पन्ने हवा में अभी भी उड़ रहे थे..
उसने खिड़की बंद नही की... पता नही क्यो उसे आज सुबह से ही लगा था कोई तूफान आने वाला है.. तेज़ हवा का एक बदतमीज़ झोंका खिड़की को खोलते हुए अंदर तक आ गया...
पन्ने हवा में अभी भी उड़ रहे थे...
उसकी नज़रे मोबाइल पर टिकी थी.. फिर एक बार मोबाइल की घंटी बजी.. वो देखता रहा स्क्रीन पर.. पूरी रिंग गयी.. उसने फोन नही उठाया.. कल शाम से वो ऐसा कितनी ही बार कर चुका था...
पन्ने हवा में अभी भी उड़ रहे थे...
उसने खिड़की की तरफ देखा.. आसमान लाल हो चुका था.. आज आँधी बड़ी ज़ोर से आने वाली थी.. उसके दरवाज़े पर दस्तक हुई.. वो खिड़की की तरफ ही देखता रहा.. अबकी बार दरवाजा और तेज़ी से ख्टाकाया गया.. .वो उठा उसने दरवाजा खोला और फिर एक झटके के साथ बंद कर दिया.. मगर बाहर से धक्का लगा.. वो पीछे गिरा..
एक तेज़ हवा के झोंके की तरह वो कमरे के अंदर तक आ गयी..
वो मुँह फेर कर खड़ा हो गया..
सहमी हुई आवाज़ में वो बोली.. "तुमने कल मुझसे पूछा था ना की तुम मुझसे शादी कैसे कर सकते हो ये जानते हुए की मुझे एड्स है.." अबकी बार बादल बहुत ज़ोर से गरजे थे..
मैं उसी का जवाब देने के लिए यहाँ आई हूँ.. तुम्हे इतने फोन किए पर तुमने उठाया नही.. मैं जानती हू ये तुम्हारे लिए भी मुश्किल होगा.. तुमने ठीक कहा था मुझे एड्स है तो तुम मुझसे शादी कैसे कर सकते हो? फिर उस से क्या फर्क पड़ता है.. की हमने एक दूसरे के साथ रहने की कसमे खाई थी.. तीन सालो में तीन सुहानी सादिया मैने तुम्हारे साथ गुजार दी.. वो एक ही साँस में सब बोले जा रही थी..
पन्ने हवा में अभी भी उड़ रहे थे...
इसीलिए मैं यहा तुमसे कहने आई हू.. की मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. और एक नयी ज़िंदगी की शुरुआत करो.. मेरे साथ जीने में तुम्हारे लिए कुछ नही रखा है.. मैं यहाँ से बहुत दूर चली जाउंगी.. तुम्हारी ज़िन्दगी से भी..
खिड़की से आए तेज़ झोंके ने पानी का गिलास गिरा दिया.. छन्न छन्न की आवाज़ कमरे में बिखर गयी..
वो दबे कदमो से उसकी तरफ मुड़ा.. और पास में पड़े पन्ने उसकी ओर बढ़ा दिए.. वो उन्हे हाथो में लेकर देखती रही.. फिर उसकी तरफ नज़र उठाकर देखा.. अब तक उसकी आँखो में आँसू आ गये थे.. उसकी ज़ुबान लड़खड़ा गयी थी.. अब तक वो ये जान गयी थी की कल जिसने उसे एड्स होने के कारण छोड़ने की बात कही थी.. ये एड्स उसे उसी ने दिया है..
रिपोर्ट के पन्ने उसके हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़े.. एक असीम सुकून उसके अंदर तक उतर गया.. वो नही जानती थी की क्यो उसे इस बात से बहुत खुशी हो रही थी..
उसने दबी आवाज़ में लड़की से पूछा क्या अब तुम मुझे छोड़ दोगी?
आसमान में एक बिज़ली ज़ोर से कड़की... उसने कोई जवाब नही दिया.. और तेज़ कदमो के साथ बाहर निकल गयी..
बादल बहुत तेज़ बरस रहे थे.. कुछ इस तरह से जैसे आज ये आखिरी बारिश हो... ऐसा तूफान पहले कभी नही आया था... वो दरवाजे की तरफ देखते हुए खड़ा रहा..
पन्ने हवा में अभी भी उड़ रहे थे..
कुछ बातें दिल की दिल मैं ही रह जाती है ! कुछ दिल से बाहर निकलती है कविता बनकर..... ये शब्द जो गिरते है कलम से.. समा जाते है काग़ज़ की आत्मा में...... ....रहते है........... हमेशा वही बनकर के किसी की चाहत, और उन शब्दो के बीच मिलता है एक सूखा गुलाब....
Tuesday, October 21, 2008
Wednesday, October 15, 2008
... फुर्सत वाली चाय ...
फुर्सत वाली चाय
हाँ यही तो कहता था मैं..
सुरम्यी शाम जब गुनगुनाती
हुई आती थी घर हमारे....
कभी ऑफीस से घर जल्दी आता
तब मिलती थी..
.. फुर्सत वाली चाय..
मेरी उंगलिया चाय के प्याले से ज़्यादा
तुम्हारी गर्माहट से गरम
हो जाती थी.. तुम बिठाकर मुझे
आराम कुर्सी पर.. मेरी गोद में
बैठ जाती थी.. और तुम्हारी सांसो
की खुशबु चाय में मिल जाती थी..
क्या खूब होती थी वो..
फुर्सत वाली चाय..
तुम अंगूर की बेल जैसे.. झूल जाती
थी गर्दन पर मेरे.. और थाम लेती
मेरे हाथो को जैसे बारिश के बाद
पत्ते गिरती बूँदो को
थामा करते है..
और बिखेर देती थी मुस्कुराहट जैसे
सुबह बादलो में धूप..
बिखर जाती है.. और सितारे बिखर जाते
है जैसे रात में...
तुम नही जानती थी की..
तुम्हारी एक मुस्कुराहट.. ना जाने
कितनी गुड की डलियो सी मिठास ..
घोल जाती थी मेरी निगाओ में..
ये मुस्कुराहट.. मेरी दिन भर की
थकान उतार कर..
टंगा देती थी चिन्ताओ के साथ
खूँटी पर..
जब तक प्याला ख़त्म नही होता
उस चाय का.. तुम मेरी सांसो से
अपनी साँसे उलझा के रखती थी बस..
और मैं इन्तेज़ार करता रहता
था हमेशा की.. कब
ऑफीस से जल्दी घर जाना होगा..
अब भी इन्तेज़ार है.. आज शाम को टहलके
जल्दी घर आया था.. बाल्कनी
मैं बहू को देखा..
छोटे के लिए चाय लाई थी..
और आसमान से बूंदे गिरने लगी
दो तीन बूंदे लबो
पर अभी भी रुकी हुई है..
लगता है अब तुम वहा से पिलाती हो मुझे
.... फुर्सत वाली चाय
Monday, October 6, 2008
शहर की बदनाम गलियो में कोई दरवाजा खटखटा रहा है..
ठक ठक ठक!
ठक ठक ठक!
शहर की बदनाम गलियो में सुबह के आठ बजे कोई दरवाजा खटखटा रहा है.. अंदर से किसी आदमी की आवाज़ आई..
कौन है सुबह सुबह?
जी वो..
क्या है भई?
जी वो यहा पर..
क्या यहा पर?
यहा पर लड़किया....
अरे बाबूजी सुबह सुबह मस्ती सूझ रही है..
नही दरअसल..
हा जी सब पता है हमको.. बोलिए
आपके यहा पर लड़किया..
अरे लड़कियो के आगे भी कुछ बोलॉगे.. ??
लड़किया मिल जाएगी..?
हा हा क्यो नही आप हुकुम कीजिये पुरानी शराब की तरह है हमारे यहाँ का माल..
नही मुझे जवान लड़किया चाहिए
क्या मतलब?
यही कोई पंद्रह सौलह साल की..
ओहो!! बड़े रसिक लगते हो बाबू.. अंदर आकर पसंद कर लो
नही कोई भी..
अच्छा .. तो ये बात ..
कितने रुपये होंगे?
एक घंटे के दो हज़ार रुपये..
और पाँच घंटे के?
अब उस आदमी ने घूर कर देखा. और शरारती अंदाज़ में बोला.. क्यो बाबू कोई दवाई लेते हो क्या..
देखिए आप अपने काम से मतलब रखिए..
हा हा जी हमे क्या मतलब.. आप आइए अंदर..
नही मैं उन्हे साथ ले जाऊँगा अपने..
साथ में? क्यो जी कोई होटेल में...
देखिए आप ज़रूरत से ज़्यादा बोल रहे है..
अरे जनाब आप तो बुरा मान गये.. मैं अभी भेजता हू..
ये है बिंदिया.. इसे ले जाइए..
ऐ बिंदिया! साहब को खुश करना अच्छे से..
बिंदिया अधखुली आँखो से साहब को देख रही थी.. शायद अभी नींद पूरी नही हुई थी..
कोई और.. ?
क्यो साहब ये पसंद नही आई क्या?
नही ऐसी बात नही.. इसे तो ले ही जाऊँगा और भी कोई है क्या?
ऐ बाबू करना क्या चाहते हो? कोई गंदी फिल्म तो नही बना रहे हो..
अरे नही आप ग़लत समझ रहे है.. आप बताइए ना कोई है क्या? मैं एक घंटे के चार हज़ार दे दूँगा..
अरे साहब कैसी बात कर रहे है हुकुम कीजिए आप तो बस.. जितनी मर्ज़ी ले जाइए..
और हो सकती है..?
हा हा क्यो नही.. अरे सुन बिंदिया जा और बुला ला और पाँच को..
आइए साहब बैठिए.. कुछ लेंगे चाय वाय..
नही.. उसकी कोई जरूरत नही..
सारी लड़किया सहमी हुई खड़ी थी.. वो आदमी चिल्लाया.. जाओ रे साहब के साथ..
साहब ने नोटो का एक बंडल उसकी और बढ़ा दिया..
पैसे लेते हुए वो फिर एक बार बोला साहब जल्दी छोड़ जाना.. अपनी बच्चिया है..
साहब अपनी गाड़ी में सबको बिठा के चल दिए.. शहर की एक संभ्रांत कॉलोनी में.. इन लड़कियो ने ऐसे घर सिर्फ़ फ़िल्मो में देखे थे.. साहब ने एक बड़ी कोठी के आगे गाड़ी रोकी.. और सबको अंदर आने को कहा..
लड़किया विस्मय नज़रो से एक दूसरे को देख रही थी.. एक अजीब सा डर लग रहा था उन्हे.. साहब अंदर गये और अपनी धर्म पत्नी से बोले.. कही कोई लड़की नही मिली.. फिर इन लड़कियो को लाया हू.. पैसे देकर.. छ्: ही मिली है.. बाकी तीन का इंतेज़ाम तुम खुद कर लो.. और जितनी जल्दी हो सके अष्टमी का पूजन ख़त्म कर देना.. एक घंटे के हिसाब से आई हुई है..
इतना बोलकर साहब ऊपर वाले कमरे में चले गये.. साहब का बेटा खड़ा खड़ा देख रहा था.. साहब की पत्नी के लिए ये मुसीबत थी की बाकी तीन लड़किया कहाँ से लाए.. उन्हे तो ये भी नही पता था की पड़ोस में किसी के यहा कोई लड़का है या लड़की..
"ये पन्ना है एक डायरी का 16 सितंबर 2080 के दिन लिखा गया है.. लड़कियो को ऐसे लाना पड़ रहा है.. शुक्र है अष्टमी का पूजन अभी बंद नही हुआ है.. पता नही लोग अब भी धार्मिक है या फिर डर की वजह से पूजा पाठ कर रहे है.."
ठक ठक ठक!
शहर की बदनाम गलियो में सुबह के आठ बजे कोई दरवाजा खटखटा रहा है.. अंदर से किसी आदमी की आवाज़ आई..
कौन है सुबह सुबह?
जी वो..
क्या है भई?
जी वो यहा पर..
क्या यहा पर?
यहा पर लड़किया....
अरे बाबूजी सुबह सुबह मस्ती सूझ रही है..
नही दरअसल..
हा जी सब पता है हमको.. बोलिए
आपके यहा पर लड़किया..
अरे लड़कियो के आगे भी कुछ बोलॉगे.. ??
लड़किया मिल जाएगी..?
हा हा क्यो नही आप हुकुम कीजिये पुरानी शराब की तरह है हमारे यहाँ का माल..
नही मुझे जवान लड़किया चाहिए
क्या मतलब?
यही कोई पंद्रह सौलह साल की..
ओहो!! बड़े रसिक लगते हो बाबू.. अंदर आकर पसंद कर लो
नही कोई भी..
अच्छा .. तो ये बात ..
कितने रुपये होंगे?
एक घंटे के दो हज़ार रुपये..
और पाँच घंटे के?
अब उस आदमी ने घूर कर देखा. और शरारती अंदाज़ में बोला.. क्यो बाबू कोई दवाई लेते हो क्या..
देखिए आप अपने काम से मतलब रखिए..
हा हा जी हमे क्या मतलब.. आप आइए अंदर..
नही मैं उन्हे साथ ले जाऊँगा अपने..
साथ में? क्यो जी कोई होटेल में...
देखिए आप ज़रूरत से ज़्यादा बोल रहे है..
अरे जनाब आप तो बुरा मान गये.. मैं अभी भेजता हू..
ये है बिंदिया.. इसे ले जाइए..
ऐ बिंदिया! साहब को खुश करना अच्छे से..
बिंदिया अधखुली आँखो से साहब को देख रही थी.. शायद अभी नींद पूरी नही हुई थी..
कोई और.. ?
क्यो साहब ये पसंद नही आई क्या?
नही ऐसी बात नही.. इसे तो ले ही जाऊँगा और भी कोई है क्या?
ऐ बाबू करना क्या चाहते हो? कोई गंदी फिल्म तो नही बना रहे हो..
अरे नही आप ग़लत समझ रहे है.. आप बताइए ना कोई है क्या? मैं एक घंटे के चार हज़ार दे दूँगा..
अरे साहब कैसी बात कर रहे है हुकुम कीजिए आप तो बस.. जितनी मर्ज़ी ले जाइए..
और हो सकती है..?
हा हा क्यो नही.. अरे सुन बिंदिया जा और बुला ला और पाँच को..
आइए साहब बैठिए.. कुछ लेंगे चाय वाय..
नही.. उसकी कोई जरूरत नही..
सारी लड़किया सहमी हुई खड़ी थी.. वो आदमी चिल्लाया.. जाओ रे साहब के साथ..
साहब ने नोटो का एक बंडल उसकी और बढ़ा दिया..
पैसे लेते हुए वो फिर एक बार बोला साहब जल्दी छोड़ जाना.. अपनी बच्चिया है..
साहब अपनी गाड़ी में सबको बिठा के चल दिए.. शहर की एक संभ्रांत कॉलोनी में.. इन लड़कियो ने ऐसे घर सिर्फ़ फ़िल्मो में देखे थे.. साहब ने एक बड़ी कोठी के आगे गाड़ी रोकी.. और सबको अंदर आने को कहा..
लड़किया विस्मय नज़रो से एक दूसरे को देख रही थी.. एक अजीब सा डर लग रहा था उन्हे.. साहब अंदर गये और अपनी धर्म पत्नी से बोले.. कही कोई लड़की नही मिली.. फिर इन लड़कियो को लाया हू.. पैसे देकर.. छ्: ही मिली है.. बाकी तीन का इंतेज़ाम तुम खुद कर लो.. और जितनी जल्दी हो सके अष्टमी का पूजन ख़त्म कर देना.. एक घंटे के हिसाब से आई हुई है..
इतना बोलकर साहब ऊपर वाले कमरे में चले गये.. साहब का बेटा खड़ा खड़ा देख रहा था.. साहब की पत्नी के लिए ये मुसीबत थी की बाकी तीन लड़किया कहाँ से लाए.. उन्हे तो ये भी नही पता था की पड़ोस में किसी के यहा कोई लड़का है या लड़की..
"ये पन्ना है एक डायरी का 16 सितंबर 2080 के दिन लिखा गया है.. लड़कियो को ऐसे लाना पड़ रहा है.. शुक्र है अष्टमी का पूजन अभी बंद नही हुआ है.. पता नही लोग अब भी धार्मिक है या फिर डर की वजह से पूजा पाठ कर रहे है.."
Thursday, October 2, 2008
दो क्षणिकाए - गाँधी और ईद...
तमाम गवाहो ओर
सबूतो के
मद्देनज़र और लगे रहो
मुन्नाभाई की लोकप्रियता
को देखते हुए..
समाज के हर वर्ग में
गाँधिगिरी के सफलता
पूर्वक प्रचलन
होने से ये अदालत
इस नतीज़े पर
पहुँचती है.. की गाँधी नामक
विचार अभी मरा नही है..
केवल देह मात्र
को ख़त्म करने से..
विचार ख़त्म नही
होता.. गाँधी एक विचार है..
जो अभी भी
ज़िंदा है... इसलिए ये अदालत..
मुज़रिम
नाथुराम गोडसे को बा-इज़्ज़त बरी करती है ...
-----------------------
कितनी रातो को बाँध के रखा
हिज्र की गाँठे खुल रही है..
वो शोख मखमली.. परी के जैसी
अपनी छत पर उतर रही है..
आशिक़ का ईमान ना कोई..
उसका क्या मज़हब होता है..
मुझको अपना चाँद मिला है..
तुमको अपनी ईद मुबारक..
---
Wednesday, October 1, 2008
नुक्कड़ पे उस्ताद, जमूरा, बिल्ली और चूहा..
ज़मूरे!
उस्ताद!
चूहे बिल्ली का खेल दिखाएगा?
दिखाएगा
सीधी सच्ची बात बताएगा
बताएगा!
एक तरफ होकर बोला तो ?
उस्ताद कान के नीचे लगाएगा!
शाबाश जमूरे. तो फिर शुरू हो जा.. पब्लिक आ गयी है.. अंकल, आंटी, बेबी, बाबा, हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई सबको दुआ सलाम कर..
हिंदू को नमस्ते.. मुसलमान को सलाम.. ईसाई को वेलकम.. और सिख को सत श्री अकाल...
तो ज़मूरे
उस्ताद!
एक थी बिल्ली
बिल्ली!
वो रोज़ घर में आती
आती!
दूध मलाई खाती
खाती!
पर बोलती पेट नही भरा
नही भरा!
बहुत दुखी होती.
होती रे!
बोलती की रोटी पतली है
पतली!
रोटी मोटी कर दी तो बोला गरम नही है..
गरम!
गरम की तो बोली घी नही
घी नही!
घी लगाया तो बोली देशी घी नही..
देशी घी नही!
देशी घी लगाया तो बोली कच्ची है..
उस्ताद एक बात पूछु?
पूछ ज़मूरे..
इसकी प्रॉब्लम क्या थी उस्ताद?
क्या बताऊ ज़मूरे? ये तो वोही जाने अब आगे सुन..
उस्ताद!
बिल्ली ने एक दिन घर में देखा..
देखा!
सब शांति से बैठे..
बैठे
आई एक काली बिल्ली..
बिल्ली!
चूहे को पकड़ा
पकड़ा!
और भाग गयी..
ईईईईईईईईईईई फिर क्या हुआ उस्ताद?
सबने बोला की बिल्ली चूहा खा गयी..
ज़मूरे!
उस्ताद!
सबने झूठ बोला क्या?
नही उस्ताद, सच बोला
पब्लिक से पूछो झूठ बोला क्या?
नही.... (पब्लिक)
ज़मूरे!
उस्ताद!
दूसरे दिन एक सफेद बिल्ली आई
आई!
बोली चूहा मैने नही खाया.. चूहा मैने नही खाया... घर घर में जाकर बोली चूहा मैने नही खाया..
ज़मूरे
उस्ताद!
क्या बिल्ली ने झूठ बोला..
नही उस्ताद चूहा तो काली बिल्ली ने खाया सफेद ने नही.. बिल्ली सच बोली..
पब्लिक से पूछो
नही बोला...(पब्लिक)
सफेद बिल्ली परेशान हो गयी..
क्यो उस्ताद?
वो कहती की बिल्लियो को बदनाम किया जा रहा है.. ये सब दुश्मन की चाल है.. चूहा उठाए कोई और बदनाम कोई और हो..
क्या ये बिल्ली ग़लत थी ज़मूरे?
नही उस्ताद इसका कहना ठीक था.. उसने थोड़ी चूहा खाया.. चूहा तो काली बिल्ली ने खाया था
ठीक कहा ज़मूरे.. पर किसी ने कहा की सफेद बिल्ली ने चूहा खाया?
नही उस्ताद उनको थोड़े ही पता था की बिल्ली सफेद थी या काली.. बिल्ली तो छुप छुप के आती थी..
तो फिर जब चूहा नही मिला तो सबने क्या कहा ज़मूरे
उस्ताद यही कहा की बिल्ली ने चूहा खाया..
तो क्या ग़लत कहा?
नही उस्ताद.. चूहा तो बिल्ली ने ही खाया था..
पब्लिक से पूछो
नही कहा ग़लत..(पब्लिक)
फिर जब चूहो के दल को बिल्ली को ढूँढना होगा तो क्या चूहो के मोहल्ले में ढूंढ़ेंगे?
नही उस्ताद.. ढूंढ़ेंगे तो बिल्ली के मोहल्ले में ही..
तो फिर सफेद बिल्ली बोली की यहा क्यो ढूंड रहे हो? हमने थोड़े ही मारा चूहे को.. क्या उसने ग़लत कहा?
नही उस्ताद! उसने तो ठीक कहा
तो फिर क्या करे वापस लौट जाए?
पर उस्ताद फिर काली बिल्ली को कहा ढूंढ़ेंगे?
तो क्या करे ढूंडे उसको?
ढूंदना ही पड़ेगा उस्ताद
ढूँढा तो फिर सारी बिल्लिया आ गयी बोली तुमने हम बिल्लियो को क्या समझ रखा है हमे क्या पड़ी है चूहो को खाने की हम तो दूध मलाई खाती है.. मक्खन खाती है.. हम चूहे नही खाती. हमे बदनाम कर रहे हो तुम?
बोल ज़मूरे क्या उन बिल्लियो ने सही कहा?
हा उस्ताद सही ही कहा होगा.. वो नही खाती होगी चूहे.
पर कोई बिल्ली तो खाती है ना ज़मूरे?
हा उस्ताद ये तो ठीक है!.. कोई तो खाती है..
तो फिर वो कैसे मिलेगी ज़मूरे?
उस्ताद वैसे तो मैं छोटा सा आदमी हू.. ज़्यादा समझता नही हू.. पर अगर सारी बिल्लिया जो चूहे नही खाती वो मदद करे काली बिल्लियो को ढूँदने दे.. तो काम हो सकता है..
ज़मूरे है तो तू छोटा सा पर बातें बड़ी करता है..
लेकिन अगर इन सबके बीच कोई निर्दोष बिल्ली फँस गयी तो ?
तो फिर ग़लती किसकी? उस्ताद
ग़लती किसी की नही ज़मूरे! ग़लती बोले तो परिस्थिति की.. काली बिल्ली ग़लत थी उसने पूरी बिल्लियो की जाति को बदनाम किया.. पर सफेद बिल्ली को समझना चाहिए था की एक बूढ़ी चुहिया का सगा बेटा मरा है.. चूहे की पिता जी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी..
ऐसे कितने ही मासूम चूहो को काली बिल्ली ने खाया है.. अगर सफेद बिल्ली निर्दोष है उसको सज़ा नही मिलनी चाहिए तो उन चूहो का क्या जिनको काली बिल्ली ने खाया..
हा उस्ताद बात तो ठीक है..
चूहे के बच्चे शाम को इंतेज़ार में थे पापा ने शाम को सबको घुमाने का प्रोग्राम बनाया था.. इस दीवाली पे चूहे की पत्नी को नयी साड़ी दिलाने का वादा किया था.. क्या उसकी पत्नी कभी वो साड़ी पहन पाएगी..
क्या कहु उस्ताद?
कुछ चूहे स्कूल से लौट रहे थे..तीन दिन की छुट्टिया मिली थी स्कूल से खुशी खुशी घर जा रहे थे.. नही पहुँचे.. क्या उनका कोई गुनाह था जमूरे?
क्या कहु उस्ताद?
चूहो की ज़िंदगी तो चूहो से भी बदतर हो गयी है.. कोई जब डरपोक होता है तो उसे कहते है चूहे जैसा है..
चूहे डरपोक होते है?
होते नही है जमूरे बन जाते है.. काली बिल्ली के उठाकर ले जाने से डरपोक हो गये है
क्या कहु उस्ताद?
क्या बिल्ली का फ़र्ज़ नही बनता की जब उसे पता चले की बिल्ली ने चूहा उठाया है तो सारी बिलियो को बुलाए पता लगाए आख़िर कौन है गद्दार बिल्ली जिसकी वजह से सारी बिल्ली जाति बदनाम हो रही है.. एक बिल्ली जिसे बच्चे प्यार से मौसी मौसी कहते है.. जो कही भी किसी भी घर में बेखौफ़ घूम सकती है.. सब बच्चे जिस से इतना प्यार करते है..
हो सकता है कुछ कुत्ते, बिल्ली को खाने की फिराक में भी रहते हो.. पर इस से ये तो नही साबित हो जाता की बिल्ली असुरक्षित है.. प्यार तो उस से भी लोग करते ही है.. इतनी प्यारी बिली प्रजाति पर यदि कोई आँच आए तो उनका फ़र्ज़ नही बनता की गद्दार बिल्ली को पकड़ कर सज़ा दे..
बनता है उस्ताद! अगर बिल्ली ऐसा करेगी तो चूहे भी खुश होंगे..
पर ये बात बिल्ली को समझाएगा कौन? तुम समझाओगे क्या जमूरे?
नही उस्ताद! मैं कौन होता हू किसी को समझाने वाला.. कोई किसी को समझाने वाला नही होता.. सबको अपने विवेक से सोचना पड़ता है.. क्या करना है और क्या नही.. चूहे अगर हमेशा चूहे ही बने रहे तो एक दिन धरती पर नज़र भी नही आएँगे..
बिल्लिया अपनी प्रतिष्ठा को लेकर बैठी रहेगी तो उनके बीच में कितनी ही काली बिल्लिया पनपती रहेगी और चूहो को मारती रहेगी.. जिस से सफेद बिल्लियो की जाति भी बदनाम होगी और वो फिर इल्ज़ाम लगाएगी की काली बिल्ली को नही पकड़ सकते तो सफेद बिल्लियो को क्यो पकड़ते हो..
तो क्या उस्ताद काली को पकड़ने भी नही देगी और सफेद को पकड़ने के खिलाफ भी बोलेगी? इसका मतलब कभी काली बिल्ली नही पकड़ी जाएगी? चूहे ऐसे ही चूहो की मौत मरते रहेंगे? हर काम पुलिस या प्रशासन पे छोड़ देंगे? क्या हमारा कोई फ़र्ज़ नही बनता?
पता नही जमूरे.. ये सब तुम पब्लिक से पूछो... पब्लिक को सब पता है पर चुप चाप बैठी रहती है..
.....................
उस्ताद!
क्या हुआ ज़मूरे?
पब्लिक चुप है उस्ताद.. कुछ नही बोलती..
तो चल फिर ज़मूरे.. समेट अपना ताम झाम.. जब तक पब्लिक ही कुछ नही बोलेगी तो मैं और तू गला फाड़ कर क्या कर लेंगे..
लेकिन उस्ताद?
लेकिन वेकीन छोड़ और कही और चल.. शायद वहा की पब्लिक थोड़ी समझदार हो..
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