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Saturday, September 13, 2008

ब्लॉग का नया रूप... साथ में कुछ क्षणिकाए..


पिछले कुछ दिनो से बस यूही मशरूफ था ज़िंदगी के साथ.. अब आया हू तो सोचा की नये रूप में मिला जाए.... बस इसी लिए ब्लॉग को एक नया रूप दिया है.. बताएगा कैसा लगा आपको... तक तक पढ़िए कुछ दिल से लिखी क्षणिकाए..





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दूर अंतरिक्ष से
गिरा एक उल्कापिंड
सीधा टकराया मेरी
कल्पनाओ से..

तुम्हारे टुकड़े टुकड़े
कैसे संभाल कर
जोड़े थे मैने...

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रात गिर गयी
तूफ़ान तेज़ आया था
या फिर दरारो से
महक तेरी गयी ,
कल रात मैने
चाँद को हिलते देखा था

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शाम से थोड़ा परेशान हू
तुम आयी नही ऑफीस से अब तक,
सोचता हू एक फोन कर लू तुम्हे
फिर याद करके कुछ..
आँखो मैं नमी आ जाती है
तुम अब ऑफीस से घर जो नही आती हो...

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याद है
तुम्हारी बनाई सब्ज़ी
में, कितने नुक्स
निकालता था..
करेला नही खाने के
कितने बहाने थे,
तुम अब मुझे खिलाती
नही हो, पर
अब मुझे करेला अच्छा
लगता है..

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आज क्या क्या हुआ,
हर बात ऑफीस की
घर आकर बताते थे हमे

इक रोज़ ना जाने कहा
बिन बताए चले गये..

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Wednesday, June 25, 2008

कुछ क्षणिकाए - कुश

कुछ क्षणिकाए -


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तुमने आकर कहा था
ये मुलाकात अब आख़िरी है
मैं तो था जैसे
वैसे ही खड़ा रहा... मगर
रात के माथे पर शिकन
देखी मैने..

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पंजो के बल खड़े होकर
तुम चूम लेती हो मुझे..
रिश्तो की लंबाई
कद से नापी
तो नही जाती..

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तेरे साथ बिताए पल
आ जाते है अक्सर ख्यालो में..
बड़ी बेरहमी से पकड़
के गिरेबान मेरा.. कई सवाल
पूछते है......
लबो पे मेरे
सिलवटे तो आती है मगर कोई
जवाब नही आता..

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घंटो तक चाँद को
निहारते हुए छत पे..
तुम ओर मैं बैठे रहते थे
बड़ी देर तक खामोशिया
बातें करती थी..
अब जो खामोशी है
वो बाते नही करती. ..
मेरी तरह चाँद भी रोज़ आकर
खाली हाथ लौट जाता है
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Friday, April 11, 2008

दो क्षणिकाए...

( )
मैं
कमरे से
निकालकर भागा
सोचा पकड़ ही
लूँगा इस बार
मगर अबकी बार
भी नही मिली..
मैं हारकर लौट
रहा हू घर को
और सोच रहा हू
की ये महक तुम्हारी
भला आती
कहा से है......






















(
)
मैने
काग़ज़
पर तस्वीर घटाओ
की इक बनाई थी..
अचानक बारिश ने
आकर तस्वीर बिगाड़ दी
तुम इतनी ज़ोर से हसी थी
की तुम्हारी हसी
घुल गयी फ़िज़ा- में...
अब जो बूंदे बरस
रही है उनका नशा
कुछ ऐसा है की..
मुझे अब तस्वीर ना बन
पाने का गम भी नही है..

Saturday, December 1, 2007

"...कुछ क्षनिकाए...."


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दूर अंतरिक्ष से
गिरा था एक उल्का पींड
सीधा टकराया मेरी
कल्पनाओ से..

तुम्हारे टुकड़े टुकड़े
कैसे संभाल कर
जोड़े थे मैने...

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फिर रात को संभाला था तुमने..
कैसे आसमा से
ज़मी पर आ गयी थी
साथी की तलाश में..

तुम्हे देख लिया था शायद
आज अमवास जो है..

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उम्मीद बूझने वाली है
मगर जाने कॉनसा
तेल डाल रखा है..
लौ बूझने का नाम नही लेती
हर थोड़ी देर बाद
और भड़क जाती है..
शायद जवान बेटे का इंतेज़ार करती
मा की आँखें होगी....

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मशाले शायद रास्ता
भटक गयी..
या फिर तू कही मुस्कुराई है


आज फिर अंधेरी गलियो
से रोशनी नज़र आई है...

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Tuesday, July 31, 2007

"कुछ दिल से लिखी क्षनिकाए.."

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पाँच साल
नही टी-क-ती सरकार
तुम कैसे टिक गये
ज़िंदगी में मेरी,
उसने कहा इस बार
फ़रवरी में दिन
28 थे....

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एक ग़ज़ल आकर
गिरती है आँगन पर,
कुछ शेर ज़मी
पर छोड़ जाती है
मैं अटका रहता हू
कुछ मिश्रो में
तेरे क़दमो के निशान
उसी ज़मी पर पाता हू..

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-कुश