Wednesday, May 23, 2007

"कल शाम उपर वाले कमरे में"

कल शाम उपर वाले कमरे में
जहा से डाल सटी है गुल्मोहर की...

मैं बैठा वही अपनी डायरी में
कुछ लिख रहा था..
सूरज दूर तो था लेकिन अस्त होता
मुझे क़रीब सा दिख रहा था..

मैने सोचा कुछ लिखू आज
तुम्हारे लिए
इतने में ... सब कहने लगे
आख़िर ये सब लिखते हो किसके लिए

जिसका नाम भी हमे पता नही
काम से काम इतना तो बता दो...
की इतना सुंदर, इतना प्यारा
किसके लिए लिखते हो...

कभी कहा फ़ूलो से दोस्ती
कभी तितलियो का नाम लिया
कभी कह दिया सुबह की नादानी है
कभी मस्ती भरी शाम कह दिया...

मेरी कलम नाराज़ हो गयी
द्वात ने भी ना मानी
उड़ते कग़ज़ॉ को कैसे संभाला
रूठ गयी मेरी चश्मेदानी...

आज रूठ गये थे सब, मान ने को
भी ना थे तैयार, इतना ही नही
आराम कुर्सी के साथ कोने में
जा बैठा मेरा गीटार...

सब के सब ज़िद पर अड़ गये थे
नाम बताओ वो कौन है
ऐसा क्या है नाम में उसके
जो आप हम सबसे भी मौन है

इतने में खिड़की ने दी ज़ोर से आवाज़
बड़े ज़ोर से हवा का झोंका आया था..
पलट दिए डायरी के पन्ने सारे
होकर के मुझसे नाराज़..

अब तो डायरी के पन्नो से गज़ल, नज़्म
सब बाहर आने लगी ......
कौन है वो, कौन है वो
पूछ पूछ कर मुझे सताने लगी

दरवाज़े, रोशन दान
और अलमारियो की दराज़...
सब की सब हो चली
थी मुझसे नाराज़...

सब चिल्लाए थे मुझ पर
फिर भी रखा लबो को थाम
कभी कुछ कहा कभी कुछ कहा
पर लिया नही तेरा नाम...

पर कितना भी कह लू इनसे
ये सब समझते है ...

कल शाम उपर वाले कमरे में
जहा से डाल सटी है गुल्मोहर की
तुमको चुपके से....
आते हुए इन सबने देखा था...

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1 comment:

  1. यह बहुत सुन्दर रचना है लेकिन मुझे लगता है कि आपमे मुक्त छन्द लिखने की ज़्यादा सम्भावनायें है ,छ्न्द और तुक में बन्धकर आप अपने आप को एहतर अभिव्यक्त नही कर पा रहे है । गौर कीजियेगा मेरी बात पर >>।

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..