Saturday, December 1, 2007

"...कुछ क्षनिकाए...."


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दूर अंतरिक्ष से
गिरा था एक उल्का पींड
सीधा टकराया मेरी
कल्पनाओ से..

तुम्हारे टुकड़े टुकड़े
कैसे संभाल कर
जोड़े थे मैने...

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फिर रात को संभाला था तुमने..
कैसे आसमा से
ज़मी पर आ गयी थी
साथी की तलाश में..

तुम्हे देख लिया था शायद
आज अमवास जो है..

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उम्मीद बूझने वाली है
मगर जाने कॉनसा
तेल डाल रखा है..
लौ बूझने का नाम नही लेती
हर थोड़ी देर बाद
और भड़क जाती है..
शायद जवान बेटे का इंतेज़ार करती
मा की आँखें होगी....

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मशाले शायद रास्ता
भटक गयी..
या फिर तू कही मुस्कुराई है


आज फिर अंधेरी गलियो
से रोशनी नज़र आई है...

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..