इक रोज़ किसी ने दरवाज़ा खटखटाया था देखा जो झाँक कर एक लिफाफ़ा मिला खोला तो इक रात पड़ी थी काग़ज़ में लिपटे हुए मैने उठाकर सेंकली, जलती हुई लकड़ियो पर पहले से और काली, वो रात हो गयी थी .... उस रात जब संग मेरे तुम चले थे पल दो पल वो राहें आकर के मेरे पैरो से लिपट गयी पूछने लगी तुम्हारे साथ वाले क़दमो के निशान कहा है मैं क्या जवाब दु कहा से लाऊ वो निशान जिसके रंग धूसर हो चले अब मैं अकेला मुडके देखता हू सब कुछ ढुंधला आँखें भीग आई आँसू गिरने लगे.. मेरे हाथो में पड़ी रात पर .. धीरे धीरे रात की सारी परते खुलती रही आँसुओ से मेरे, काग़ज़ पर पड़ी रात धुलती रही.. एक सफ़र का अंत था या नयी शुरुआत कोई.. या फिर जलने को आतुर फिर से अबकी रात कोई मैं अब भी तन्हा हू, कुछ सूझता नही, सूखी लकड़िया कहा से लाऊ मन में डर सा लग रहा है कल शाम फिर किसी ने दरवाज़ा खटखटाया था... ------------------------------------ |
कुछ बातें दिल की दिल मैं ही रह जाती है ! कुछ दिल से बाहर निकलती है कविता बनकर..... ये शब्द जो गिरते है कलम से.. समा जाते है काग़ज़ की आत्मा में...... ....रहते है........... हमेशा वही बनकर के किसी की चाहत, और उन शब्दो के बीच मिलता है एक सूखा गुलाब....
Friday, May 25, 2007
"एक और ख़्याल...."
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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..