Friday, November 28, 2014

मछली का नाम मार्गरेटा..!!

मछली का नाम मार्गरेटा.. 

यूँ तो मछली का नाम गुडिया पिंकी विमली शब्बो कुछ भी हो सकता था लेकिन मालकिन को मार्गरेटा नाम बहुत पसंद था.. मालकिन मुझे अलबत्ता झल्ली ही कहती थी.. पर मेरा भी एक नाम था.. लेकिन उसमे किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.. घर कितने तो लोग आते थे.. कोई नहीं पूछता कि इस लड़की का नाम झल्ली क्यों है? पूछते तो बस यही की मछली का नाम मार्गरेटा? 

मुझे नहीं समझ आता कि ये नाम क्यों रखा मालकिन ने? नाम रखना ही था तो लक्ष्मी रख लेती, कितना तो प्यारा नाम है.. मेरी माँ का भी यही नाम था.. मेरी नानी मेरी माँ को लिछमी बोलती थी.. मेरी नानी होती तो इस मछली का नाम सुशीला रखती.. मेरी नानी को सुशीला नाम बहुत पसंद था लेकिन नाना को सुशील.. इसलिए मेरे मामा का नाम भी सुशील था.. नाना को सुमित नाम भी बहुत पसंद था लेकिन मामा की तीनो बेटियों का नाम नानी ने ही रखा.. मेरी नानी के घर में एक कछुआ था.. उसका नाम हमने कद्दू रखा था.. वो कद्दू जैसा दिखता था.. अब सोचती हूँ मालकिन होती तो कछुए का नाम रॉबर्ट डी कोस्टा रखती.. लेकिन इस नाम के लिए डी कोस्टा मालकिन को कोसता रहता.. हा हा हा हा...!

कही किसी ने मेरी हंसी सुन ना ली हो.. मालकिन को पता चल गया तो सोचेगी मैं यहाँ खुश हूँ.. मुझे यही रख लेगी.. जैसे मार्गरेटा को रख लिया है.. मालकिन बुरी नहीं है.. अच्छी है.. वो मुझे गाँव से यहाँ इसलिए लायी कि मैं स्कूल में पढ़ सकू.. अच्छे कपडे पहन सकू.. अच्छा खाना खा सकू.. पर मुझे तो गाँव में भी सब अच्छा लगता था.. लेकिन मालकिन कहती है वो मुझे और अच्छे से रखेगी.. जैसे मार्गरेटा को रखती है.. 

मार्गरेटा एक कांच के चमचमाते मर्तबान में रहती है.. जिसे मालकिन एक्के.. नहीं एव्के.. नहीं नहीं एक्वेरियम कहती है.. उसमे रहती है मार्गरेटा.. यूँ तो ये बंगला भी बहुत चमचमाता है.. जिसमे मालकिन रहती है.. कितनी तरह के तो फूल उगे है बगीचे में.. कितना बड़ा झरना है.. इतनी सारी सीढिया.. और मालकिन और मालिक की बड़ी बड़ी तस्वीरे.. लेकिन मालिक घर पे बहुत कम रहते है.. मालकिन ही घर की रानी है.. इतने बड़े घर की मालकिन.. मैं पीछे वाले कमरे में रहती हूँ.. ये कमरा भी बहुत बड़ा है.. हमारे गाँव के पुरे घर से भी बड़ा.. कितने तो सुन्दर रंग है दीवारों पे.. और कितना नर्म बुलायम बिस्तर.. मालकिन मेरा ख्याल भी तो कितना रखती है.. 


मेरी सहेली बिंदिया तो बोलती थी कि शहर ले जाके मालकिन मुझसे बहुत काम करवाएगी.. लेकिन ऐसा कुछ भी तो नहीं है.. झाड़ू लगाना.. पोंछा लगाना.. बर्तन धोना.. बस. ये कोई बड़ा काम थोड़े ही है..ये सब तो मैं गाँव में भी करती थी.. हाँ लेकिन मेरा छोटा भाई होता तो उसके लिए ज़रूर मुश्किल होता.. उसको तो ये सब कुछ भी नहीं आता.. एकदम लल्लू है लल्लू.. मेरी मां बहुत खुश है.. कि मैं यहाँ हूँ.. मेरे बापू भी हर महीने की एक तारीख को आते है मुझसे मिलने.. सबको लगता है कि मैं यहाँ बहुत खुश हूँ.. मैं भी यहाँ इसीलिए रहती हूँ क्योंकि सब खुश है.. मार्गरेटा भी शायद खुश ही होगी अपने चमचमाते मर्तबान में.. लेकिन मैं अगर मार्गरेटा होती तो कभी नहीं रहती उस कांच के डिब्बे में.. मैं तो समुन्दर में रहती.. अपनी सहेलियों के साथ पानी में तैरती रहती.. अपने सुनहरे पंखो से इठलाते हुए सीपियो से खेलती रहती.. लेकिन क्या पता मार्गरेटा भी यही चाहती हो.. और वो भी वैसे ही यहाँ है.. जैसे मैं हूँ.. और मालकिन?? क्या वो भी? नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता... वो तो पुरे घर की मालकिन है.. कितनी खुश रहती है.. लेकिन खुश तो मैं भी हूँ.. और मार्गरेटा भी.. तो फिर क्या हम तीनो..?? 

मैं भी क्या क्या सोचने लग गयी.. मुझे तो चिड़िया को दाना डालना है.. वही चिड़िया जो मेरी खिड़की पे आकर रोज़ बैठती है.. इस शहर में मेरी सबसे अच्छी दोस्त.. मैंने इसका नाम गुज्जी रखा है.. गाँव में मेरा सबसे अच्छा दोस्त था संकू, वो मुझे प्यार से गुज्जी बुलाता था.. अब हम दोनों कितने दूर हो गए.. लेकिन उसी को याद करके मैंने इस चिड़िया का नाम गुज्जी रखा है.. कितना तो प्यारा नाम है.. गुज्जी, वरना मालकिन को देखो मछली का नाम मार्गरेटा रखा है.. भला कोई रखता है मछली का नाम मार्गरेटा..!!

Tuesday, August 26, 2014

रंगमंच का प्यादा

बैकग्राउंड में बांसुरी का संगीत बज रहा है.. स्टेज पर एक आराम कुर्सी पड़ी है.. जिसकी कोई आवश्यकता ही नहीं बची है.. सब लोग व्यस्त है.. परदे पर आसमान भी बनाया हुआ है..  मगर उसमे अभी रात है.. आठ दस तारे बने हुए है परदे पर.. और कोने में एक चाँद पड़ा ऊंघ रहा है..  सामने दर्शक है. जो ताली बजाने से लेकर उबासी लेने तक का काम कुशलता से अंजाम दे सकते है.. “ये कैसी विडम्बना है कि जब मैं गलत था तो सब मेरे साथ थे पर अब जब मैं सच का साथ देना चाहता हूँ तो कोई मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं..” बैक ग्राउंड से आवाज़ आयी है और लाल रंग की मद्धिम रौशनी स्टेज पर उतरी है.. इसी रौशनी में एक दाढ़ी वाला चेहरा नमूदार होता है..  “मैं पूछता हु आखिर क्यों..? संवाद अदायगी में इसका कोई सानी नहीं.. आँखों में जला देने वाली आग और माथे पर भिगो देने वाला पसीना.. रेड स्पोट लाईट ठीक उसके चेहरे पर और आँखे ऐसी लाल के जैसे लहू उतर आया हो इनमे..

दर्शक सांस रोके बस उसी चेहरे पर टकटकी लगाये बैठे है.. अचानक स्वर में करुणा आ जाती है.. दर्शको के बीच अब संवेदनाये हिलोरे मार रही है.. चारो तरफ अँधेरा है बस एक नीली स्पोट लाईट का प्रकाश मंच पर बिखरा हुआ है.. बैकग्राउंड में अब वायलिन बजने लगी है..अक्सर ऐसे उदास पलो में हमें किसी ऐसी ही धुन के सहारे की जरुरत होती है.. इस धुन के साथ ही नायक का करूण  राग दर्शक दीर्घा में फैले अँधेरे को चीरता हुआ उनके भीतर उतरता जाता है.. 

नायक फिर से कहता है...
“ये कैसी विडम्बना है कि जब मैं गलत था तो सब मेरे साथ थे पर अब जब मैं सच का साथ देना चाहता हूँ तो कोई मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं.. क्यू इस दुनिया में गलत सही है और जो सही है वही गलत है.. क्यू सच्चाई और ईमानदारी मक्कारी के पैरो तले रौंदी जा रही है.. क्या सत्य का अंतिम समय आ चुका है? क्या आने वाली नस्लों को नहीं नज़र आएगा सच? जैसे हमारे पास डायनोसोर के सिर्फ किस्से है वैसे ही किस्से उनके हिस्से में होंगे सच के?” उसकी आँखों में आंसू ठहरे हुए है.. अभी गालो तक नहीं पहुंचे, लेकिन पहुंचेगे ज़रूर.. थियेटर में सारा खेल ही टाईमिंग का है, “तो क्या मैं भी चल पडू उसी राह में कि जिसकी मंजिल सिवाय झूठ और पाखण्ड के कुछ भी नहीं?”

दर्शक स्तब्ध बैठे है.. किसी का फोन वायब्रेट हो रहा है पर उससे कुछ ख़ास फर्क नहीं पड रहा किसी को. दो रक्तरंजित आँखो में सैकड़ो आँखे झाँक रही है.. ऐसा लग रहा है अब खून बह उठेगा इनसे.. मगर नहीं, “क्या कोई है जो दे सके मुझे दिलासा? अरे इतना ही कह दो कि मैं तुम्हारे साथ हूँ.. बाद में चाहे धोखा दे देना.. पर एक बार इतना तो कह दो कि मैं साथ हूँ.. डूबते को तिनके का सहारा ही तो चाहिए.. दे सको तो दे दो इतना वरना पूरी दुनिया तुम रख लो.. मैं लात मारता हूँ इस दुनिया को.. जो सिर्फ तब चिल्लाती है जब लात उसके पिछवाड़े पर पड़ती है.. नहीं रहना मुझे ऐसी दुनिया में.. मैं अपनी दुनिया खुद बसाऊंगा.. अपने नियम.. अपनी ख़ुशी के लिए.. और तुम्म!! हाँ हाँ तुम कायर लोगो को फटकने तक ना दूंगा अपनी दुनिया के आस पास भी कि मैं जानता हूँ गर तुम्हारे कदम पड़े उस ज़मी पर तो तुम उसे भी अपनी तरह बना दोगे.. क्योंकि मैं जानता हूँ खुदा ने सिर्फ जन्नत बनायीं थी दोज़ख की ईजाद तो तुम लोगो ने की...” और वो मुंह फेर लेता है दर्शको से

दर्शक खड़े होकर तालिया बजाते है.. मंच पर प्रकाश कम हो जाता है.. अभिनेता के चेहरे पर विजयी भाव है.. वो चाहता है कि जल्द से जल्द उसका नाम पुकारा जाए और वो मंच पे जाकर सबका शुक्रिया अदा करे.. जैसे ही उसका नाम पुकारा जाता है वो मंच पर पहुँचता है लेकिन नाशुक्रे लोग उठ उठ कर चल दिए है.. कुछ है जो फोन पर बात कर रहे है.. कुछ आगे वाली सीट के नीचे खिसक गए अपने जूते ढूंढ रहे है.. इन सबमें भी जो चेहरे मंच की तरफ है उनको देखकर वो खुश हो रहा है.. ये उसका मैडल है.. और जवाब भी कि अभी वो वक़्त नहीं आया है कि उसे अपनी दुनिया बनानी पड़े.. पर्दा गिर रहा है..!!


Monday, October 31, 2011

कहानी के इस भाग के प्रायोजक कौन है ?

मैं कहानी में पूरी तरह से डूबा हुआ था.. या यू कह लीजिये कि मुझे तैरना आता ही नहीं था.. एक छोटे से लकड़ी के तख्ते से लटका हुआ मैं आधा डूबा और आधा बचा हुआ सा लग रहा था.. लग क्या रहा था मैं बचा हुआ ही था.. कहानी में एक किरदार था जो मुझे भड़के हुए सांड सा लगा. ऐसा लगा जैसे अभी नाक से थू थू करता आएगा और अपने सींग मेरे पेट में घुसा देगा.. पर फिर मुझे गब्बर सिंह का वो वाला डायलोग याद आया जो अक्सर ऐसी सिचुएशन में याद आ ही जाता है कि जो डर गया समझो मर गया.. तो बस तभी गब्बर की एडवाईस फोलो करते हुए मैंने रिमोट को ठीक वैसे ही अनदेखा कर दिया जैसे कि प्रगति ने इस देश को.. 


फिर सांड जैसे कैरेक्टर ने कोई डायलोग मारा.. और कहानी की नायिका कान पे हाथ रख के चीख पड़ी.. वो रो तो रही थी पर उसके आंसु नहीं निकल रहे थे.. मुझे याद आया कि देश की विकास दर भी होती तो है मगर दिखती नहीं.. दिमाग माना नहीं पर दिल ने कहा जाने दो.. तो मैंने भी जाने दिया.. अगले सीन में बैकग्राउंड म्यूजिक टॉप पे था.. ये वाला म्यूजिक हर बार ऐसे सीन में आ ही जाता था.. पता नहीं कौन पीछे बैठा बैठा बजाता था..

सीन चेंज 
क्योंकि परिवर्तन इस द ब्लडी रुल ऑफ़ दिस संसार तो सीन भी चेंज हो जाता है.. इस सीन में ढाई सौ किलो की ज्वेलरी पहनी आंटी मत कहो ना टाईप आंटी की एंट्री होती है.. कैमरा चार बार बिना मकसद देश के युवाओ की तरह इधर उधर होता है.. आंटी डायलोग मारती है "अब देखती हु इस घर में किस की चलती है ?" ये बोलके वो चश्मा पहनती है.. मुझे लगा नज़र का होगा पर वो कोई रे बैन वे बैन टाईप का होता है.. चश्मा पहनते ही उसको सामने नज़र आता है बजाज.. अरे नहीं नहीं स्कूटर नहीं..... कैरक्टर, वैसे दोनों के एंड में टर देखकर मैं भी आप ही की तरह कन्फ्यूज हो गया था पर आपकी तरह मैं दुसरो के भरोसे नहीं रहा.. मैंने खुद ने आईडिया लगा लिया कि ये कैरेक्टर है..   वैसे भी फिल्मो और सीरियल्स में ये ही लोग भरे पड़े है.. बजाज, सिंघानिया, कपूर...... पता नहीं कौनसे कोटे के अंडर में घुसे हुए है... 

एनी वे 
बजाज की प्लास्टिक सर्जरी हो चुकी थी चेहरा बदल चुका था फिर भी सबने पहचान लिया... ये चौथा बजाज था जो हर बार अपने चौथे पे प्लास्टिक सर्जरी करवा के वापस आ जाता.. इसकी बीवी ने इस चक्कर में कई चूडिया भी फ़ोकट में तोड़ डाली... इधर वो चूड़िया तोडती की उधर वो वापस आ जाता.. अब तो मेरे भी ये समझ आने लग गया था कि रद्दी वाला अखबार तौलते तौलते क्यों पूछता रहता है कि भाईसाहब प्लास्टिक व्लास्टिक भी हो तो दे दो.. खैर बजाज आ तो गया था पर उसके आते ही एपिसोड ख़त्म हो गया.. नेक्स्ट एपिसोड में क्या दिखाया जाएगा वो बताया जा रहा था..ना चाहते हुए भी मैंने देखा कि अगले एपिसोड में क्या होगा.. पर जो दिखाया उन्होंने वो ना दिखाने के बराबर ही था.. 

फायनली 
रिमोट को पिस्तौल की तरह पकड़कर में टी वी के सामने तान चुका था.. अगर इसमें गोली होती तो मैं चला ही देता.. पर अच्छा हुआ कि गोली नहीं थी... क्योंकि टी वी की किश्ते भी अभी पूरी नहीं हुई है.. ऐसे में जज्बाती होना ठीक नहीं.. बस यही सोच के मैंने चैनल बदल दिया.. अब यहाँ एक सज्जन है जो बुरी नज़र से बचाने का तावीज़ बेच रहे है.. अगले चैनल पे सर पे बाल उगाने का तेल बेचा जा रहा है.. उस से अगले पे कोई श्री यंत्र है.. उस से अगले पे लोकेट.. ये क्या हो रहा है.. ये लोग थोडी देर पहले सीरियल्स दिखा रहे थे अचानक फूटपाथ पे सामान बेचने वालो जैसे लगने लगे है.. इनका कोई इमान धरम है या नहीं..

मुझे तो डाऊट हो रहा है कि मेरे ऑफिस के रास्ते में हिमालय की जड़ी बूटिया बेचने वाला भी किसी बड़ी कंपनी का डायरेक्टर होगा.. ऑफिस में ज़रूरी काम का बहाना मारके ज़रूर तिब्बती मार्केट में स्वेटर या शॉल बेचता होगा.. टी वी चैनल वाले पता नहीं क्या चाहते है.. जब मैं छोटा था तो टी वी ठीक करने के लिए छत पे चढके एंटीना हिलाता था.. मुझे नहीं पता था बाद में ये टी वी मेरी छाती पे चढ़के मेरे दिमाग का एंटीना हिलाएगा..... अब आप भी निकल लीजिये फटाफट..., पोस्ट ख़त्म हो चुकी है और मैं जा रहा हूँ टी वी ऑन करने वो क्या है ना कि बालिका वधु का रिपीट टेलीकास्ट शुरू होने वाला है.. कल रात देख नहीं पाया था.. लीजिये शुरू हो गया.. बता रहे है कि कहानी के इस भाग के प्रायोजक है...........

अब जाइये भी.. देखने भी ना दीजियेगा? 


Wednesday, August 24, 2011

Wednesday, June 29, 2011

कहानी शीला, मुन्नी, रज़िया और शालू की


बात ये है बॉस कि लेखक से किसी ने कहा कि आमिर खान इतने ईमानदार है कि अपनी फिल्म 'देहली बेली' को खुद ही 'ए' सर्टिफिकेट दिलवाने की सिफारिश किये रहे,  लेकिन लेकिन लेकिन.. हम आपको ये भी बता दे कि लेखक ने भी अपनी इस पोस्ट को सेंसर बोर्ड के पास ए सर्टिफिकेट लेने के लिए भेजा था पर सेंसर वालो ने ये बोल के लेखक को भगा दिया कि हम तुम्हारी दो दो टके की ब्लॉग पोस्टो को सर्टिफिकेट देने के लिए नहीं बैठे है कोई फिल्म विल्म हो तो लाओ.. तो अब चूँकि ब्लोगिंग का कोई सेंसर बोर्ड तो है नहीं.. इसलिए इस पोस्ट को बच्चा पढ़े या बडा या फिर बूढा पढ़ ले.. उसकी जिम्मेदारी लेखक की नहीं.. 
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डिस्क्लेमर - इस कहानी के पात्रो का किसी भी टी वी पे दिखाए जाने वाले गानों के नामो से कोई सम्बन्ध नहीं है और यदि है तो वो नाजायज़ सम्बन्ध है

चेतावनी - " कृपया पढ़ते वक़्त अपनी किडनी फ्रीज़र में रखकर पढ़े अन्यथा उसके जाम हो जाने का खतरा है "


तो क्या शीला जवान होने वाली थी?
नहीं ऐसा कुछ था तो नहीं.. यूँ उम्र उसकी जवानी की दहलीज़ तक पहुची नहीं थी.. पर कुछ मोहल्ले वालो ने... कुछ कोंलेज के लडको ने..., अपनी अपनी नजरो से उसे जवानी की दहलीज़ तक पंहुचा ही दिया था.. शीला समझ चुकी थी कि उसकी जवानी आने में अब टेम नहीं है.. सो टेम खोटी नहीं करना चाहिए..

इधर रजिया
टेलर मास्टर की बेटी, बचपन से ही समझदार, चाय में कितनी शक्कर और कितनी पत्ती.. इसका बखूबी हिसाब रखने वाली.. खूबसूरत इतनी कि गाल छू लो तो लाल पड़ जाए.. अब्बू की दुकान पे सिलाई मशीन चलाती.. रजिया के साथ साथ उसके अब्बू भी जानते थे कि लड़के जींस को ऑल्टर कराने उनकी दुकान में क्यों आते थे?? पर आने वाले को कौन रोंक सका है भला? (नोट : ये भला 'भला बुरा' वाला भला नहीं है)

और उधर मुन्नी
मुन्नी आज़ाद खयालो वाली लड़की.. जिसे हर जंग में जीतना और हर दुश्मन को पीटना ही गवारा था.. ऐसा नहीं था कि उसके मन में प्रेम नहीं था.. पर बचपन से अब तक जो भी उसने देखा.. या यू कहे कि झेला उसके बाद उसने नफरत को गोद ले लिया..

इन सबके बीच शालू
शालू ज्यादा समझदार नहीं थी पर उसकी समझ में एक बात आ गयी थी कि दुनिया जाए तेल लेने.. !! शालू को दुनिया से कोई मतलब नहीं था.. यू मतलब उसको इस बात से भी नहीं था कि दुनिया तेल लेने भला जाएगी कहा? वैसे शालू का एक ही उसूल था कि जैसे जीना है वैसे जियो.. बस जी..!!!

तो शीला
शीला जब भी घर से बाहर निकलती कुछ आँखे उसका दामन थाम लेती.. उसको घर से निकालकर गली के लास्ट कोर्नर तक छोडके आती.. ( ऐसी आँखों का राम भला करे ) इधर शीला को मोहल्ले की आँखों ने छोड़ा और उधर बस स्टॉप पे खड़े लडको ने थामा.. साथी हाथ बढ़ाना की तर्ज़ पे शीला के दामन को थामती आँखों की रिले रेस चलती रहती.. और जैसे ही शीला बस में चढ़ती कि वो टच स्क्रीन फोन बन जाती..सब पट्ठे उसके सारे फीचर्स चेक कर लेना चाहते थे.. वैसे भी मोबाईल वही लेना चाहिए जिसमे सारे फीचर्स मौजूद हो..

हाँ तो शीला
बस से उतरते ही शीला को कोंलेज के लड़के संभाल लेते.. उनका बस चलता तो वो शीला को लेने उसके घर तक चले जाते.. लेकिन वे लडकियों के आत्मनिर्भर होने वाली सोच के पक्षधर थे.. लडकियों और लडको को समान अधिकार मिलने चाहिए.. ऐसा उनका मानना था (और लेखक का भी यही मानना है) तो कोंलेज के गेट से वो हैंडल विद केयर टाईप से शीला को क्लासरूम में ले जाते.. यू ले जाना तो वो बैडरूम में चाहते थे पर इस दुष्ट समाज के ओछेपन जिसमे कि लडकियों को छेड़ना एक अपराध था, वो राम राज की उम्मीद करके बस क्लासरूम से ही काम चला लेते.. उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि कम से कम रूम शब्द तो आ ही रहा है..

रज़िया याद है ना..
अब्बू की टेलर की दुकान में बैठी सिलाई मशीन का पहिया घुमाती रहती... यू उसकी ज़िन्दगी की गाडी खुद बिना पहियों वाली थी.. उमर उसकी बढती जा रही थी और बढती उमर में होने वाले परिवर्तन भी हो रहे थे.. अम्मी तो उसको अब्बू के हवाले करके निकल ली दुनिया से.. और अब्बू बेचारे हर सलवार कमीज़ सिलवाने आने वाली महिलाओ में उसकी अम्मी ढूंढते रहते.. इसी के चलते उनके चश्मे का नंबर बढ़ गया और धंधा घट गया..  "अब मियां आजकल कौन सिलवाने बैठा है कपडे.." इन्ही जुमलो के साथ रज़िया के अब्बू रंगे हाथो पकडे जाते.. 

रज़िया जो कि आपको याद है..
वो दिन भर लडको की जींसो को ऑल्टर करते करते ऐसी ऊब गयी थी कि उसकी शक्ल खुद टॉम अल्टर जैसी हो गयी.. पर उसकी शक्ल से ना किसी को कुछ देना था ना लेना था.. सो जींस ऑल्टर होने के लिए आये जा रही थी और उसके अब्बू को उसकी चिंता खाए जा रही थी... पर लड़की की शादी कराना कोई आस्तीन काटने जितना सरल काम तो था नहीं.. हाँ जेबे काटी जाती तो बात बन सकती थी.. पर ये काम भी उनके बस का नहीं था.. अब सलवार कमीज़ में जेबे जो नहीं होती.. 

तो रज़िया जो कि आपको अभी तक याद है 
दुसरो की जींस ऑल्टर करके छोटी करती रही पर अपनी बढती उम्र को छोटा करने का हुनर जानती नहीं थी.. सो जैसे जैसे उम्र बढ़ी वैसे वैसे जींस भी ऑल्टर के लिए कम आने लगी.. अब तो इक्का दुक्का जींस आती वो भी कोई तलाकशुदा लोगो की.. रज़िया चुपचाप ऑल्टर करती रहती.. जींस काटना तो उसके लिए आसान था पर दिन काटना उतना ही मुश्किल.. 

मुन्नी को भूल तो नहीं गए आप?
क्या कहा? उसे कैसे भूल सकते है भला... !! सो तो है. (लेखक आपके इस कथन से सहमत है कि मुन्नी को नहीं भूला जा सकता) तो जनाब मुन्नी जो है उसको जीतना और पीटना तो पसंद है ही.. बचपन में भी या तो वो किसी खेल को जीत लेती थी या हारने पर जीतने वाले को पीट देती थी.. लेन देन के मामले में बच्ची बचपन से ही बड़ी मुखर थी.. और वो लोग जो ये कहते फिरते है कि पूत के पांव पालने में ही नज़र आ जाते है.. उनको भी मुन्नी यदा कदा ढूंढती रहती.. कि यदि वो लोग मिल जाए तो उनके पालनो (आप समझ ही गए होंगे) पे दो लात जमा के बताये कि पूत ही नहीं पुत्रियों के पांव भी पालने में ही नज़र आते है..

मुन्नी जिसे कि आप भूल नहीं सकते   
मुन्नी उस वक़्त से मुन्नी नहीं रही जब वो मुन्नी थी.. और उसकी इस समझ को डेवलप कराने में जिन लोगो ने उसकी सहायता कि उनमे थे उसके पिताजी के दोस्त, मकान मालिक का साला, गणित की ट्यूशन वाले मास्टरजी, पुरानी कंपनी के मैनेजर और ऐसे कई सारे भले लोग जिनका जन्म ही मानव कल्याण हेतु हुआ है.. वे यथा संभव मुन्नी का कल्याण करने के प्रयास में लगे रहते.. हालाँकि मुन्नी बड़ी निष्ठुर हृदयी थी वो नहीं चाहती थी कि उसका कल्याण हो.. किसी न किसी बहाने से वो उन कल्याण कार्यो पर पानी फेर ही देती थी.. 

मुन्नी जिसे कि भूला ही नहीं जा सकता 
वो ऐसे ही कल्याणों के खिलाफ आवाज़ उठाने लगी.. कोई सेक्स्युअल हर्रेस्मेंट नाम की किसी चीज़ के विरोध में अभियान भी चलाया उसने.. बाद में सुनने में आया कि  ये अभियान समाज के विरोध में था.. मुन्नी नहीं चाहती थी कि ऑफिस में फ्रेंडली एन्वायरमेंट रहे.. उसके ऐसा करने से लोग तनाव में रहने लगे.. सुबह होते ही परेशान हो जाते कि आज ऑफिस में करेंगे क्या? वही कुछ मूर्ख महिलाये ना जाने क्यों इस अभियान से खुश थी.. खैर उन्होंने मुन्नी को फेमस कर दिया.. बोले तो मुन्नी का बहुत नाम हो गया..  

कि आयी अब शालू की बारी 
शालू को मुन्नी शीला या रज़िया से कोई मतलब नहीं था.. (वैसे लेखक ने आपको पूर्व में ही बता दिया है कि शालू को दुनिया से कोई मतलब नहीं है और दुर्भाग्य से रज़िया, मुन्नी और शालू भी इसी दुनिया में है तो शालू को उनसे कोई मतलब नहीं था..) शालू बचपन से ही नृत्य कला में प्रवीण थी.. जब भी घर में मेहमान आते शालू की मम्मी उसे अपने नृत्य का नमूना दिखाने को कहती.. और शालू नमूनों की तरह नमूनों के सामने अपने नृत्य का नमूना पेश करती.. वे लोग नृत्य के अंत में यही कहते पाए जाते कि बहनजी आपकी लड़की तो बड़ी होशियार है.. पर इसी होशियारी के चलते शालू पढाई में होशियार नहीं हो पाई.. हालाँकि उसे अंग्रेजी बोलना अच्छा लगता.. अंग्रेजी में ग्रामर व्रामर जैसे दिखावो और आडम्बरो से वो कोसो दूर थी.. भाषा में ग्रामर के दखल के खिलाफ थी शालू.. 

शालू, जो भाषा में ग्रामर के दखल के खिलाफ थी..
वो उन लोगो के भी खिलाफ थी जिनका ये कहना था कि शालू का नृत्य और उसकी भंगिमाए स्वस्थ समाज के अनुकूल नहीं है.. शालू का ये मानना था कि ये लोग जो उसके खिलाफ है घर में सी डी पे उसका नृत्य देखते है.. शालू को कतई ये गवारा नहीं था कि उसकी सीडी घर पे देखने वाले बाहर आकर उसको सीढ़ी बनाकर अपना उल्लू सीधा करे.. इसीलिए वो हमेशा उल्टी बात करती थी.. 

शालू, जो हमेशा उल्टी बात करती थी.
उसको कई बार उल्टी करते देख मोहल्ले वाले उल्टी सीधी बाते करते.. कई लोगो का ये भी कहना था कि शालू को नृत्य प्रेम के अलावा प्रकृति से भी प्रेम है..क्योंकि वो पृकृति प्रदत कुछ ऐसी क्रियाये.. ऐसे लोगो के साथ करती थी जिन लोगो की प्रकृति ठीक नहीं थी.. साथ ही उन लोगो का ये भी मानना था कि वे प्रकृति प्रेमी शालू के ऐसे प्रकृति प्रेम को देखते हुए उसे कुछ आर्थिक सहायता भी कर देते थे.. और ये बाते वो इतनी विश्वसनीयता से कहते थे जैसे पुरे घटनाक्रम के वे चश्मदीद गवाह हो.. या फिर शालू उनके खालू के घर ही गयी हो.. पर शालू को इन बातो से कोई फर्क नहीं पड़ता था... आपको याद होगा ही कि शालू का ये मानना था कि दुनिया जाए तेल लेने...

पोस्ट लम्बी हो रही है.. लगता है ऑल्टर करना पड़ेगा..
तो पोस्ट जो कि लम्बी हो रही है उसमे हमने तीन साल का लीप ले लिया है.. (तीन साल बाद)

तीन साल बाद शीला 
शीला जिसको कि इन तीन सालो में इतने प्रेम पत्र मिले कि उनको रद्दी में बेचने पर उसे साढे तीन सौ रूपये मिले (दरअसल लेखक ही वो रद्दी वाला है, जो भेष बदल कर रद्दी खरीदता है और उनमे मिली चिट्ठियों को अपने नाम से छापता है.. उनमे भी कुछ प्रेम पत्र ऐसे है जो छपने लायक है, पर वो फिर कभी) तो शीला ने दो साल तक उन पत्रों को एक करियर ऑप्शन की तरह चुना और कुछ को जवाब भेजकर अपने लिए दैनिक जीवन की आवश्यकताओ की पूर्ति भी की.. मसलन अपना मोबाईल रिचार्ज करवाना, सूने कानो के लिए टॉप्स खरीद्वाना, अपने लिए हैण्ड बैग्स, फास्टट्रेक की घडी और भी ऐसी कई चीज़े.. साथ ही कभी कभी हलवाई की जलेबिया और कचोरिया भी.. और सिनेमा तो आप खुद ही समझ जायेंगे.. 

खैर तीसरे साल शीला की ज़िन्दगी में आया रमेश जो कि शीला की ही तरह लुक्खा था.. बस दोनों की जोड़ी जम गयी.. पर शीला जो कि दीक्षित परिवार की बेटी थी उनको रमेश जैसे सिन्धी लड़के से अपनी बेटी की शादी नागवार गुजरी.. पर शीला ने हार नहीं मानी और घर से भाग गयी.. वो ये बात जानती थी कि माता पिता के आशीर्वाद के बिना कोई संतान खुश नहीं रह सकती.. इसलिए तिजोरी में से दस तोला सोना माता पिता के आशीर्वाद स्वरुप साथ ले गयी..  (भगवान ऐसी औलाद सबको दे).. 

रमेश कीजवानी से शादी हो गयी उसकी... सिन्धी फैमिली होने के बावजूद शीला वहा खुश है.. और अब कोई उसका नाम पूछता है तो वो कहती है कि माय नेम इज शीला... शीला कीजवानी

तीन साल बाद रज़िया 
आज से दो साल पहले एक साहब अपनी जींस ऑल्टर करवाने आये और रज़िया को दिल दे बैठे.. उम्र में वे रज़िया के अब्बू से ज्यादा तो नहीं थे पर कुछ कम भी नहीं थे.. रज़िया के पिता पहले तो बेटी के भविष्य के प्रति आशंकित थे.. पर जब उनकी आशंका देखते हुए उन साहब ने उन्हें पचास हज़ार रुपी विश्वास जताया तो वे खुदा की मर्ज़ी जानकर निकाह को राजी हो गए.. रज़िया दुल्हन बनके ससुराल पहुच गयी.. और साथ में ले गयी अपनी कैंची.. पगली, समझती होगी कि ज़िन्दगी भी इससे  कट जायेगी.. 

ज़िन्दगी में जो लोग सरप्राईजेस में बिलीव करते है उन्हें रज़िया की ज़िन्दगी देखनी चाहिए.. जिसे ससुराल में आकर कई सरप्राईजेस मिले.. आने के छ महीने बाद ही उसके पति ने उसके अन्दर छिपी प्रतिभा को खोज लिया.. और पहले से प्रतिभावान अपनी दो पत्नियों के सुपुर्द कर दिया... ये था रज़िया का दूसरा सरप्राईज़ कि उसकी माँ की उम्र की दो सौतन का होना.. वे दोनों थी भले सौतन लेकिन रज़िया का बहुत ख्याल रखती थी.. हालाँकि शुरू शुरू में रज़िया ने अपनी प्रतिभा से दुसरो को लाभान्वित करने में आनाकानी की.. पर उसकी दोनों सौतनो ने लोहे के गर्म चिमटे का सहारा लेकर उसे समझा ही दिया.. आखिर चोट खाकर ही पत्थर हीरा बनता है.. अब रज़िया से सब खुश है.. और उसके शौहर भी जो ये जानते थे कि पचास हज़ार तो यू ही निकाल आयेंगे.. 

रजिया अब कुछ बोलती नहीं बस मन ही मन अल्लाह से दुआ करती है.. कि अल्लाह बचाए मेरी जान कि रज़िया गुंडों में फस गयी.. 

तीन साल बाद मुन्नी 
मुन्नी जिसने कि महिलाओ की सेवा करके बहुत नाम कम लिया था वो अब और भी बड़ी समाज सुधारक बन गयी थी.. पर दो साल पहले ऐसा हुआ कि लेखक को भी अचंभा हुआ.. हुआ यू कि मुन्नी केरल गयी थी एक विधवा आश्रम का उद्घाटन करने.. बस वही पर उसकी मुलाक़ात डार्विन नामक व्यक्ति से हुई.. जो वहा एक एन जी ओ चलाता था.. और चाहता था कि मुन्नी जैसी समाज सुधारक उसके मिशन में उस से जुड़े.. पहले तो मुन्नी तैयार नहीं हुई लेकिन फिर जब उसने गाँधी जी की कई सारी तस्वीरो वाला बैग दिखाया.. तो गाँधी वादी विचारधारा वाली मुन्नी मना नहीं कर सकी.. 

बस फिर क्या था मुन्नी ने अब तक जितने भी महिला आश्रम खुलवाए थे वहा की महिलाओ को प्रभु के मार्ग पे चलने हेतु प्रेरित किया.. और साथ ही ये भी समझाया कि ईश्वर तो ईश्वर है फिर चाहे वो राम हो या ईशु.. जो महिलाये ये समझ गयी उन्होंने तो बात माँ ली पर जो नहीं मानी उन्हें भी गांधीवादी विचारो से मुन्नी ने मनवा ही लिया.. हालाँकि इस से कुछ मूढ़ मति लोग ये भूलकर कि ईश्वर एक है.. मुन्नी जैसी भली महिला के बारे में अनाप शनाप बकने लगे.. और तब तो उसके पुतले भी जलाये जब वो मुन्नी से मार्ग्रेट बन गयी और उसने डार्विन से शादी कर ली..

डार्विन का पूरा नाम डार्विन लिंगानुराजन था.. और मुन्नी उसे प्यार से डार्लिंग कहती थी.. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि सुहागरात पर मुन्नी ने डार्विन से क्या कहा होगा.. जी हाँ! मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए..



तीन साल बाद शालू 
अब जनाब शालू का क्या कहे.. दुनिया उसके बारे में उल्टी बाते करती रही और वो उल्टिया करती रही.. टी वी पे तो वो हिट थी ही बाद में मोबाईल पर भी उसने झंडे गाद दिए.. जो लोग बड़े परदे पर काम नहीं मिलने की वजह से छोटे परदे पर आये थे वो शालू की उससे भी छोटे परदे पर कामयाबी देखकर जलने लगे.. शालू से जलने वालो की लिस्ट लम्बी होती गयी.. पर शालू को काम की कोई कमी नहीं रही.. 

दो साल पहले शालू ने टी वी पे अपना स्वयंवर भी रचाया था और एक बेचारे पे तरस खाके उससे शादी भी कर ली थी.. पर वो लड़का नालायक निकला उस ने शालू को सिर्फ इस बात पे तलाक दे दिया कि शालू ने उसे बिना बताये स्वयंवर पार्ट टू के कोंट्राक्ट पे साईन कर दिया.. हालाँकि शालू ने स्वयंवर पार्ट टू किया तो सही पर उसकी टी आर पी पिछले शो के मुकाबले कम रही.. तीसरे स्वयंवर में किसी और को लेने की बात पर शालू ने ही चैनल वालो को आईडिया दिया कि शादी ना सही तो तलाक पर ही प्रोग्राम बना दो.. चैनल वालो को ये सुझाव पसंद आया.. टी वी पे ही शालू ने दुसरे स्वयंवर में हुई जिस लड़के से शादी हुई थी उसी से तलाक ले लिया.. सुना है वो लड़का तीसरे स्वयंवर में फिर से पार्टिसिपेट कर रहा है.. 

जिस दुनिया ने शालू के बारे में लाख बाते कही पर फिर भी शालू सफल हो गयी.. उसी दुनिया को जवाब देते हुए शालू अपने किसी डांस शो में ये गाना गा रही थी.. कि मुन्नी भी मानी और शीला भी मानी.. शालू के ठुमके की दुनिया दीवानी  

तो दोस्तों ये थी कहानी शीला मुन्नी रज़िया और शालू की.. जो आपके चरणों में लेखक का तुच्छ प्रयास है 
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रिक्वेस्ट - जैसा कि आप जानते है कि महंगाई दिन ब दिन बढ़ रही है.. और ब्लॉग लेखन पर सरकार द्वारा कोई सब्सिडी भी नहीं मिलती इसलिए लेखक ने ब्लॉग लेखन के साथ साथ पार्ट टाईम दुकान भी खोली है जिसमे कहानी में प्रयुक्त वस्तुओ को बेचा जाएगा.. यदि आप खरीदना चाहे तो निम्न वस्स्तुओ का ऑर्डर दे सकते है.. दस परसेंट की विशेष छूट के साथ 
  1. शीला के पांच प्रेम पत्रों के सेट (जिसमे पांच के साथ एक फ्री है)
  2. रज़िया की कैंची 
  3. मुन्नी द्वारा लिखी किताब "ईश्वर एक है"
  4. और शालू के डांस की सीडी मय होंठोग्राफ (जो खुद शालू के होंठो द्वारा दिया गया है)

इनमे से किसी भी चीज़ को मंगवाने हेतु लेखक से संपर्क किया जा सकता है.. माल वी. पी. पी. द्वारा भेजा जाएगा.. 
(नोट - फैशन के इस दौर में गारंटी की इच्छा ना करे)