Saturday, June 9, 2007

"झील के किनारे.."

झील के किनारे
तन्हा बैठे हुए

यादो में किसी की
खोया हुआ था..
की अचानक एक गुलाब
गिरा पानी पर

कुछ तरंगे बन गयी
हिलते हुए पानी में..
एक तस्वीर नज़र आई थी
सुर्ख़ गुलाबी तेरी ही थी..

अबकी बार कुर्ता गुलाबी था
बिल्कुल तेरे होटो की तरह..
जिन्हे छूने को
मेरे लब बेकरार रहते थे..

उंगलिया मचलने लगी
पानी में उतरने को..
सोचा एक बार तेरे
गालो को छ्हू लिया जाए..

लेकिन इतनी मासूम सी
तुम लगी थी पानी में...
की आँखो ने कसम देकर
रोक लिया मुझे..

धड़कनो ने दी आवाज़
वो मचलने लगी थी..
इतनी सुंदर कैसे हो तुम
तितलिया भी तुमसे जलने लगी थी

शाम हो चली थी
मगर दीवाना सूरज..
पहाड़ी के पीछे से
अब भी झाँक रहा था..

अंगूर की बेल,
किनारे पर थी.
कैसे लटक कर
पानी पर आ गयी थी..

तुम कितनी ख़ूबसूरत हो
मुझे ये एहसास हुआ था..
अचानक किसी के आने का
आभास हुआ था..

रात बेदर्दी जलने लगी
अंधेरे में तुम नज़र ना आई
जुगनुओ ने मगर
मेरा साथ निभाया था..

सुबह हो चुकी है
पंछी चहकने लगे...
डाली पर फिर एक
गुलाब खिल आया है

हवाओ का मन किया है
तुझे देखने को..
फिर से पानी में एक
गुलाब गिराया है

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..