
रात पर ..
धीरे धीरे रात की
सारी परते खुलती रही
आँसुओ से मेरे, काग़ज़
पर पड़ी रात धुलती रही..
एक सफ़र का अंत था या नयी
शुरुआत कोई..

या फिर जलने को आतुर
फिर से अबकी रात कोई
मैं अब भी तन्हा हू,
कुछ सूझता नही,
सूखी लकड़िया कहा से लाऊ
मन में डर सा लग रहा है

कल शाम फिर किसी ने
दरवाज़ा खटखटाया था...

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"सिर्फ़ एक ख़्याल......."

May 24(1 day ago)

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मैने लिख दिया था
नाम तेरा और मेरा...

मगर किसी को
ये नागवार गुज़रा
उसने मिटाई हस्ती
दरखतो से
कुछ इस तरह...
की रेत से भ्री मुट्ठी
ख़ाली हो चुकी थी
तू रख लेती मुझे,
पायल बनाकर तो
तेरे क़दमो में रह लेता
किसी तरह
मगर तूने बनाकर आँसू
मुझे..
अपनी निगाओ से गिरा दिया,,

मैने लिख दिया था
नाम तेरा और मेरा रेत पर
समंदर का सहारा लेकर
तूने उसपे पानी फिरा दिया...

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Wednesday, May 23, 2007

"कल शाम बर्फ़ गिरी थी, वादियो में "

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कल शाम बर्फ़ गिरी थी
वादियो में कही..
और ठंड फैल गयी
उजाले की तरह..

मैने तुम्हारी
गोद को लिहाफ़ बनाया था..

फिर आँखें बंद हुई
मैं कही खो गया..
तू थपथपाती रही
कांधे को मेरे..

मुझे फिर से..
तेरा ख्वाब आया था..

खुली जो आँखें
थमी सांसो से, कुछ पूछा
तुम कुछ नही बोली
वैसे ही रही..

पर आँखो से
तुम्हारी, इक जवाब आया था...

बड़ी अजीब बात है
कैसे करू यक़ीन...
वो प्यार ही था
जिसने प्यास लगाई थी..

और वो भी प्यार था
जिसने उस प्यास को बुझाया था...

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"कल शाम उपर वाले कमरे में"

कल शाम उपर वाले कमरे में
जहा से डाल सटी है गुल्मोहर की...

मैं बैठा वही अपनी डायरी में
कुछ लिख रहा था..
सूरज दूर तो था लेकिन अस्त होता
मुझे क़रीब सा दिख रहा था..

मैने सोचा कुछ लिखू आज
तुम्हारे लिए
इतने में ... सब कहने लगे
आख़िर ये सब लिखते हो किसके लिए

जिसका नाम भी हमे पता नही
काम से काम इतना तो बता दो...
की इतना सुंदर, इतना प्यारा
किसके लिए लिखते हो...

कभी कहा फ़ूलो से दोस्ती
कभी तितलियो का नाम लिया
कभी कह दिया सुबह की नादानी है
कभी मस्ती भरी शाम कह दिया...

मेरी कलम नाराज़ हो गयी
द्वात ने भी ना मानी
उड़ते कग़ज़ॉ को कैसे संभाला
रूठ गयी मेरी चश्मेदानी...

आज रूठ गये थे सब, मान ने को
भी ना थे तैयार, इतना ही नही
आराम कुर्सी के साथ कोने में
जा बैठा मेरा गीटार...

सब के सब ज़िद पर अड़ गये थे
नाम बताओ वो कौन है
ऐसा क्या है नाम में उसके
जो आप हम सबसे भी मौन है

इतने में खिड़की ने दी ज़ोर से आवाज़
बड़े ज़ोर से हवा का झोंका आया था..
पलट दिए डायरी के पन्ने सारे
होकर के मुझसे नाराज़..

अब तो डायरी के पन्नो से गज़ल, नज़्म
सब बाहर आने लगी ......
कौन है वो, कौन है वो
पूछ पूछ कर मुझे सताने लगी

दरवाज़े, रोशन दान
और अलमारियो की दराज़...
सब की सब हो चली
थी मुझसे नाराज़...

सब चिल्लाए थे मुझ पर
फिर भी रखा लबो को थाम
कभी कुछ कहा कभी कुछ कहा
पर लिया नही तेरा नाम...

पर कितना भी कह लू इनसे
ये सब समझते है ...

कल शाम उपर वाले कमरे में
जहा से डाल सटी है गुल्मोहर की
तुमको चुपके से....
आते हुए इन सबने देखा था...

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Monday, May 21, 2007

"तस्वीर तेरी....हरे कुर्ते वाली.. "

देख कर तस्वीर तेरी
हरे कुर्ते वाली..

उसी गार्डन में..
कल शाम तुमसे मुलाक़ात हुई थी
पेड़ से सटे बंद आँखो मैं
तुमसे फिर कोई बात हुई थी...

अचानक एक बूँद आकर
गिरी मेरी पल्को पर .....

अधखूली आँखो से जो देखा
तो तुम बाहर थी..
भागती हुई तितलियो को पकड़ती
ना हाथ लगी तो कैसा चेहरा बनाया था...

आधी आधी धूप और
आधी आधी छ्ाव में..
बच्चो के साथ खेलती
एक पाव से..

अपनी चुनरी दोनो हाथो मैं लिए
मंद हवा सी उड़ रही थी...
जहा जहा भी जाती तुम
हवा भी उस तरफ़ मूड रही थी....

जा पहुँची तुम गुल्मोहर के पेड़ के पास
और कैसे उसे हिलाया था..
कई सारे फूल और पत्तो को
अपने उपर गिराया था..

फिर दोनो हाथो में ले आई फूल
और एक फूँक से मुझ पर उड़ाए थे...

कैसे पकड़ कर ले गयी मुझे
पानी पीना भी तुमको ना आया था
नल के पास मेरे हाथो से
तुमको पानी मैने पिलाया था...

सुर्ख़ गुलाबी होंठ तुम्हारे
जब पानी की बूँदे थी उन पर
किसी गुलाब पर सुबह की औस
का नशा छ्हाया था...

अपनी कोहनी से पोंछ दिया मुह
मेरा रुमाल ले लेती ...पागल

फिर हाथ थाम कर चले थे हम घास पर
कंधे से कंधा टकराया था..
तुमको तो पता भी ना चला होगा
पर मैं थोड़ा शरमाया था...

बूँदे कुछ और गिरने लगी
मैं फिर से जा पहुँचा पेड़ के नीचे..
तुम भीगने लगी बारिश में
अपनी जुड़वा आँखियो को मीचे...

हल्की धूप जो फिर आई
थोड़ी सी बरसात के बाद..
इंद्रधनुष को देख कर
तुम कितना मुस्काई थी...

इंद्रधनुष के रंग भी
गिरने लगे ज़मीन पर ..
कुछ हाथो में लेकर मैने
तस्वीर तुम्हारी बनाई थी..

रंगोली सी तुम
मुझे बड़ी प्यारी लगी .....

अचानक जगाया किसी ने मुझको
मैं ख़ुद पर हँस के चल पड़ा
कितना पागल हू..
अक्सर ऐसा ही करता हू..

देख कर तस्वीर तेरी
हरे कुर्ते वाली..
रात भर उस से बातें करता हू...

Friday, May 18, 2007

"आज थाम लो हाथ ज़रा..."

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आज थाम लो हाथ ज़रा...
ठोकर ज़माने की लगी है...

आज थाम लो हाथ ज़रा...
फिर की किसी ने दिल्लगी है...

बहुत देर से तन्हा रहते रहते..
ना जाने कहा खो गयी थी..

आज थाम लो हाथ ज़रा..
ढ़ूँढनी मुझको ज़िंदगी है..

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Thursday, May 17, 2007

laut ke aaya vaha

tere sang jo har lamha maine jiya tha
apni khushiyo ko bhi maine tujhko diya tha
na chahte the koi bhi sath tera mujhe mile
lekin bharosa maine tujhpar hi kiya tha,
tumne na mani baat mujhko samjha diya,
phir bhi raah dekhta mera jalta diya tha
tum to na lauti zindagi main meri magar,main
laut ke aaya vaha; jahase shuru kiya tha.