Wednesday, October 10, 2007

"सामने वाला घर आज भी याद है"

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नया नया कमरा लिया था
सामने वाला घर आज भी याद है
जहा वो रहती थी..
नर्म मुलायम पँखो वाली
परी मैं जिसको कहता था..

खिड़की में आती थी और
सुखाती थी अपने बालो को
मैं उसके बालो से गिरती बूंदो की ठंडक
अपने गालो पर पाता था..

ना चाहते हुए भी
नज़र उस ओर मूड जाती थी
किताब हाथ में लिए
चश्मा नाक पर रहता था

ना नज़रे मिलाकर भी
वो नज़रना दे देती थी
मैं मस्त पवन सा
फ़िज़ाओ में मंडराता था

शाम सुहानी आते ही
वो आ जाती थी खिड़की में
मैं ख़्यालो में ही उसके माथे पर
आती ल्टो को हटाता था..

पोस्टमैन आता चिट्ठी देने
और वो लेने आती थी
बस इक नज़र का मिलना होता
दो सदी की प्यास बूझ जाती थी

वो छत पर आती थी
कपड़े सूखाने
मैं दिल के तरकश से
नज़रो के बान चलाता था

वो शरमाती थी बेलो सी
और जवाब मुझे मिल जाता था
मैं ख़ुद को बस इक ही पल में
बदलो से आगे पाता था

अब भी तो सब कुछ वैसा है
तुम अब भी उतनी ही प्यारी हो
मैं प्राण नाथ तुम्हारा हू
तुम प्रानो से मुझको प्यारी हो

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..