Thursday, January 24, 2008

ज़मीर

जो भी उसके साथी
थे दफ़्तर में..
सब नही रहे..
बस वो ही बचा था
मेरी छोटी मोटी
लड़ाई तो अक्सर उस से
होती थी..
और वो जीत भी जाता था
मगर बात तब और थी
तब उसके और
भी साथी थे..
दफ़्तर में..
तब वो अकेला नही था
और मैं भी निहत्था
होता था..
मगर आज शाम को
मोती महल बिल्डिंग
की फाइल हाथ में आते ही
दास बाबू ने चपरासी
के हाथो.. हथियार
सरकया था... ना जाने कहा
से हिम्मत गयी मुझमे
आव देखा ना ताव
दो टुकड़े कर डाले...
रोज़ शाम को मंदिर जाता था
पर आज सीधा घर आया हू
मैं आज अपने ही हाथो
अपना ज़मीर मार आया हू

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..