Thursday, January 24, 2008

यादो की दराज


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यादो की दराज जो खोली
एक पुराना कॅलंडर मिला
उंगलियो की आहट से
कुछ दिन गिर पड़े..
मैने उठा कर
रख लिए हथेली पर..
और छाँटने लगा

महकते हुए दिनो को
अचानक एक दिन
लिपट गया उंगली से
मैने झटका..
मगर फिर भी अटका
रहा हाथ की
रेखाओ से..
मानो कह रहा हो
साथ ले चलो मुझे की
मैं सबसे खूबसूरत दिन हू
तुम्हारी ज़िंदगी का..

तुम्हे याद नही
तुम बहुत छोटे थे तब
अब शायद ' बड़े' हो
गये हो..
शायद तुम्हे मुझपर
शर्म आ जाए..
अकेले में ही सही पर
जी लो मुझे फिर एक बार
की मैं हू वही दिन
जो तुम्हारा है.. सिर्फ़ तुम्हारा
तुम्हे जानता है....

जानता हू मैं भी की
ये उन्ही दिनो से निकला है
जब मैं जिया करता था.
मगर अब नही..
मैं अब नही कर सकता हिमाकत
एक और बार जीने की..
की अब कोई यहा जीता नही है
सुबह दस से पाँच तक
एक क्रिया होती है..
उसी को ज़िंदगी कहते है..
ये सुनकर सुबक पड़ा वो दिन
और हाथ की रेखाओ
में ही कही मिल गया..
ओझल होकर..
मुझे भी लगा अब नही
है किस्मत में मेरी
महकता हुआ वो दिन..
अचानक मोबाइल की घंटी बजी
मैने यादो की दराज को
बंद करके.. फोन उठाया
और बोला .... यस बॉस ! कितने बजे ...

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1 comment:

  1. achchii kavitaayein... yah bahut achchhii thii...

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..