उसका ये कहना कि गुलज़ार ने जो लिखा है उसके बाद प्यार का डेफिनेशन ही ख़त्म हो जाता है.. मुझे ठीक तभी याद आता है खामोशी का वो गीत..
हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू..
वो कहती है.. तुम खुद ही देखो ना.. क्या खूब कहा है.. सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो.. प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो.. सच है इस के बाद प्यार को कोई और क्या कहेगा.. इश्क में डूबा हुआ इंसान माशूक से ज्यादा गानों से प्यार करता है.. गोया संगीत के बिना मोहब्बत अधूरी है..
वो कहती है और नहीं तो क्या वैसे भी आधे शायर आशिक ही होते है..
और बाकी के? ये मैं पूछता हूँ..
माशूक...! !
वो हँसते हुए उठती है और अपनी लम्बी सी चोटी को इस काँधे से उठाकर उस काँधे पर रखती है. मेरी आँखे उसके बालो में बंधे गुलाबी रिबिन पर रुक जाती है.. ऐसे ही गुलाबी गाल हो जाते है उसके.. जब वो बहुत रोती है या फिर खिलखिलाके हँस देती है.. अब चलते हुए वो खिड़की के पास पहुँच जाती है.. और आसमान की तरफ देखती है.. मैं अपने चश्मे को टेबल पर रखके उसकी तरफ बढ़ता हूँ.... उसके चेहरे पर उगते चाँद और ढलते सूरज की रौशनी एक एबस्ट्रेक्ट सी पेंटिंग बनाती है.. मैं उसके करीब जाकर खड़ा हो जाता हूँ.. वो अभी भी चाँद को देख रही है.. मैं उसकी आँखे अपने हाथो से बंद करते हुए कहता हूँ.. तुम जो कह दो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं..
रात को रोंक लो... वो बंद आँखे किये कहती है..
मैं हाथ उसकी आँखों से हटाकर उसे शहर की रौशनी दिखाता हूँ.. वो देख रही हो.. हरे गुम्बद वाली मस्जिद.. वहां से आती अजानो में मुझे तुम्हारी हंसी घुली हुई सी लगती है..
हटो.. बहुत बड़े फंडेबाज हो तुम... वो शर्माते हुए कहती है.. कोई भी मौका नहीं छोड़ते..
तुम्हे छोड दे जो उसे आगरे शिफ्ट करवा देना चाहिए..
आगरे का पागलखाना तो खुद रांची शिफ्ट हो गया है..
वही रखना था.. मैं उसकी तरफ देखकर कहता हूँ..
वो मेरी तरफ देखती है.. उसकी निगाहों में सवाल है..
अरे अपने महबूब की याद में आधे लोग ताज महल जाते है
और बाकी के..? वो पूछती है..
पागलखाने... !!
मैं बोलके फिर से कमरे की तरफ चलता हूँ.. वो मेरे पीछे पीछे आती है..
मैं ट्रांजिस्टर उठाकर ट्यून करता हूँ.. ये वही ट्रांजिस्टर है जिस पर पिताजी गाने सुनते थे.. प्यार हुआ.. इकरार हुआ है.. प्यार से फिर क्यू डरता है दिल.. और रसोई में अपने पल्लू को कमर में फंसाए मेरी माँ गाती कि डरता है दिल रस्ता मुश्किल मालूम नहीं है कहाँ मंजिल...
क्या सोचने लगे मिस्टर..? वो मुझे फिर से उसी कमरे में खींच लाती है..
रेडियो में गाना बजने लगा है.. जीने के लिए सोचा ही नहीं दर्द सँभालने होंगे.. मुस्कुराओ तो मुस्कुराने के क़र्ज़ उतारने होंगे.. मुस्कुराओ कभी तो लगता है.. जैसे होंठो पे क़र्ज़ रखा है..
वो भी रेडियो की आवाज़ के साथ गुनगुनाने लगती है.. तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी.. हैरान हूँ मैं.. मैं रेडियो बंद कर देता हूँ.. और उसकी आवाज़ में डूब जाता हूँ..
मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई कैमरा हम दोनों के क्लोज अप शोट ले रहा है.. बहुत धीरे धीरे हमारी तरफ ज़ूम होता हुआ..वो अपने दुपट्टे के छोर को अपनी नर्म उंगलियों से पकड़ लेती है.. वो ऐसा क्यू करती है ये जाने बिना मैं उसकी इस अदा को पसंद करता हूँ..
वो मेरी तरफ देखती है.. उसकी आँखों में आसमान के सितारे उतर आये है.. मैं दिवार पर लगी उस तस्वीर को देखता हूँ.. जिसमे रेल के दरवाजे पर एक लड़की खडी है.. और लड़का हाथ में पीले फूल लिए प्लेटफोर्म पर उसकी तरफ भागता है.. इश्क आसानी से हासिल हो जाये तो इश्क नहीं रहता.. ये सिर्फ मेरे मन का ख्याल है..
वो मेरी नज़र पढ़ लेती है.. और तस्वीर की तरफ बढती है.. उसके पायल की आवाज़ फर्श पर बिखरती जा रही है.. मैं एक एक आवाज़ को उठाकर अपने कानो में पहन रहा हूँ.. वो मुड़कर मुझे देखती है..
क्या देख रहे हो.. ?
क्या देख रहे हो.. ?
देख नहीं रहा हूँ सुन रहा हूँ...
क्या सुन रहे हो?
म्यूजिक...
यहाँ कहाँ म्यूजिक है ?
ये जो खामोशी पसरी हुई है कमरे में..
ख़ामोशी संगीत है?
यस...! ये भी एक म्यूजिक है.. गौर से सुनो इसे..
वो मेरे करीब आकर मेरी कुर्सी के पास बैठ जाती है.. मेरे घुटनों पर अपना सर टिका कर मेरे साथ साथ खामोशी को सुनती है... मेरी उंगलिया खुद ब खुद उसके बालो में उलझ जाती है.. मैं उसके बाल सहला रहा हूँ.. वो मेरे दायें पैर के अंगूठे से खेल रही है...उसकी मासूमियत मैं अपने अंगूठे पर महसूस करता हूँ..
तुम बालो को खुला रखा करो.. खुले बालो में तुम अच्छी लगती हो.. मैं पता नहीं क्यों उसे ऐसा कहता हूँ..
पर तुम कंघी मत किया करो.. बिखरे हुए बाल तुम पर अच्छे लगते है.. मैं तुम्हे हमेशा ऐसे ही देखना चाहती हूँ.. वो मेरे बाल बिखेर देती है.. मेरी नज़र उसकी कान की बालियों पर है..
ये वही है ना जो मैंने तुम्हे तुम्हारे इक्किस्वे जन्मदिन पर दी थी.. मैं छूकर देखता हूँ..
आउच. .अरे धीरे.. उसके कानो में दर्द होता है..
क्या कर रहे हो? वो पूछती है..
इस शाम को कैद करने की कोशिश... मैं अलमारी से कैमरा निकालता हूँ और मैक्रो मोड़ में उसके कानो की बालियों की फोटो लेता हूँ.. उसकी गर्दन पर हल्के हल्के बालो के बीच झूलती बालिया.. मैं इनमे अक्स देखता हूँ.. अपनी ज़िन्दगी का.. इस छोटे से लैंस में मुकम्मल नज़र आती है मुझे..
तुम बालो को खुला रखा करो.. खुले बालो में तुम अच्छी लगती हो.. मैं पता नहीं क्यों उसे ऐसा कहता हूँ..
पर तुम कंघी मत किया करो.. बिखरे हुए बाल तुम पर अच्छे लगते है.. मैं तुम्हे हमेशा ऐसे ही देखना चाहती हूँ.. वो मेरे बाल बिखेर देती है.. मेरी नज़र उसकी कान की बालियों पर है..
ये वही है ना जो मैंने तुम्हे तुम्हारे इक्किस्वे जन्मदिन पर दी थी.. मैं छूकर देखता हूँ..
आउच. .अरे धीरे.. उसके कानो में दर्द होता है..
क्या कर रहे हो? वो पूछती है..
इस शाम को कैद करने की कोशिश... मैं अलमारी से कैमरा निकालता हूँ और मैक्रो मोड़ में उसके कानो की बालियों की फोटो लेता हूँ.. उसकी गर्दन पर हल्के हल्के बालो के बीच झूलती बालिया.. मैं इनमे अक्स देखता हूँ.. अपनी ज़िन्दगी का.. इस छोटे से लैंस में मुकम्मल नज़र आती है मुझे..
वो करीब आकर कैमरे के लैंस पर हाथ रख देती है.. मैं उसके माथे पर चूमता हूँ.. वो खुद ही खुद में सिमट जाती है.. मैं एक खामोश अंगड़ाई लेते हुए उठकर कॉफ़ी का प्याला उठाता हूँ.. उसकी नज़रे मेरी तरफ है.. मैं मुमताज़ मिर्ज़ा की ग़ज़ल का शेर पढता हूँ..
वो एहतराम ए गम था कि लब तक ना हिल सके..
नज़रे उठी तो सर ए हद ए गुफ्तार तक गयी..
ठीक उसी वक़्त सड़क पर लगे लैम्प पोस्ट की रौशनी खिड़की से अन्दर आती है.. और वो कहती है
तन्हाईयो ने फासले सारे मिटा दिए..
परछाईयां मेरी.. तेरी दिवार तक गयी..
मेरी नज़र खिड़की की रौशनी से फर्श पर बनी उसकी परछाई पर जाती है.. वो ठीक मुझ तक पहुंची है.. मैं एक बार फिर उस पर मर मिटा हूँ.. वो मुस्कुराये जा रही है.. मैं दौड़कर उसे गोद में उठा लेता हूँ.. और पूछता हूँ..
विल यू बी माय वेलेंटाईन ??
वो कहती है ये तो मैं पहले से ही हूँ.. कुछ और बोलो..
मैं उसे उठाकर फ्रिज पर बिठा देता हूँ..
आलवेज बी माय वेलेंटाईन.. मैं उसके मुलायम हाथो को अपने हाथ में लेकर कहता हूँ..
अब उसकी आँख में आंसु आ गए है.. और गाल गुलाबी हो गए है.. उसके गालो का गुलाबी रंग पुरे कमरे में बिखर गया है.. खामोशी अभी भी ठहरी हुई है कमरे में.. एक संगीत की तरह हमारी आवाज़े मिल रही है फजाओ से.. हवा ने खिड़की पर पर्दा उड़ा दिया है.. मैं उस से कहता हूँ.. कभी गुलज़ार साहब मिले तो उनसे कहूँगा कि हमने भी देखी है उन आँखों की महकती खुशबू..
वो अपने ऊँगली मेरे होंठो पर रखती है.. और मेरे कान में हौले से आकर कहती है.. प्यार को प्यार ही रहने दो.. कोई नाम ना दो...
वो अपने ऊँगली मेरे होंठो पर रखती है.. और मेरे कान में हौले से आकर कहती है.. प्यार को प्यार ही रहने दो.. कोई नाम ना दो...