छन्न से तू चली आई मेरे सपनो में
हसी फिर लबो पर खिलखिलाई मेरे सपनो में...
संगिनी बन तू संग.. रहेगी जीवन भर
उम्मीद की इक कली खिल आई मेरे सपनो में...
जो रज़ा थी छुपी तेरे दिल के किसी कोने में
वो निगाओ से छ्लचलाई मेरे सपनो में...
इक तपीश लबो से, तूने रखी थी मेरे लबो पर
जली हो जैसे दिया सलाई मेरे सपनो में...
भीड़ में खो ना जाए बच्चा , मा के हाथो से
थाम ली कुछ ऐसे तूने कलाई मेरे सपनो में ...
एक मुक़कम्मल ज़िंदगी जो पा नही सकता था मैं
कुछ इस तरह से तूने दिलाई मेरे सपनो में..
कुछ बातें दिल की दिल मैं ही रह जाती है ! कुछ दिल से बाहर निकलती है कविता बनकर..... ये शब्द जो गिरते है कलम से.. समा जाते है काग़ज़ की आत्मा में...... ....रहते है........... हमेशा वही बनकर के किसी की चाहत, और उन शब्दो के बीच मिलता है एक सूखा गुलाब....
Monday, December 17, 2007
छन्न से तू चली आई मेरे सपनो में
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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..